अंतरराष्ट्रीय

क्‍यूबा में नेतृत्व परिवर्तन

 

क्‍यूबा के बारे में जानने की मेरी उत्सुकता बहुत पुरानी है। जब मैं इंजीनियरिंग का छात्र था और स्टूडेंट फेडरेशन में शामिल हुआ था तब दिल्ली में मावलंकर हॉल में एक एजुकेशनल कांफ्रेंस हुई थी। उस कांफ्रेंस के बाद बहुत से छात्र चे गुयिवारा और फिदेल कास्त्रो के बारे में कुछ उसी क्रान्तिकारी रूमान के साथ बतिया रहे थे जैसे कि हम भगत सिंह और चंद्रशेखर आजाद या रामप्रसाद बिस्मिल जैसे क्रान्तिकारियों के बारे में बात कर रहे हों। तो चे और फिदेल हमारे आदर्श बने। उनके बारे में और अधिक जानने की उत्सुकता बढ़ी। तो कुछ किताबें छानीं।

लेकिन तब क्‍यूबा जाने की बात सोचना शेखचिल्ली के सपने से ज्यादा कुछ न होता इसलिए सोचा ही नहीं गया। हिन्दुस्तान में ही कश्मीर, शिमला और अंडमान देखना न पूरे होने वाले सपनों की तरह थे। फिर क्‍यूबा का तो इतिहास-भूगोल ही कुछ पता नहीं था। बहरहाल एक लम्बे अंतराल के बाद ही ये सभी जगहें देखने की इच्छा पूरी हो सकी। जनवरी 2019 में क्‍यूबा जाने का सपना भी साकार हुआ। क्‍यूबा पहुँच कर वहाँ का सामाजिक-सांस्कृतिक ताना-बाना समझने की कोशिश चलती रही तो वहाँ की राजनीति के बारे में जानने-समझने की इच्छा भी प्रबल रही।

लेकिन भाषा की समस्या बहुत आड़े आ रही थी। दुभाषिया महंगा सौदा था अतः गाईड और कैब ड्राईवर से काम चलाया। फिर जो अंग्रेजी बोलता दिख जाता दो चार बातें उससे हो जातीं। हवाना में केपिटल बिल्डिंग के सामने पहुँच कर मैने गाईड से पूछा कि अभी पॉलिटिकल सिचुएशन कैसी है? राऊल के बाद जो नये प्रेसीडेंट मिगेल डायस कानेल आए हैं उनका क्या हाल है? तो गाईड ने जवाब दिया कि बूढ़े लोगों का वही पुराना घिसा पिटा सोच होता है। राऊल कास्त्रो बहुत बूढ़े हो चुके हैं वो कुछ नया नहीं कर सकते। कुछ नया करने के लिए ऊर्जा चाहिए, क्रिएटिव मस्तिष्क चाहिए। कानेल युवा हैं उनमें एक नयी सोच भी है और एनर्जी भी है। तब मैने पूछा कि कम्युनिस्ट पार्टी पर अधिकार तो राऊल का ही है। वही फर्स्ट सेक्रेटरी यानि महासचिव हैं। गाईड बोला वो ठीक है पर चूंकि कानेल उन्हीं की मर्जी से प्रेसीडेंट बने हैं तो वह दखल नहीं देंगे। और उन्होंने 2021 में महासचिव का पद छोड़ने की बात भी कही है। इससे ज्यादा बात नहीं हो सकी।

बाद में मुझे पता चला कि राऊल ही कानेल के मेंटर (मार्गदर्शक) हैं और वे वाईस प्रेसीडेंट से प्रेसीडेंट उनकी मर्जी से ही बने हैं। राऊल ने उनके लिए ही प्रेसीडेंट का पद छोड़ दिया है। अब 19 अप्रैल को कानेल राष्ट्रपति के साथ-साथ क्‍यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी के मुखिया यानि फर्स्ट सेक्रेटरी भी बन गये। जैसाकि विगत में फिदेल कास्त्रो और राऊल कास्त्रो थे। यह क्‍यूबन कम्युनिस्ट पार्टी का शीर्ष स्थान है। कानेल से क्‍यूबा के लोगों की अलग अपेक्षाएं हैं। पहली अपेक्षा बेरोजगारी कम करना, आर्थिक सुधार और सामाजिक सुरक्षा तथा संतुलन बनाए रखने की है।कोरोना वायरस का संक्रमण 195 देशों में फैल चुका है. संक्रमित मामलों की संख्या पौने चार लाख के आस पास पहुंच रही है.

लेकिन पिछले वर्ष में कोरोना के चलते बाकी दुनिया की तरह वहाँ की आर्थिक स्थिति को भी बड़ा झटका लगा है। अर्थव्यवस्था में 11 प्रतिशत की गिरावट हुई है। यह इसलिए भी मायने रखता है क्योंकि क्‍यूबा एक गरीब देश है। और अमेरिका तथा यूरोपियन यूनियन के प्रतिबंध यथावत हैं। ऐसी स्थिति में क्‍यूबा में स्थिरता और शांति बनाए रखना एक बड़ी चुनौती है। अमेरिका समर्थक असंतुष्ट भी काफी हैं। देखना यह है कि इस चुनौती से कानेल किस तरह निपटते हैं। क्या वह वर्तमान नीतियों में कोई महत्वपूर्ण परिवर्तन करेंगे?

अपने पूर्ववर्ती शीर्ष नेताओं की आर्थिक नीतियों और विदेश नीति में आगे सुविचारित सुधारात्मक कदम उठाएंगे, यह सावधानी रखते हुए कि देश का सामाजिक ढ़ाचा भी न गड़बड़ाए। अमेरिका से। बिना दवाब झेले कूटनीतिक सम्बन्ध कैसे बेहतर हों यह भी बहुत कठिन काम है। अब कानेल की भविष्य नीति और दक्षता का पूर्वानुमान दो बातों से लगाया जा सकता है। पहला यह कि विगत वर्षों में कानेल की कार्यप्रणाली क्या रही है। और क्‍यूबा की कम्युनिस्ट पार्टी तथा सरकार में उनकी भूमिका और प्रशिक्षण कैसा रहा है। कानेल के कैरियर की अगर बात की जाए तो 1982 में उन्होंने इलेक्ट्रॉनिक इंजीनियरिंग में स्नातक की डिग्री हासिल की। उसके बाद तीन वर्षों तक क्‍यूबा की सेना में सेवाएं दीं जो कि हर क्यूबाई युवा के लिए आवश्यक है। कुछ और जिम्मेदारियाँ संभालते हुए 1993 में कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य बने।

यह वह समय था जब सोवियत संघ का विघटन हो चुका था। वहाँ साम्यवादी व्यवस्था खत्म हो चुकी थी। सोवियत संघ से मिलने वाली सहायता और सब्सिडी बंद हो गयी थी। पेट्रोल, खाद्यान्न और दवाईयों की भारी कमी थी। यह समय क्यूबा के लिए बहुत परेशानी का समय था। इसे ‘स्पेशल पीरियड इन पीस टाईम’ कहा गया। तब वेनेजुएला ने तेल दिया और बोलीविया ने सहयोग किया। ह्यूगो शावेज फिदेल के बहुत निकट थे। इस समय पर्यटन पर फिर जोर दिया गया। इस कठिन समय में कानेल की कार्यक्षमता के दम पर 2003 में उन्हें पोलित ब्यूरो का सदस्य बनने का अवसर मिला। यहाँ से उनकी जिम्मेदारियाँ बढ़ गयीं, साथ ही चुनौतियाँ और कार्यनिष्पादन की अपेक्षाएं भी।

2006 में फिदेल कास्त्रो गंभीर रूप से बीमार हो गये और सार्वजनिक जीवन से अलग हो गये। तब राऊल कास्त्रो कार्यकारी राष्ट्राध्यक्ष नियुक्त हुए। 2008 में फिदेल कास्त्रो ने त्यागपत्र दे दिया और राऊल कास्त्रो क्‍यूबा के राष्ट्रपति और क्‍यूबन कम्युनिस्ट पार्टी के फर्स्ट सेक्रेटरी बन गये। राऊल कास्त्रो के साथ कानेल की अच्‍छी समझदारी थी। 2008 से ही क्‍यूबा में कृषि सुधार लागू हुए। एक वर्ष बाद ही 2009 में कानेल को उच्च शिक्षा का मंत्री तथा प्रारंभिक उपराष्ट्रपति बना दिया गया। 2010 से कुछ और सुधार शुरू हुए। नागरिकों को छोटे निजी व्यवसाय की छूट दी गयी। 2011 में क्‍यूबा के नागरिकों को व्यक्तिगत तौर पर घर खरीदने-बेचने का संवैधानिक अधिकार दे दिया गया।

अगस्त 2012 में क्यूबन एनर्जी नामक सार्वजनिक कंपनी ने पहला सोलर संयंत्र स्थापित किया। यह कंपनी क्यूबन सोलर ग्रुप की सदस्य थी। 2013 में दस और सोलर प्लांट लगाए गये। जिनसे अनेक भागों में विद्युत आपूर्ति संभव हो सकी। इसी वर्ष कानेल को फर्स्ट वाईस प्रेसीडेंट चुना गया। क्‍यूबा पर तमाम आर्थिक पाबंदियों के चलते वहाँ बड़ा आर्थिक संकट था। समुद्री तूफानों के कारण भी परेशानियाँ बढ़ गयी थीं। आय के स्रोत सीमित थे। शकर, तंबाकू, सिगार, मछली, कॉफी, चावल, आलू और पशुओं के निर्यात पर अर्थव्यवस्था टिकी हुई थी। पर्यटन कम हो गया था। ऐसे में क्‍यूबा के सामाजिक ढांचे को छिन्नभिन्न होने से बचाना और अमेरिका समर्थक असंतुष्टों से निपटना बहुत कठिन कार्य था।

राऊल कास्त्रो

राऊल कास्त्रो क्‍यूबा की आजादी के लिए सशस्त्र विद्रोह तथा अमेरिकी साजिशों निपटने तथा क्‍यूबा के लोगों को बुनियादी जरूरतों की आपूर्ति, उनकी हौसला अफजाई तथा तथा असंतुष्टों से निपटने के कौशल में फिदेल कास्त्रो के कंधे से कंधा मिलाकर खड़े रहे थे। अब उन्हें एक समर्थ उत्तराधिकारी की तलाश थी। जिसे उन्होंने कानेल के रूप में पहचाना और विकसित किया। ऐक बात यह थी कि कानेल ने न तो क्‍यूबा की मुक्ति की लड़ाई देखी थी न लगातार युद्ध और भयानक साजिशों से निपटने का उनका अनुभव था पर नीति निर्धारण और उनके कार्यान्वयन में वे पारंगत थे। इसीलिए राऊल कास्त्रो के विश्वासपात्र थे।

इसका सुफल यह मिला कि 2018 में वह क्‍यूबा की राज्य समिति के अध्यक्ष नामित हुए और 2019 में क्‍यूबा के राष्ट्रपति। इसी वर्ष नया संविधान बना। खाद्य सामग्री की राशनिंग की। राऊल कास्त्रो ने राष्ट्रपति पद छोड़ दिया। अब वे सिर्फ कम्युनिस्ट पार्टी के फर्स्ट सेक्रेटरी थे। जो वहाँ की राजसत्ता में सर्वोच्च स्थान है। 19 अप्रैल 2021 को उन्होंने इस पद से इस्तीफा दे दिया और मिगेल डायस कानेल को वहाँ की नेशनल असेंबली द्वारा चुने जाने के बाद राष्ट्र की बागडोर सौंप दी। यह करीब-करीब तय था क्योंकि राऊल कास्त्रो ने 2021 में कमान छोड़ने की बात पहले ही बता दी थी।

दुनियाभर ने इसे कास्त्रो परिवार के अंत के रूप में देखा। अब कानेल की भविष्य की क्या नीति होगी इसे उनके कांग्रेस मे दिए गये वक्तव्य के संदर्भ में भी समझा जा सकता है। उन्होंने तीन महत्वपूर्ण बातें कहीं। हम अपने विचारों पर दृढ़ हैं। इतिहास (अतीत) को समझते हैं। भविष्य पर विचार किया है। मतलब विचारों पर दृढ़ हैं तो विचारधारा अपरिवर्तित रहेगी। इतिहास से जो समझा है, सबक लिए हैं भविष्य उनके आलोक में समझा जाएगा और हर स्थिति पर विचार करने के बाद ही आगे बढ़ा जाएगा।

दरअसल कानेल एक अनुशासित व्यक्ति हैं, प्रशासनिक दक्षता रखते हैं, अपने देश के साथ-साथ दुनिया की नब्ज भी समझते हैं। उनमें लचीलापन भी है। विगत दो वर्षों में तमाम उद्योगों और सेवा क्षेत्र में निजी भागीदारी को प्रोत्साहन दिया है। पर्यटन और निर्यात को बढ़ाया है। हाल ही में इंटरनेट को सरकारी जकड़ से मुक्त किया है। दक्षिण अमेरिकी और कैरीबियन पड़ोसी देशों से सम्बन्ध सुदृढ़ किये हैं। लेकिन अगर हम अन्य साम्यवादी देशों में अपने उत्तराधिकारियों का इतिहास देखें तो यह स्पष्ट हो जाता है कि वहाँ बाद के शासक पूंजीवादी उदारीकरण और व्यापार के प्रभाव में फंसते चले गये। एकदलीय शासन बना रहा पर समाजवादी समाज निर्माण का लक्ष्य अधूरा ही रहा।

चीन का उदाहरण सामने है। क्‍यूबा के बाद मैं वियतनाम भी गया। वहाँ भी यह देखा कि व्यापार प्रमुख है। उनके चीन और अमेरिका दोनों से अच्‍छे सम्बन्ध हैं। व्यापारी धनी हैं, जनता खाने कमाने लायक। गरीबी भी कायम है। कानून व्यवस्था बेहतर है। क्‍यूबा के संदर्भ में अभी पक्के तौर पर कुछ कहा नहीं जा सकता। लेकिन कानेल की अब तक की कार्यशैली से यह अनुमान लगाया जा सकता है कि वह कोई भी जरूरी कदम सावधानी और संतुलन के साथ ही उठाएंगे। लेकिन आर्थिक सुधारों को गति अवश्य देंगे। आखिर उत्तरजीविता उर्फ सर्वाईवल का सवाल तो है ही।

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और कठिन है आगे की डगर
देश

और कठिन है आगे की डगर

 

जिस रास्ते पर देश को ले जाया जा रहा था, उसी रास्ते पर उसने कुछ और महत्वपूर्ण कदम उठा लिए हैं। जो खतरा पहले से ही महसूस किया जा रहा था, वह और गहरा हो गया है। जो लोग देश के हालात से चिंतित थे, उनकी चिंताएं सहज ही बढ़ने वाली हैं। सामाजिक स्तर पर जो बँटवारा धीरे-धीरे जमीन पर अपनी धुंधली लकीर बना रहा था, वह अचानक और गहरी होने वाली है। राष्ट्रवाद, परम्परापोषकता, अतीत के प्रति गौरव और सत्ता की व्यक्तिकेंद्रीयता को और ताकत मिलने वाली है। नरेंद्र मोदी और मजबूत हुए हैं, विरोधियों, खास तौर पर कांग्रेस के हाथ में आते-आते एक बार फिर कई राज्यों की सत्ताएं फिसल गयीं हैं। तेलंगाना को छोड़कर मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान भारतीय जनता पार्टी की झोली में चले गए हैं। तेलंगाना में कांग्रेस को विजय मिली है।

ये परिणाम चौंकाने वाले हैं भी और नहीं भी। बुद्धिजीवियों का एक बड़ा तबका यह अनुमान लगा रहा था कि पांच राज्यों के ये चुनाव भाजपा को सबक सिखाने वाले होंगे। यह अगले लोकसभा के चुनाव की भूमिका भी बनेंगे। इसमें कोई दो राय नहीं कि अगर ऐसा होता तो भाजपा के लिए लोकसभा चुनाव में ज्यादा कठिनाई होती। एक मनोवैज्ञानिक झटका लगता, जो पार्टी को भविष्य के प्रति संशयग्रस्त करता और इस संशयग्रस्तता का लाभ विपक्ष को मिल सकता था। लेकिन ऐसा नहीं हुआ। जाहिर है, इस जीत से भाजपा का मनोबल बढ़ेगा और वह अपने एजेंडे पर और ताकत से अमल करने की कोशिश करेगी। बेशक इससे लोकतान्त्रिक आजादी का स्पेस कम होगा, इस आजादी के जायज इस्तेमाल पर और सख्त अंकुश लगेगा। धार्मिक और सांप्रदायिक बंटवारे और तीखे होंगे, उग्र राष्ट्रवाद का मार्ग प्रशस्त होगा, अभिव्यक्ति की सीमाएं और संकुचित होंगी। बुद्धिजीवियों, लेखकों और वाम चिंतकों का अपनी अभिव्यक्ति, रचनात्मकता और समाज के भगवाकरण की चिंता करना अस्वाभाविक नहीं है। आज के समय में भी कम खतरे नहीं हैं। बहुत सारे लोग केवल सत्ता के विरोध और आलोचना की सजा भुगत रहे हैं, एक सीमा रेखा खींची जा चुकी है, जिसके पार खतरे का इलाका है। पूरी निगरानी है और उस दायरे को पार करते ही पूछताछ शुरू हो जाती है। तमाम लोगों ने तो तौबा कर लिया है। छोड़ो यार, मौसम पर लिखो, फूलों, पहाड़ों पर लिखो, शौर्य गान लिखो। कुछ लोग जो अब भी लिख-बोल रहे हैं, उन्हें सोचना पड़ेगा कि वे डटे रहें और हर परिणाम भुगतने को तैयार रहें या चुप्पी साध लें। यही वर्ग है जो चुनाव के बारे में अपने आकलन में सबसे ज्यादा गलती करता है। विरोध और असहमति जायज है लेकिन अपने विरोधी की शक्ति का आकलन घृणा से जन्मे दुराग्रह के साथ संभव नहीं हो सकता। मेरे कई मित्र बार-बार कह रहे थे कि पाँचों राज्यों में भारतीय जनता पार्टी का सफाया हो जायेगा। अब उनके अंत का आरम्भ शुरू हो गया है। यह कहना बहुत आसान है, कभी इस पर एतराज कीजिये तो वे आपको भाजपाई घोषित करने में देर नहीं लगाएंगे। अगर कोई अपने विरोधी, अपने शत्रु की ताकत का गलत अंदाजा लगता है तो उसके मारे जाने की संभावना से कैसे इंकार किया जा सकता है। अब आप कहें कि ईवीएम गड़बड़ है, हेरा-फेरी हुई है, धांधली हुई है तो कोई रोकेगा नहीं लेकिन ऐसा करके आप अपना पक्ष और कमजोर करेंगे, अपने को भ्रम में रखकर भविष्य में और कमजोर होने के अंदेशे को ही सही साबित करेंगे। यह समय है, इस बात के चिंतन का कि वास्तव में कहाँ गड़बबड़ियाँ हुईं हैं, परिस्थितियों को समझने में क्या गलती हुई है। यह अवसर इस चिंतन का भी है कि एक ताकतवर विरोधी को पराजित करना है तो वास्तव में क्या करना चाहिए।

दरअसल मध्य वर्ग का एक बड़ा हिस्सा जैसे नकली जीवन जीता है, वैसे ही वह नकली राष्ट्रभक्ति, नकली हिंदुत्व, नकली अतीत और नकली कौम के सिद्धांत से भी बहुत प्रभावित रहता है। उनकी बड़ी संख्या है। यही लोग हिन्दू राष्ट्र की मांग करते हैं, यही अपने पुरखों के अनावश्यक महिमामंडन और उन्हें जातियों से जोड़कर देखने में भी गर्व का अनुभव करते हैं। यही लोग थाली बजाते हैं और यही भारतीयता को खंडित करते हैं, हिन्दू-मुस्लिम के भेद का झंडा उठाकर विभाजन के नारे लगाते हैं। यही हैं जो हिंसा, उपद्रव में भी शामिल रहते हैं। ऐसा ही एक तबका मुसलमानों में भी है, जो अपने अस्वीकार्य बयानों और कार्रवाइयों से इस बंटवारे को और मजबूत करने का काम करता है। ये दोनों ही भारतीय जनता पार्टी के लिए बहुत मुफीद हैं। यही उनके सच्चे सहयोगी हैं। इस चुनाव से पता चला है कि महिलाओं, युवकों और आदिवासियों के बड़े वर्ग पर भाजपा का प्रभाव कायम है। भाजपा सरकारों ने महिलाओं को प्रभावित करने के लिए कुछ योजनाएं जरूर चलाईं हैं लेकिन यही पर्याप्त कारण नहीं है। बाबरी विध्वंस के बाद आयी युवकों की पीढ़ी पर भाजपा के उग्र राष्ट्रवाद का प्रभाव ज्यादा है। वे अपने मोबाइलों और कम्प्यूटरों में चमकते भारत को आसानी से देख पाते हैं, अँधेरे से भरा हिन्दुस्तान उन्हें बहुत कम नजर आता है। जाहिर है नरेंद्र मोदी उनके लिए श्रेष्ठतम नायक होंगे। इस बार के चुनाव में पहली बार मतदान करने वाले युवक, युवतियों की बड़ी संख्या रही है, इसमें कोई संदेह नहीं है। युवा, महिलाएं और आदिवासी समुदाय बड़ी संख्या में हैं। अल्पसंख्यकों का रुख स्पष्ट रहा है लेकिन ये तीनों वर्ग उसके प्रभाव को कम करने में समर्थ हुए हैं, ऐसा लगता है।

विपक्ष की रणनीति भी सुचिंतित नहीं दिखी। यह मान भी लिया जाए कि इन विधानसभा चुनावों में विपक्ष एक नहीं था तो भी उन्हें अपने अंतर्विरोधों की खुली अभिव्यक्ति से बचना चाहिए था। विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस पर इसका भार सबसे ज्यादा है। सबसे ज्यादा आत्मावलोकन का अवसर इन चुनावों ने कांग्रेस को ही दिया है। राहुल गांधी की यात्रा के बाद एक बार लगा था कि उनमें थोड़ी संजीदगी आयी है लेकिन वह इन चुनावों में दिखाई नहीं पड़ी। न ही उन्होंने जरूरी सक्रियता दिखाई, न ही उनके भाषणों, बयानों में विविधता थी। वे प्रचार के लिए जहाँ भी गए, कुछ खास घिसी-पीटी बातों पर ज्यादा जोर देते रहे। सत्ता दल को घेरने और स्थानीय मुद्दों पर अपने कार्यककर्ताओं को पूरी ताकत से जुटाने में कांग्रेस असफल रही। हार का एक बड़ा कारण सांगठनिक कमजोरी भी रही। बुनियादी स्तर पर कांग्रेस के पास वैसा मजबूत सांगठनिक ढांचा नहीं है जो अपने नेताओं के संदेशों को आखिरी आदमी तक पहुंचा सके, जैसा भाजपा के पास है। दूसरी सहयोगी पार्टियों की मदद इसलिए नहीं मिली क्योंकि वे या तो स्वयं लड़ रहीं थीं या लगभग निष्क्रिय थीं। छत्तीसगढ़ और राजस्थान में सत्ता में रहते हुए भी कांग्रेस या तो अति आत्मविश्वास से ग्रस्त रही या फिर मोदी और भाजपा को अपनी पूरी शक्ति से अपने घर में घेरने में नाकाम रही। एक बड़ी गलती कांग्रेस ने हिंदुत्व की भाजपाई राह की नकल करके भी की। पूजा-पाठ, जनेऊ, प्रवचन, भगवा, मंदिर, मूर्ति में फंसने की जगह उन्हें अपने पुरखों की धर्म-निरपेक्ष और जनोन्मुख राजनीति पर ही भरोसा करना चाहिए था।

भारतीय जनता पार्टी को एक बार और यह कहने का मौका मिल गया है कि मोदी हैं तो मुमकिन है। इसमें कोई दो राय नहीं कि आज की राजनीति में नरेंद्र मोदी एक कुशल, चतुर और छल-बल से भरे अत्यंत प्रभावशाली नेता के रूप में लगभग स्थापित हो चुके हैं। उनका पूजा-पाठ, उनका गंगा में डुबकियां लगाना, उनका झाड़ू उठा लेना, उनका बच्चों, श्रमिकों या महिलाओं से वीडियो काल पर बात करना इस देश के एक बड़े वर्ग को बहुत प्रभावित करता है। भाषण की कला भी उन्हें आती है। कहते हैं कि कुशल वक्ता वही है जो झूठ-सच की परवाह नहीं करता, जो गलत-सही के बारे में सोचे बगैर धारावाह बोलता है, जो श्रोताओं से सम्बन्ध बनाना जानता है, जो उन्हें फुसलाना जनता है। यह सारे गुण नरेंद्र मोदी में हैं। उनके जैसा निर्भय वक्ता विपक्षी दलों में आज के समय में तो कहीं दिखाई नहीं पड़ता। यह कला कभी बदनाम करती है तो कभी काम भी आती है। कहना न होगा कि उन्होंने इन चुनाव में अकेले ही भाजपा को जिताने की जिम्मेदारी संभाली। उन्हें यह भी पता रहा होगा कि अगर भाजपा हार जाती तो उनके प्यारे समर्थक इसकी जिम्मेदारी उन पर नहीं डालते। ठीकरा फोड़ने की कोई न कोई जगह ढूंढ ली जाती।

आगे का समय बहुत कठिन है। जनवरी आने वाली है। राम मंदिर जनता के लिए खोला जाने वाला है। यह सिलसिला यहीं रुकने वाला नहीं है। मथुरा में कॉरिडोर बनने वाला है। कई दशकों से वहां अपनी जीविका चलने वालों के उजड़ने का समय आ रहा है। उनकी आवाजें भी उसी तरह अनसुनी कर दी जाएंगी, जैसे काशी में कर दी गयीं थीं। अयोध्या, काशी और मथुरा की मुक्ति के आश्वासन पर अमल करने का वादा भाजपा बहुत पहले से करती चली आ रही है। इसे और परवान चढ़ाने का अभियान छेड़ा जाएगा। उग्र साम्प्रदायिकता के रास्ते चलकर ही हिन्दू मतों का ध्रुवीकरण संभव है। हिन्दू-मुस्लिम बंटवारे को और गहरा करने का प्रयास किया जायेगा। अतीत के महिमामंडन की प्रक्रिया और तेज होगी। आगामी समय में उत्तराखंड समान नागरिक संहिता की प्रयोग भूमि बनने वाला है। यह देश में समान नागरिक संहिता लागू करने पर हो सकने वाली प्रतिक्रिया के परीक्षण का आधार बनेगा। भाजपा समझ गयी है कि विरोधी जनता के मूल मुद्दों को चुनावी मुद्दा बनाने में विफल रहे हैं। महंगाई, बेरोजगारी, भ्रष्टाचार कहाँ मुद्दा बन सका ? ऐसे में लोकसभा के चुनाव में वह धार्मिक, सांप्रदायिक और जातीय मुद्दों को हवा देने का प्रबल अभियान छेड़ सकती है। हिंसा और अराजकता से कोई परहेज नहीं होगा। अभिव्यक्ति की आजादी पर अंकुश और कसेगा। ज्ञान के केंद्रों, न्याय प्रणालियों और चुनाव तंत्र पर प्रभाव और दबाव बढ़ाने की पुरजोर कोशिश की जाएगी। जिन वर्गों ने इस बार भाजपा को मत दिया है, उन्हें अपने पक्ष में और संगठित करने और अन्य मत-वर्गों को लुभाने के नए तरीके खोजने के प्रयास भी भाजपा करेगी। यह कहना भी ठीक नहीं होगा कि भारतीय जनता पार्टी ने अपनी साख बनाने के लिए कोई काम नहीं किया है। यह ठीक है कि महंगाई, बेरोजगारी तेजी से बढ़ी है, गरीबों पर खुलकर इसकी मार पड़ी है, शिक्षा के क्षेत्र में अराजकता का आलम पैदा हुआ है, स्वास्थ्य सुविधाओं का कोई विस्तार नहीं हुआ है लेकिन डाइरेक्ट ट्रांसफर से बड़ी संख्या में लोगों को कई तरह के लाभ मिले हैं, देश में अच्छी सड़कों का जाल बिछा है, लोगों को घर मिले हैं। इस प्रक्रिया को और तेज करने का भाजपा का विचार और दृढ़ होगा। राजस्थान, मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ में पराजय से विपक्ष को सबक लेना चाहिए। विजयी पार्टी का मत प्रतिशत चाहे जो हो, वह कहीं भी 40 प्रतिशत से ज्यादा नहीं है। स्पष्ट है कि 60 प्रतिशत लोग या तो निष्क्रिय हैं, नाराज हैं या विरोधियों के साथ हैं। यह सारा वोट एक साथ, एक जगह कभी नहीं जाता। विपक्ष को अगले चुनाव में अखंड एकजुटता का परिचय देना होगा। सारे अंतर्विरोधों को भुलाकर एकमेव संयुक्त दल की तरह एकजुट होना होगा। कांग्रेस पर सबसे ज्यादा जिम्मेदारी होगी। बड़ी पार्टी के नाते उसे हो सकता है, ज्यादा खोना पड़े, ज्यादा त्याग करना पड़े लेकिन इसके लिए उसे तैयार रहना पड़ेगा

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यस सर
सिनेमा

जातीय वर्चस्व से पद-प्रतिष्ठा की ओर ‘यस सर’

 

‘जात न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान’  के भाव को पुष्ट करने वाली लघु फ़िल्म ‘यस सर’ भारतीय समाज की बदलती मानसिकता को सामने रखती है, सामाजिक विसंगतियों व विडम्बनाओं को हास्य-व्यंग्य में पिरोना आसान नहीं। व्यक्ति की विद्वता, ज्ञान, पद-प्रतिष्ठा जात-पात के बंधनों से मुक्त होनी चाहिए जैसे गंभीर मुद्दे को हास्यरस में प्रस्तुत करना इस फिल्म की विशेषता है। फ़िल्म बाबासाहब अम्बेडकर के कथन को प्रमाणित करती है कि भारत में जाति व्यवस्था एक ऐसी जड़ मानसिकता है जिसे शिक्षित हुए बिना आसानी से उखाड़ा नहीं जा सकता, आज इस तुच्छ मानसिकता की जड़ें कमज़ोर हो रहीं हैं। पहले सरकारी दफ्तरों में गाँधी-नेहरु की तस्वीरें हुआ करती थी वहीं आज बाबासाहब की तस्वीर होना संकेत करता है कि संविधान ने देश और समाज की मानसिकता को बदलने का काम किया है। फ़िल्म मुख्यत: यह संदेश देती है,‘पद-प्रतिष्ठा’ किसी जाति-वर्ण की मोहताज़ नहीं तो दूसरे ‘दलित-चेतना’ सिर्फ दलितों में ही नहीं बल्कि सवर्ण जातियों में भी जाग्रत होनी चाहिए तभी संतुलित और समावेशी समाज तैयार हो पायेगा।

फ़िल्म अजय नावरिया की कहानी ‘यस सर’ पर आधारित है उनकी कहानियों में ‘दलित मुद्दे’ सिर्फ आक्रोश या विद्रोह अथवा सहानुभूति के रूप में नहीं चित्रित किये जाते बल्कि भारतीय समाज की बदलती मानसिकता को वे बहुत सहज ढंग से सामने लाते। ‘यस सर’ भी सिर्फ़ ‘दलित-चेतना’ को रेखांकित नहीं करती बल्कि सरकारी दफ्तर के सवर्ण चपरासी रामनारायण तिवारी के माध्यम से दलितों के प्रति बदलती मानसिकता को चित्रित करती है। बॉस नरोत्तमदास और राम नारयण तिवारी दोनों के नाम भी भारतीय समाज की सदियों पुरानी धार्मिक,सामाजिक संकल्पना को उभारने का काम करतें है। नरों में उत्तम ‘नरोत्तमदास-सरोज’ है जबकि दूसरा अवतारों में विश्वास करने वाला।

कहानी एक सरकारी दफ़्तर के इर्दगिर्द घूम रही है जहाँ सवर्ण ‘तिवारी’ चपरासी है, जब उसका बॉस उसकी ही जाति का सवर्ण था तो उसे कभी अपने चपरासी होने में छोटेपन का एहसास नहीं हुआ लेकिन अब एक दलित उसका बॉस है तो उसके अधीन काम करने की विवशता में उसका मन, सदियों का दबा अहंकार, वर्चस्व उसे चुनौती देता है क्योंकि वह तो मनु-व्यवस्था में सबसे ऊपर यानी श्रेष्ठ है तिस पर बाथरूम की नाली चोक हो गई है, दफ़्तर का सफाईकर्मी लापता है। तिवारी उसे ढूँढने की हर संभव कोशिश करता है लेकिन नाकाम रहता है। इन्हीं के बीच जब नरोत्तमदास उसे वर्षों से लंबित पदोन्नति का पत्र देता है तो सदियों पुराने उसके संस्कार या पूर्वाग्रह ध्वस्त होते जातें है और वह सायास ही उस चोक नाली को साफ़ करने का उपक्रम आरम्भ कर देता है, ‘अपने घर में भी तो करते है’  कथन स्पष्ट: दलित बॉस के प्रति उसकी बदलती मानसिकता को दर्शाता है। अवरुद्ध करने वाले ही जब मार्ग खोलने का उपक्रम करेंगे तभी समाज प्रगति करेगा, जिन मार्गों को जिसने जाम किया हुआ है,खोलना भी उन्हीं को होगा। कहानी सामाजिक संतुलन का बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करती है लेकिन संतुलन के लिए अब सवर्ण को ही (एडजस्टमेंट) आगे आना होगा दलित विमर्श का यह नया मौलिक पक्ष है। अजय नावरिया की ‘संक्रमण’ कहानी में भी सवर्ण श्वेता की ही मानसिकता बदलते दिखाया गया है। मिलिंद जिसके लेखन की वह बड़ी प्रशंसक थी, पद- प्रतिष्ठा में उच्च होने पर भी उसके लिए अछूत मात्र रह जाता है पर अंतत:हमारे सबकान्शियस माइंड को भी शायद ट्रेंड कर दिया गया हैकहने वाली श्वेता मिलिंद की आत्मकथा पढ़ने के बाद अपने व्यवहार पर शर्मिंदा होती है। मात्र शिक्षा या संवैधानिक प्रावधानों से वर्चस्ववादी समुदाय की मानसिकता को नहीं बदला जा सकता, वर्ण-व्यवस्था की जड़, पुरानी मान्यताओं, पूर्वाग्रहों से अन-अभ्यस्त ‘unlearn’ होना होगा, सवर्ण को ही स्टैंड लेना होगा। कहानी में ‘पानी व्यर्थ बहते रहना और नाली में पानी चोक होना’ प्रतीकात्मक है, पानी मनुष्य के अस्तित्व मान-सम्मान, पद-प्रतिष्ठा से गहरे स्तर तक हुआ है, पद-प्रतिष्ठा को वर्चस्ववादी समुदाय अपने पास कब तक रोक कर रख सकता है ? जड़ मानसिकता व सड़ी गली मान्यताएँ पानी की तरह रुकी रहेंगी तो समाज सड़ने लगेगा अत: बहाव जरूरी है,गिलास का प्रदूषित जल फेंकना होगा तभी स्वच्छ जल भरने का लाभ मिलेगा।

मैं सिनेमा को ‘साहित्य के विस्तार (एक्सटेंशन)’ के रूप में समझती हूँ, जहाँ अभिव्यक्ति का आधार वस्तुतः पटकथा और संवाद लेखन से आरम्भ होकर, उनके दृश्यांकन हेतु कैमरा फिर अभिनय, संवाद,गीत-संगीत, सेट,वेशभूषा औजार की तरह काम करते हैं। शोर्ट मूवी ‘यस बॉस’ भारतीय समाज की बदलती मानसिकता को अपडेट करने की सशक्त तस्वीर चित्रित करती है जो वर्ण व्यवस्था की जड़ो को कुरेदती हैं,संवेदनाओं को झकझोरती और आंदोलित करती हैं और कहीं कोई  एकपक्षीय या नकारात्मक प्रभाव नहीं आने देती। निर्देशक मुदित सिंघल बधाई के पात्र हैं कि फ़िल्म का पहला ही दृश्य अजय नावरिया की कहानी की मूल आत्मा कि सवर्ण को अब मद की निद्रा से जागना होगा, को आत्मसात करते हुए आरम्भ होता है। तिवारी और नरोत्तमदास की कई भाव-भंगिमाएं और चेष्टाएँ सदियों के बदलाव को एक साथ दर्शाते हैं। गाँव वालों का जयकारा तिवारी जी की जय’ वर्चस्ववादी जाति विशेष की ‘जय’ का प्रतीक है जिनमें समय के साथ होने वाला बदलाव दिखावटी है,कथनी करनी का अंतर जैसे ‘एक बीज से सब जग उपजा’ कहकर तिवारी प्रशंसा बटोर लेता है लेकिन हाथों को ऊँचा करके लड्डू लगभग फेंकता है ताकि हाथ उसे छू न जाए, फिर नरोत्तम का गिड़गिड़ाते हुए कहना ‘पाय लागू तिवारीजी’ पर अगले ही पल; अब पैरों गिड़गिड़ाने का ज़माना गया, ‘तिवारी बाबू पाय लागू’ कहते-कहते नरोत्तम का आँखों पर चश्मा लगाना और आदेशात्मक आवाज़ में कहना ‘तिवारी पानी देख’ , तिवारी का स्वप्न भंग कमरे से बाहर बैठा तिवारी , उसका झटके से उठना, सफारी सूट ठीक करते हुए कहना यस सर! लेखक या लेखन को वर्गों मैं विभाजित करना उचित नहीं मानती लेकिन तथाकथित दलित लेखक के माध्यम से सवर्ण मानसिकता को बदलते हुए दिखाने वाली ‘यस सर’ संभवत: यह पहली कहानी है। सपने के एक दृश्य में सबसे पहले पैरों पर कैमरा आता है जहाँ दबा-कुचला समाज हमेशा गिड़गिड़ाता आया है, अफ़सोस तिवारी बाबू की नींद खुल जाती है अर्थात् उच्च जातियों के जयकारा वाले दिन अब सपने-से हो गये हैं। चश्मा बाबा साहब की वैचारिक चेतना का प्रतीक है और अभिव्यक्ति में बदलते सुर शिक्षा का परिचायक इनसे ही घबराकर तिवारी’ का स्वप्न भंग हो जाता है। अब न जागे तो जैसा कि मिश्रा बाबू ने कहा था कि “तो छोड़ दो नौकरी और गाँव में जाकर भीख माँगों”। पहले तो लहज़े में यह बदलाव समझ नहीं आता लेकिन फिल्म के आगे बढ़ने के साथ-साथ इस बदलाव के अंतर को न केवल समझ पाते हैं, कनेक्ट कर पाते हैं बल्कि एक निश्चल हँसी हमारे चेहरे पर आ जाती है। सफारी सूट, रंगे बाल, घनी मूँछ पैरों में सैंडल ‘तिवारी’ का किरदार निभाने वाले मुकेश एस.भट्ट का अभिनय शानदार है सवर्ण की कसक को वे बड़ी मासूमियत से निभाते हैं, किरदार पर हँसी के साथ-साथ सहानुभूति कथ्य को सफल बनती है। इसी तरह पूरी फिल्म में सिर्फ़ पहले दृश्य की भीड़ में एकमात्र महिला का होना भी ध्यानाकर्षित करता है कि आज भी समाज में महिलाओं का अस्तित्व एक प्रतिशत है न कि पूरी आधी आबादी का अस्तित्व !

कहानी और फ़िल्म दोनों ही “रहिमन पानी राखिये बिन पानी सब सून” के भाव को अनोखे ढंग से सामने रखती है। पानी अर्थात् जल,चमक,इज्ज़त, मान-मर्यादा प्रतिष्ठा। नरोत्तम अपने घर से आर. ओ. का पानी लाता है, ब्लैक कॉफ़ी माँगने पर तिवारी बड़बड़ाता है पानी भी घर से लाता है जैसे यहाँ के पानी में तो जहर हैयहाँ मामला सिर्फ शुद्ध पानी का तो है ही इसे “अपनी इज्ज़त अपने हाथ” की तरह भी समझना चाहिए। तिवारी गुस्से में उसकी कॉफ़ी में फूँक मारते हुए उसमें थूक फेंक देता है जो सवर्णों में सदियों की घृणा और नफ़रत को दर्शाता है, जो इन्हें पानी (इज्ज़त) देना चाहते। हालाँकि मूल कहानी में पाप पुण्य के भय से तिवारी सिर्फ सोच कर रह जाता है, कहानी में अजय नावरिया लिखते हैं हुक्म में कोई तल्खी नहीं थी पर तिवारी बुरी तरह आहत हो गयाउसके पूर्वाग्रह उसे आहत होने को विवश कर रहें हैं नरोत्तम का कहा बेवकूफ शूल की तरह गड़ गया था। प्रेमचंद की कहानी ‘ठाकुर का कुआँ’ जिसमें स्वच्छ पानी जैसी मूलभूत आवश्यकता के लिए दलित तरस रहा है जबकि पानी तो हवा की तरह प्रकृति में सहज उपलब्ध है लेकिन इस पर सवर्ण ‘ठाकुर’ का पहरा है।यही मूल भाव ओम प्रकाश वाल्मीकि की कविता ‘ठाकुर का कुआँ’ में है जिसमें मान-मर्यादा प्रतिष्ठा का प्रतीक कुआँ और पानी के साथ-साथ चूल्हा, मिट्टी, तालाब, खेत-खलिहान मुहल्ले, बैल, हल, सब वर्चस्ववादी जातियों के(ठाकुर) पास है। चोक नाली समाज को अवरुद्ध करने वाली बेड़ियों का प्रतीक है। ‘तिवारी’  ‘ठाकुर का कुआँ’ की तरह वर्चस्ववादी वर्ण व्यवस्था का प्रतीक है, विशेषाधिकारों के दंभ को आज ‘तिवारी’ त्याग रहा है जिसे अंग्रेजी में ‘अनलर्न’ कहा जाता है। विशेषाधिकारों के मद में डूबे ‘तिवारी’ जैसे सवर्ण झुंझलाकर ही सही अब धीरे-धीरे जाग रहे हैं।

पात्रों के संबोधन भी दिलचस्प है जो बेहतरीन ढंग से कथ्य को उभारतें हैं जैसे पंडित को ओये पण्डिते   या सिख को सरदार कहना यह किसी को बुरा नहीं लगता लेकिन तथाकथित छोटी जातियों के नाम गाली की तरह प्रयोग किये जाते हैं इसलिए जातिसूचक शब्दों से पुकारना दंडनीय अपराध भी है। फिल्म में   लायकराम, दुर्गादास तथा नरोत्तमदास सरोज की नेमप्लेट में नाम है, सरनेम नहीं जबकि द्विवेदी, मिश्रा, चोपड़ा और तिवारी उन्हें सिर्फ सरनेम से पुकारा जा रहा है, क्योंकि सरनेम जाति की पहचान का महत्वपूर्ण बिंदु है जिसे जानने के बाद यारी-दोस्ती, शादी-ब्याह और प्रेम भी आगे बढ़ते-पनपते हैं। नामों के समाजशास्त्र पर महादेवी ‘घीसा’ में खूब लिखतीं हैं कि कैसे छोटी माने जाने वाली जातियों में अर्थहीन नाम बस यूँ की रख दिए जाते थे। दुर्गादास भी इसी दफ़्तर में काम करता है जो सरकारी नौकरी के साथ ही सूअर पालन का काम करता है। ‘सूअर’ के लिए दुर्गादास कहता है यह तो हमारी लक्ष्मी है जैसे लोग भेड़, बकरी पालतें हैं ऐसे हम सूअर पालतें हैं, धंधा क्या गन्दा! क्या छोटा! हाँ पैसा ज़रूर छोटा बड़ा होता है अब चोपड़ा साहबभी तो यही धंधा करतें हैं’  चोपड़ा साब जो उसके रिश्तेदार के बिजनेस पार्टनर है यानी सवर्ण गैर-सवर्ण के साथ मिल कर काम धंधे कर रहें है, पैमाने का फर्क है बस!   बड़े पैमाने पर करने वाले बड़े लोग, जैसे बाटा जूता बनाता है तो उसकी इज्ज़त है। कहानी बताती है कि इसी पैमाने से अब सरकारी पदों पर बैठे लोगों को देखा जाना चाहिए जो जिस पद पर बैठा है उसे उसी हिसाब से प्रतिष्ठा मिलेगी कर्म आधारित न कि जाति आधारित। इसमें बाज़ार का महात्म्य भी है जहाँ कोई भेदभाव नहीं बॉस नरोत्तमदास उदाहरण देकर समझाता है कि हेमामालिनी का विज्ञापन नहीं देखा? आप  वह विज्ञापन देखें जिसमें वे कहती है ‘जो सबको शुद्ध पानी दे’ यानी बाजार भेदभाव नहीं करता।  

फ़िल्म में सबसे महत्वपूर्ण दृश्य तिवारी का लंबित ‘प्रमोशन लेटर’ है नरोत्तम के मन में ‘तिवारी’ की जाति को लेकर कोई पूर्वाग्रह, दुराग्रह अथवा बदले या विद्रोह की भावना नहीं, नरोत्तमदास एक संयमित स्वभाव का व्यक्ति है, नरों में उत्तम है, उसकी कुर्सी के ठीक पीछे बाबा साहब की फोटो पर लगा चश्में का-सा फ्रेम नरोत्तम ने भी पहना है जो संविधान निर्माता के जीवन दर्शन को अपने जीवन में उतारने का संकेत है, पीछे लगी ट्रोफ़ी बता रही है कि वह प्रतिभावान है, बी.ए. में कम डिवीज़न होने पर एम.बी.ए. की डिग्री लेना उसके अथक मेहनत का प्रयास थी। लैटर देने पर तिवारी उसकी तुलना रामजी से करता है,पीछे नाटकीय अंदाज़ में मंदिर की घंटिया बजने लगती हैं ‘आप जुग जुग जियो आपकी पद प्रतिष्ठा बढ़े…सर एकदम भगवान राम जैसे दिखते आप’  पृष्ठभूमि में सितार बज रहा है, तिवारी के संस्कार ही है कि अपना उद्धार करने वाले को वह भगवान मान लेता है पर इसे हम ‘रामराज्य’ संकल्पना से नहीं जोड़ पाते, जहाँ सभी बराबर हैं न ही इसे हमें गाँधी के’ हृदय परिवर्तन’ से जोड़ सकतें हैं बल्कि इस मानसिक बदलाव को ‘परिस्थितिजन्य अनुकूलन’  के रूप में देखना चाहिए खुद को बदलो अन्यथा लुप्त हो जाओगे तभी तिवारी को नाली साफ़ करने में संकोच नहीं हो रहा। अंतिम संवाद भी महत्त्वपूर्ण है दो तीन बार डंडा डालूँगा, हो जाएगा… पानी उतर रहा है…हाँ धीरे धीरे उतर रहा हैसर …’ यानी झूठी मान मर्यादा का गन्दा पानी अब उतर रहा है, धीरे धीरे ही सही! जैसे कहावत भी है- ‘उसका पानी उतर गया’ झूठी मान-मर्यादा का पानी अब उतर रहा है। हाल ही में एक नेता ने ‘ठाकुर का कुआँ’ कविता पढ़ने पर स्पष्टीकरण दिया कि यह समझना मुश्किल नहीं है कि ‘ठाकुर’ का इस्तेमाल ‘उच्च जाति के वर्चस्व के रूपक में किया गया है “मेरे कहने का मतलब यह था कि जब तक ‘हम’ इस प्रवृति से उबर नहीं जाते,तब तक हम निम्न वर्ग के कल्याण के बारे में नहीं सोच सकते” इसी तथ्य को कहानी (2012) और फिल्म अपने अंदाज़ में कहती है। यहाँ साहित्य (और सिनेमा भी) राजनीति के आगे चलने वाली मशाल (प्रेमचंद) के रूप में ‘यस सर’ कहानी बेहतरीन उदाहरण प्रस्तुत करती है।

निर्देशन के साथ ही कलाकारों के संवाद और अभिनय भी लाजवाब है, पूरी टीम बधाई की पात्र है। मुकेश एस.भट्ट, सोनू आनंद, विनीत आहूजा, हिमांशु रावत,विकास सोमानी सभी ने किरदार को ही जीवंत ही नहीं किया बल्कि सामाजिक स्थिति और होने वाले मानसिक बदलाव को भी ख़ूबसूरती से रूपांतरित किया है। अजय नावरिया के संवाद अत्यंत सरल शैली में लिखे और बोले गए है अबे सरदार.. आजा भई पण्डित…वो स्वीपर क्या नाम है उसका …लायक राम….  क्या कलयुग आ गया ब्राह्मणों को नीचों के झूठे बर्तन धोने पड़ रहें हैं… तो नौकरी छोड़ दो डॉक्टर ने कहा है यहां काम करने को यहाँ काम करों… जहाँ आप जैसे विद्वान, गुणवान ,ब्राह्मण का बैठना ‘तय हो’ वहाँ नीच जात का आकर हम पर हुकुम चलाएगा, खराब नहीं लगेगा… ‘क्या  दुर्गादास अच्छी भली नौकरी है क्या ज़रूरत सूअर वुअर पालने की  लात मार ऐसे धंधे को’? रजत तिवारी का गीत संगीत भी कथा के अनुकूल है कबीर के दोहे ने कथ्य को मार्मिकता प्रदान की है।–

‘जात पात सब मैल है मन का, मन से मैल हटा दो,

जन्म धर्म और करम में भैया करम को मान बड़ा दो,

एक पिता है एक चिता है एक ही है इंसान 

मोल करो तलवार का  पड़ा रहन दो म्यान  

जात न पूछो साधू की पूछ लीजिये ज्ञान 

के गीत में संदेश के साथ फिल्म का अंत होता है  

इन खूबियों के साथ यह बताना अनिवार्य हो जाता है ‘यस सर’ फिल्म फिलहाल देश विदेश में फिल्म फेस्टिवलों की शान बनी खूब तारीफें बटोर रही है। फिल्म सिएटल में आयोजित तस्वीर एशियन फेस्टिवल में स्क्रीनिंग के लिए चुनी गई सर्वश्रेष्ठ एशियाई फिल्मों में एक है तो साथ ही गोवा शोर्ट फिल्म फेस्टिवल 2023, DC साउथ एशिया फिल्म फेस्टिवल 2023, लिफ्ट ऑफ ग्लोबल नेटवर्क 2023, अयोध्या फिल्म फेस्टिवल 2023, येल्लोस्टोन इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल 2023,  जयपुर फिल्म फेस्टिवल 2024, दादा साहब फ़ाल्के इंटरनेशनल फिल्म फ़ेस्टिवल 2024, 29TH कोलकता इंटरनेशनल फिल्म फ़ेस्टिवल, में फ़िल्म का ऑफिसियल सिलेक्शन हुआ है। फिल्म आम दर्शकों के लिए कब तक उपलब्ध होगी नहीं मालूम लेकिन अजय नावरिया की कहानी ‘यस बॉस’ सहज उपलब्ध है आपको अवश्य पढ़नी चाहिये

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देश

चुनाव सरकार नहीं, देश को गढ़ने का होना चाहिए

 

अमन नम्र

 मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, तेलंगाना और मिजोरम जैसे पाँच राज्यों में चुनाव प्रचार जोरों पर है। सत्ता, विपक्ष और सत्ता में आने को लालायित नाना प्रकार की पार्टियाँ अपने लोकलुभावन वादों से जनता को बहलाने में जुटी हैं। जनता को विकल्प भी इन्हीं में से चुनना है। जल्द ही नयी सरकारें चुनी जाएँगी जो अगले पाँच सालों तक इनके विकास की बागडोर थामेंगी। इसके तीन-चार महीने बाद लोकसभा चुनाव होंगे और देश की सरकार बनेगी जो भविष्य की दशा और दिशा तय करेगी। पर सवाल यह है कि क्या यह दशा और दिशा बीते सात दशकों से जारी विकास की मौजूदा अवधारणा से अलग या बेहतर होगी? विषय थोड़ा गम्भीर है, पर मौजूं है और हमारे, आपके ही नहीं आने वाली पीढ़ियों के लिए भी बेहद महत्त्वपूर्ण है, इसलिए इस पर विचार करना जरूरी है। 

 पहले हाल की दो खबरों की सुर्खियाँ पढ़िए। पहली, प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने कहा कि अगले पाँच साल तक देश के 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त राशन की योजना जारी रहेगी और दूसरी, दिल्ली दुनिया का सबसे प्रदूषित शहर बन गया है। अगर पहली सुर्खी की बात करें तो यह तथ्य हमें चुल्लू भर पानी में डूबने पर मजबूर कर देगा कि 76 साल पहले जब देश को आजादी मिली थी, उस समय की आबादी (34 करोड़) की तुलना में आज मुफ्त राशन पाने वाले गरीबों की संख्या दोगुना से ज्यादा है। यह तमाम ‘पंचवर्षीय,’ ‘7 वर्षीय,’ ‘योजना आयोग,’ ‘नीति आयोग’ या काँग्रेस, भाजपा, जनता पार्टी या यूपीए, एनडीए शासित सरकारों के विकास का नतीजा है।

इसी विकास का एक नतीजा दूसरी सुर्खी भी है कि हमारे देश की राजधानी दुनिया के सबसे प्रदूषित शहरों में टॉप पर है। क्या ऐसा नहीं लग रहा कि हम विकास के नाम पर 76 साल पहले जिस गलत दिशा में मुड़ गये थे, उसी दिशा में अब इतने आगे पहुँच चुके हैं कि विनाश को ही अब हमने विकास समझ लिया है। 

 इस बात को हम तीन तरह से देख, समझ सकते हैं। आजादी से पहले और आजादी की लड़ाई के दौरान भविष्य के किस भारत की कल्पना की गयी थी, मजबूरी में हमने किस तरह का भारत बनाना शुरू किया और जो भारत आज बना उसका भविष्य क्या है। यह कम-से-कम उस भारत की दिशा में जा रहा देश तो कतई नहीं है जिसकी कल्पना और सोच महात्मा गाँधी ने की थी। ‘हिंद स्वराज’ का सपना देखने वाले गाँधी कहते थे कि हमारी पहली प्राथमिकता विदेशी राज्य को हटाना है और ‘हिंद स्वराज’ के लिए अभी जनता तैयार नहीं हो पायी है इसलिए सारी ताकत ‘संसदीय स्वराज’ दिलाने में लगा देनी है। हमारे हुक्मरानों ने ‘संसदीय स्वराज’ वाले गाँधी को तो याद रखा, पर यह भूल गये कि यह केवल तात्कालिक व्यवस्था थी। गाँधी का असली सपना ‘संसदीय स्वराज’ नहीं, ‘हिंद स्वराज’ का था। आज हम गाँवों को खत्म कर शहरों के दायरे बढ़ाते जा रहे हैं, पर गाँधी इसके पूरी तरह खिलाफ थे। शहरों के बढ़ते प्रभुत्व के खिलाफ आवाज उठाने वाले गाँधी ने गाँवों के संरक्षण की बात कही थी।

 यहाँ यह सवाल पूछा जा सकता है कि अब गाँधी कितने प्रासंगिक हैं? जवाब है कि अगर गाँधी और उनके विचार प्रासंगिक नहीं हैं तो सरकार आधिकारिक तौर पर उन्हें हटा क्यों नहीं देती। दरअसल गाँधी कभी किसी व्यक्ति का नाम नहीं रहा। वह तो आजादी के लिए देश के कोने-कोने में घूमकर लोगों को जागृत करने वाली ऐसी विचारधारा थी जो उस वक्त मिट्‌टी में ही घुलमिल गयी थी और आज भी देश की मिट्टी, हवा, पानी और इसकी आत्मा का अहम हिस्सा है। कम-से-कम आज सात दशक बाद हम थोड़ा सा ठहर कर यह विचार तो कर ही सकते हैं कि अगर देश बनाने का गाँधी का ग्रामीण अर्थव्यवस्था का विचार सही नहीं था तो क्या बड़े बांध और बड़े उद्योगों को ‘आधुनिक भारत के मन्दिर’ कहने वाले नेहरू का मॉडल सही था?

 इसे जानने का सबसे आसान तरीका यह है कि हम देखें कि आजादी के समय किस तरह के भारत को बनाने के विकल्प पर विचार किया गया था। गाँधी की सोच थी कि भविष्य के समाज का धारण और पोषण यानी समाज का विकास धर्म, बन्धुत्व और परिवार भावना से होना चाहिए, नहीं तो देश चलाने के लिए ‘शैतानी ताकतों’ का सहारा लेना पड़ेगा। उसमें जबरदस्ती होगी, आतंक होगा और उसके समर्थन के लिए आपको राज्य, लोकतन्त्र, चुनाव, समाजवाद जैसी कोई-न-कोई प्रतिमा खड़ी करनी होगी।

 गाँधी ने करीब सौ साल पहले ही आज की हालत की कल्पना कर ली थी। तब उन्होंने समाज गढ़ने के दो विकल्प सुझाये थे, एक – सभ्य समाज, जो स्वतन्त्र व्यक्तियों का बना हुआ हो और जिसके धारण, पोषण के लिए कानून, व्यवस्था, राजतन्त्र का ढाँचा, संविधान आदि हो जिसका दिन-प्रतिदिन विस्तार होता जाए। दूसरा -पारिवारिक समाज, जिसका धारण पोषण पारिवारिक भावना से हो। उसमें संविधान आदि औपचारिक ढाँचे की जरूरत दिन-प्रतिदिन कम होती जाए। 

 आजादी की लड़ाई और आजादी के बाद के शुरुआती वर्षों के दौरान जवाहरलाल नेहरू और महात्मा गाँधी के पास भारत के विकास और आर्थिक मॉडल के बारे में अलग-अलग दृष्टिकोण थे। ये मतभेद उनके विशिष्ट वैचारिक और दार्शनिक दृष्टिकोण में निहित थे। नेहरू ने पारिवारिक समाज के बजाय गाँधी के पहले मॉडल को चुना, जिसके लिए कानून, राज्य, चुनाव जैसी व्यवस्था और तन्त्र खड़ा किया गया। पंडित नेहरू विकास के लिए अधिक औद्योगिकीकृत और आधुनिक दृष्टिकोण में विश्वास करते थे। उन्होंने आर्थिक विकास को आगे बढ़ाने के लिए भारी औद्योगीकरण, वैज्ञानिक अनुसंधान और तकनीकी प्रगति पर जोर दिया। उनका दृष्टिकोण भारत का तेजी से औद्योगीकरण करने और एक मजबूत, केंद्रीकृत और आधुनिक राष्ट्र बनाने की इच्छा से प्रभावित था।

 दूसरी ओर, गाँधी ने विकास के लिए विकेंद्रीकृत, ग्रामीण-केंद्रित दृष्टिकोण की वकालत की थी। गाँधीजी का दृष्टिकोण स्वराज या जमीनी स्तर पर स्व-शासन के विचार में निहित था, जहाँ गाँव आत्मनिर्भर और स्वशासित होंगे। नेहरू का विकास मॉडल पूँजी-प्रधान था, जिसमें बड़े पैमाने पर औद्योगिक परियोजनाओं, भारी मशीनरी और बुनियादी ढाँचे में निवेश पर जोर दिया गया था। वहीं, गाँधीजी का मॉडल श्रम प्रधान था, जिसमें छोटे पैमाने पर उत्पादन और कृषि गतिविधियों में मानव श्रम के उपयोग पर जोर दिया गया था। वह गरीबी को कम करने और आत्मनिर्भरता को बढ़ावा देने के लिए, विशेषकर ग्रामीण क्षेत्रों में जनता को रोजगार के अवसर प्रदान करने में विश्वास करते थे।

 आज सात दशक बाद हम इस पर पुनर्विचार तो कर ही सकते हैं कि आखिर नेहरू के आर्थिक विकास का मॉडल कितना सफल रहा। अगर आर्थिक और ढाँचागत विकास के तौर पर देखें तो निश्चित ही देश ने अभूतपूर्व प्रगति हासिल की है। देश की जीडीपी 3 लाख करोड़ से बढ़कर 275 लाख करोड़ के पार पहुँच चुकी है। 1950-51 में आम आदमी की औसत कमाई 274 रुपए सालाना थी, यह अब बढ़कर करीब डेढ़ लाख रुपए सालाना पर पहुँच चुकी है। शिक्षा, तकनीक, स्वास्थ्य आदि के क्षेत्रों में हमने काफी तरक्की की है। हम चांद पर पहुँच चुके हैं, खुद को विश्वगुरु बताते हैं और अब विकास के कुछ नए प्रतिमान गढ़ने के लिए भी तैयारी जारी है। 

 यहाँ कुछ देर ठहरकर अगर हम दो-चार बुनियादी सवालों के जवाब खोजें तो शायद आगे के सफर की दिशा तय करने में आसानी होगी। यह पूछें कि क्या आज देश में गरीबी खत्म हो चुकी है। अगर औद्योगिकीकरण और शहरीकरण का नेहरू का आइडिया सही था तो सात दशक में हर व्यक्ति को सम्पन्न नहीं, तो कम-से-कम गरीबी की जिल्लत से तो बाहर आ ही जाना था। प्रधानमन्त्री का यह कहना कि अगले पाँच साल तक 80 करोड़ गरीबों को मुफ्त का राशन दिया जाएगा, हमारी विकास की मौजूदा अवधारणा को धराशायी कर देता है।

 आज सत्ता और विपक्ष दोनों को ही सत्ता की राजनीति से ऊपर उठकर देश के बारे में सोचना चाहिए। अगर गाँधी नहीं चाहिए तो कोई बात नहीं, लेकिन यह भी देखना होगा कि उससे बेहतर हम क्या कर सकते हैं। आज अगर हम देश के हर गरीब को मुफ्त राशन के बजाय आत्मसम्मान से जीने लायक माहौल बना पाएँ, महिलाओं को हर महीने मुफ्त की राशि देने के बजाय उनकी मेहनत को सम्मान दे पाएँ, बच्चों को अच्छी और सच्ची शिक्षा दे पाएँ, हर व्यक्ति को स्वच्छ पानी, साफ हवा और पौष्टिक भोजन मुहैया करा पाएँ तो शायद देश के विकास में इससे ज्यादा धार्मिक और सांस्कृतिक योगदान और कोई नहीं होगा। इतिहास ने हमें एक और मौका दिया है कि हम भूतकाल में की गयी अपनी गलतियों से सीखें, वर्तमान को सुधारें और भविष्य को गढ़ने में जुट जाएँ

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छत्तीसगढ़

‘हाथ’ में खिल सकता है ‘कमल’

 

 रमेश कुमार ‘रिपु’

    छत्तीसगढ़ में छह माह पहले काँग्रेस फील गुड महसूस कर रही थी। उसकी वजह यह है, कि उसे सर्वे में 50-55 सीट मिल रही थी। लेकिन अब वैसी स्थिति नहीं है। राज्य में लगातार भूपेश सरकार के खिलाफ ई.डी.की कार्रवाई को भाजपा ने भुनाने की पूरी कोशिश की। उसने यह प्रचारित किया कि भूपेश सरकार भ्रष्ट है। कोयला घोटाला, शराब घोटाला, आवास घोटाला, गोठान घोटाला और पीडीएस घोटाला,से भूपेश सरकार की छवि खराब हुई है। राज्य में धार्मिक दंगा और धर्म परिवर्तन की घटनाओं से भी भूपेश सरकार की छवि मलीन हुई। बावजूद इसके मुख्यमन्त्री भूपेश बघेल गढ़बों नवा छत्तीसगढ़ के नारे को तामीर करने में लगे रहे। अपनी सरकार को किसानों और आदिवासियों की सरकार बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह अलग बात है कि राज्य में पिछले छह माह में एक दर्जन से अधिक भाजपा नेताओं की हत्या नक्सलियों ने की। भूपेश सरकार ने पाँच साल बाद भी नक्सल नीति नहीं बनाई। नक्सली आतंक में पचास फीसदी की कमी आने का दावा भूपेश सरकार इश्तिहारों में करती आयी है। फिर सीआरपीएफ और आदिवासियों की लाशें गिनने का सियासी उपक्रम बन्द नहीं हुआ।

चुनाव से पहले भूपेश सरकार को लेकर गढ़ा गया नारा, भूपेश है तो भरोसा है,में झुर्रियाँ आ गयी हैं। भरोसे की सरकार की दीवार में भ्रष्टाचार के कई सुराग हो जाने से सब कुछ आर- पार दिखने लगा। आईएएस अफसर सौम्या चौरसिया,रानू साहू,समीर विश्वनोई,सुनील अग्रवाल,और सूर्यकांत तिवारी को जेल हो गयी। बावजूद इसके भूपेश सरकार के परीक्षा की घड़ी है। भाजपा को लगता भूपेश सरकार की काली करतूतों की वजह से चुनावी ऊँट उनके पक्ष में करवट लेगा।

भाजपा के अनुसार राज्य में सत्ता विरोधी लहर की बातें तैर रही हैं। वहीं पहले चरण के बीस विधान सभा में हुए मतदान को लेकर डाॅ रमन सिंह कह रहे हैं, भाजपा 13 से15 सीट जीत रही है। जबकि भूपेश बघेल कहते हैं,एक भी सीट भाजपा को नहीं मिल रही है। सियासी आकलन के मुताबिक दोनों पार्टियों को दस-दस सीटें मिल रही है। बस्तर की सभी 12 सीटों पर काँग्रेस का कब्जा था। लेकिन इस बार काँग्रेस की सीट घट जाएगी। कोंटा में आबकारी मन्त्री कवासी लखमा और माकपा नेता मनीष कुंजाम के बीच कांटे की टक्कर है। बस्तर संभाग में भाजपा को पाँच से छह सीट मिल सकती है। पाटन में छजका पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष अमित जोगी के चुनाव लड़ने से मुख्य मन्त्री भूपेश बघेल की सीट फंस गयी है। यहाँ का ज्यादातर साहू और सतनामी अमित जोगी के पक्ष में हैं। छजका ने राज्य में 81 उम्मीदवार उतारे हैं। मन्त्री रवीन्द्र चौबे ,मोहम्मद अकबर और रूद्रगुरू की सीट संशय में है। भाजपा ने मुख्यमन्त्री का चेहरा नहीं बताया है। लेकिन अमित शाह ने संकेत  दिया है, कि प्रदेश में भाजपा की सरकार बनी तो कलेक्टर रहे ओ पी चौधरी और प्रदेश अध्यक्ष अरूण साव को बड़ा बनाना है।

काँग्रेस से नारा ज होकर हमर राज पार्टी बनाने वाले काँग्रेस के वरिष्ठ नेता अरविंद नेताम ने 12 उम्मीदवार उतारे हैं। भानुप्रतापपुर, कांकेर, केशकाल, कोंडागाँव, बस्तर, नारायणपुर और बीजापुर विधानसभा सीट में अपने प्रत्याशी खड़े किये हैं । लेकिन जगदलपुर, दंतेवाड़ा, चित्रकोट, अंतागढ़ और सुकमा विधानसभा को छोड़ दिया है।  इन सीटों में सर्व आदिवासी समाज किस पार्टी या प्रत्याशी का समर्थन कर रही है, अरविंद नेताम ने इसका खुलासा नहीं किया है। अरविंद नेताम सर्व आदिवासी समाज को इस चुनाव में कहाँ तक ले जाएँगे, वे खुद भी नहीं जानते। इसके पहले सन् 2013में उन्होंने पूर्व भाजपा सांसद सोहन पोटाई के साथ मिलकर जय छत्तीसगढ़ पार्टी बनायी थी। चुनाव में सभी 12 प्रत्याशियों की जमानतें जब्त हो गयी थीं।

वर्तमान में अनुसूचित जाति की 39 सीटों में से 34 काँग्रेस के पास है। राज्य विधानसभा की कुल 90 सीटों में अनुसूचित जाति जनजाति की सीटें निर्णायक भूमिका में रहती हैं।  जिस पार्टी की इन पर मेहरबानी हो जाती है,उसकी सरकार बन जाती है। जैसा कि 2018 के चुनाव में काँग्रेस का हुआ था। एस.टी की 29 सीट है और एससी की 10 सीटें हैं।

राज्य में किसानों ने खूब कर्ज ले रखा है। वे जानते हैं कि भाजपा की सरकार बनी तो उसका कर्जा माफ नहीं होगा। लेकिन काँग्रेस की सरकार बनी तो उसका कर्ज माफ हो जाएगा। इसलिए वह काँग्रेस की ओर झुक रहा है। काँग्रेस के घोंषणा पत्र में लिखा है कि सरकार बनने पर पहले की तरह किसानों का कर्जा माफ होगा। 31 सौ रुपये प्रति क्क्विंटल धान सरकार खरीदेगी साथ ही प्रति एकड़ 20 क्विंटल । के.जी से पी.जी तक पढ़ाई होगी मुफ्त। लघु वनोपजों पर एमएसपी के अतिरिक्त दस रुपये। तेंदूपत्ता संग्राहकों को चार हजार रुपये सालाना बोनस। जातिगत जनगणना कराएँगे। 17.50 लाख गरीब परिवार को आवास देंगे।  

भाजपा ने बाल महिलाओं को महतारी वंदन योजना के तहत 12 हजार और प्रदेश की सभी वर्ग की महिलाओं को हर माह एक हजार रुपये देने की बात की है। प्रदेश के युवाओं को 50 फीसदी सब्सिडी के साथ ब्याज मुक्त ऋण देने की बात तो दूसरी ओर सत्ता में आने पर काँग्रेस ने गृहलक्ष्मी योजना के तहत साल में पन्द्रह हजार रुपये देने का वादा किया है। बीपीएल की बालिकाओं के जन्म पर एक लाख पचास हजार रुपये का आश्वासन प्रमाण पत्र दिया जाएगा। भूपेश बघेल कहते हैं, मोदी की गारंटी योजना फर्जी है। समर्थन मूल्य से अधिक कीमत पर धान खरीदी पर केन्द्र सरकार ने रोक लगा रखी है। ऐसी स्थिति में भाजपा कैसे बोनस देगी। जबकि हम किसानों को दे रहे हैं। हमारी सरकार बनने पर जो कहा है वह करेंगे।

केंद्रीय सूचना व प्रसारण युवा मामले तथा खेल मन्त्री अनुराग ठाकुर ने कहा कि  काँग्रेस की झूठी गारंटी का आलम यह है कि छत्तीसगढ़ से लेकर कर्नाटक और हिमाचल तक काँग्रेस की तमाम गारंटियाँ फेल हुई हैं। जिनकी खुद की कोई  गारंटी नहीं,वह गारंटियों का पुलिंदा लेकर घूम रहे हैं। काँग्रेस ने सन् 2018 के घोंषणा पत्र मे वृद्धावस्था पेंशन राशि 350 से 1000 तक करने की बात की थी, पर किया नहीं। भाजपा मानती है, कि भूपेश सरकार के भ्रष्टाचार और झूठे घोषणा पत्र से प्रदेश व्यापी गुस्सा है। जबकि काँग्रेस को अपने काम काज पर भरोसा है। वहीं महादेव एप कांड और ई.डी.के साइड इफेक्ट का असर चुनाव पर पड़ा तो ‘हाथ’ में ‘कमल’ खिल सकता है।  

प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने कहा, सुपर सी.एम. और अधिकारियों ने इतना भ्रष्टाचार किया कि सी.एम.विधायक का चुनाव भी हार रहे हैं। जिस काँग्रेस को गणित सिखाने का शौक है,उससे सवाल है, कि महादेव एप में 508 करोड़ रुपये से अधिक बंटने के आरोप हैं। जाँच एजेंसियों के छापों में पैसे के ढेर पकड़े गए हैं। बताएं सी.एम को कितना मिला और दिल्ली कितना गया। भूपेश बघेल ने कहा,जेल में बन्द ड्राइवर असीम दास ने कोर्ट में कहा, उसे राजनीतिक साजिश के तहत फंसाया गया है। होटल की पार्किग में कार रख दिया था। मुझे नहीं पता कि किसने पैसा रखा है। ईडी से ट्रैप करवाने के लिए गाड़ी में पैसा रखवाया गया है।’’ जिस गाड़ी में पैसा मिला वह पूर्व मन्त्री के भाई की गाड़ी है।

भाजपा सांसद और पाटन से भाजपा प्रत्याशी विजय बघेल जो कि मुख्यमन्त्री भूपेश बघेल के भतीजे हैं,ने कहा कि छत्तीसगढ़ पर 82 हजार करोड़ रुपये का कर्ज है और छत्तीसगढ़ की जनता यह मान चुकी है कि अगर भूल से भी काँग्रेस को सत्ता में आने का मौका मिल गया तो काँग्रेस की सरकार छत्तीसगढ़ को बेचने की कोई कसर नहीं छोड़ेगी।’’

बहरहाल काँग्रेस जीतती है तो राहुल गांधी के लिए संजीवनी सिद्ध होगा। यदि चुनाव परिणाम विपरीत आते हैं, तो यही कहा जाएगा, कि हिन्दी पट्टी पर अमित शाह और मोदी को मात देना मुश्किल है

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मध्यप्रदेश

क्या फिर से ‘फीनिक्स’ बनकर उभरेंगे शिवराज?

 

मध्यप्रदेश को भाजपा के सबसे मजबूत किलों में से एक माना जाता है, यहाँ जनसंघ के जमाने से ही उसका अच्छा-खासा प्रभाव है। यहाँ उसके शिवराजसिंह चौहान जैसे मजबूत क्षत्रप पिछले 18 सालों से प्रदेश की सत्ता में शीर्ष पर बने हुए हैं। दूसरी तरफ काँग्रेस है जो लगातार हार की हैट्रिक बनाने के बाद 2018 में सत्ता वापसी में सफल रही थी लेकिन 2020 में ज्योतिरादित्य सिंधिया के काँग्रेस छोड़ने के कारण राज्य में फिर से बीजेपी की सरकार बन गयी थी। इस प्रकार पंद्रह साल बाद सत्ता में लौटी काँग्रेस पंद्रह महीने ही चल पायी वहीँ भाजपा की जोड़-तोड़ के सहारे फिर से वापसी हो गयी थी।

2023 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर दोनों पार्टियाँ आमने-सामने हैं, लेकिन मुकाबला इतना करीबी लग रहा है कि बड़े से बड़ा चुनावी विश्लेषक ठोस भविष्यवाणी करने की स्थिति में नहीं है।

करीब 18 साल मुख्यमन्त्री रहने के बावजूद शिवराज सिंह चौहान को उनकी पार्टी ने मुख्यमन्त्री का चेहरा घोषित नहीं किया है बल्कि वह प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी के चेहरे पर चुनाव लड़ रही है, इसे सामूहिक नेतृत्व का नाम दिया जा रहा है। पार्टी कह रही है कि मुख्यमन्त्री कौन होगा यह चुनाव के बाद तय होगा। पार्टी में करीब आधा दर्जन मुख्यमन्त्री के दावेदार नजर आ रहे हैं उनमें शिवराज भी एक हैं।

बहरहाल “एमपी के मन में मोदी, मोदी के मन में एमपी” भाजपा का केन्द्रीय चुनावी नारा है। इस नारे को अमली जामा पहनाने के लिए पार्टी ने अपनी पूरी ताकत झोंक दी है। इस विधानसभा चुनाव में भाजपा ने अपने 7 सांसदों को मैदान में उतारा है जिसमें दिमनी से नरेन्द्र सिंह तोमर, नरसिंहपुर से प्रहलाद पटेल, निवास से फग्गन सिंह कुलस्ते जैसे केन्द्रीय मन्त्री और बाकी सांसदों में रीति पाठक, राकेश सिंह, राव उदयप्रताप और गणेश सिंह शामिल हैं। इस भारी भरकम सूची में भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव कैलाश विजयवर्गीय का नाम भी है जिन्हें इंदौर की एक विधानसभा सीट से उतारा गया है। जाहिर है भाजपा यह चुनाव शिवराज नहीं बल्कि केन्द्रीय नेतृत्व की छाया में लड़ रही है जिसमें अगर भाजपा जीतती है तो श्रेय के साथ मुख्यमन्त्री भी मोदी के पसंद का होगा और अगर भाजपा हारती है तो इसका ठीकरा शिवराज के सर ही फूटेगा।

भाजपा के अन्दरूनी जानकार कहते हैं कि इस चुनाव के बाद शिवराज को साइड लाइन करने की पूरी तैयारी कर ली गयी है। लेकिन शिवराज अपनी पोजिशन छोड़ने को तैयार नहीं है वे इस प्रकार से खूंटा गाड़ कर बैठ गये हैं कि उन्हें हिलाना मुश्किल है। चूंकि इस बार भाजपा उनके चेहरे पर चुनाव नहीं लड़ रही है इसलिए उन्हें भी इस बात का अंदाज है कि अगर जीत होती है तो भी इस बार उनका मुख्यमन्त्री बनना मुश्किल होगा लेकिन इसके बावजूद भी वे अपनी तरफ से खुद को मुख्यमन्त्री के दावेदार के तौर पर ही पेश कर रहे हैं और जनता के बीच जाकर खुद को सीएम बनाने के लिए वोट मांग रहे हैं। इस पूरे चुनाव में एक तरफ भाजपा का चुनावी अभियान, जो प्रधानमन्त्री के चेहरे और सामूहिक नेतृत्व के सहारे चलाया जा रहा है वहीँ दूसरी तरफ शिवराज सिंह चौहान का अपना चुनावी अभियान है जिसमें वे खुद को चेहरा और भावी मुख्यमन्त्री बताते हुए कह रहे हैं कि “पहले लाड़ली लक्ष्मी योजना बनायी, फिर लाड़ली बहना योजना बनायी अब मेरा यह संकल्प है कि हर बहन को “लखपति बहना” बनाऊंगा”।

2018 में पराजय के बाद भी तमाम कोशिशों के बावजूद उन्हें मध्यप्रदेश से हटाया नहीं जा सका था। भाजपा आलाकमान द्वारा उन्हें राष्ट्रीय उपाध्यक्ष बनाकार दिल्ली बुलाने की कोशिश की गयी थी लेकिन शिवराज “मैं केंद्र की राजनीति में नहीं जाऊंगा। मैं मध्यप्रदेश में ही रहूंगा और यहीं मरूंगा” कहकर खुद को प्रदेश की राजनीति में ही सक्रिय बनाये रखने की जिद बनाये हुए थे और इसमें ना केवल वे कामयाब रहे बल्कि जोड़-तोड़ के सहारे वे मुख्यमन्त्री के कुर्सी पर वापसी में भी सफल रहे थे।

भाजपा के अन्दर शिवराज सिंह की गिनती उन चुनिन्दा नेताओं में भी होती है जो अपनी छवि एक उदार नेता के तौर पर गढ़ने में कामयाब रहे हैं। उनकी शैली टकराव की नहीं बल्कि लोप्रोफाईल, समन्वयकारी और मिलनसार नेता की है। इतने लम्बे समय तक मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री रहने के बाद भी शिवराज सहज, सरल और सुलभ बने रहे, यही उनकी अबतक के राजनीतिक जीवन की सबसे बड़ी पूँजी और ताकत है। उनके पक्ष में कई और बातें भी हैं जैसे उनका ओबीसी समुदाय से होना और हिन्दी ह्रदय प्रदेश का मास लीडर होना। अपने विरोधियों से मेल-जोल बनाए रखने व जनता के साथ घुल-मिल कर उनसे सीधा रिश्ता जोड़ लेने की उनकी काबिलियत भी उन्हें खास बनाती है। अपनी इसी ताकत के बल पर वे 2005 से 2018 तक लगातार 13 सालों तक प्रदेश के मुख्यमन्त्री रहे। दिसम्बर 2018 में हुए विधानसभा चुनाव में उन्हें हार का सामना करना पड़ा था और उनकी जगह काँग्रेस के कमलनाथ मुख्यमन्त्री बने थे लेकिन पन्द्रह महीने बाद ही शिवराज एक बार फिर वापसी करने में कामयाब रहे थे।

इसलिये इस बार के विधानसभा चुनाव में अगर भाजपा हारती भी है तो शिवराज बने रहेंगें। मध्यप्रदेश में भाजपा को धीरे-धीरे शिवराज सिंह चौहान के आभामंडल से बाहर किया जा रहा है लेकिन फिलहाल पार्टी के पास मध्यप्रदेश में शिवराज के अलावा कोई दूसरा विकल्प नहीं है। इसलिए हार हो या जीत उनकी सारी जद्दोजहद हिन्दी ह्रदय प्रदेश की जमीन पर अपनी पकड़ और प्रासंगिकता बनाए रखने की होगी।

अपने एक चुनावी भाषण में खुद की तुलना “फीनिक्स पक्षी” करते हुए जब वे कहते हैं कि “अगर मैं मर भी गया तो राख के ढेर में से फीनिक्स पक्षी की तरह दोबारा उठ खड़ा हो जाऊंगा”, तो भले ही उनके निशाने पर काँग्रेस रही हो लेकिन उनका इरादा साफ़ नजर आता है।

ज्योतिरादित्य सिंधिया के काँग्रेस छोड़ने के बाद ऐसा लगता है कि कमलनाथ के सामने सारे क्षत्रप नेपथ्य में चले गये हैं। कहने को तो कमलनाथ और दिग्विजय सिंह की जोड़ी को जय और वीरू की जोड़ी बताई जा रही है लेकिन दिग्विजय सिंह की भूमिका भी परदे के पीछे ही है। काँग्रेस की तरफ से अकेले कमलनाथ ही मैदान में दिख रहे हैं। इस बार चेहरा, रणनीति सब कुछ उन्हीं का है। कुल मिलाकर मध्यप्रदेश में उन्हें “खुला हाथ” मिला हुआ है और खुद आलाकमान भी उनके हिसाब से काम करने की कोशिश कर रहा है।

काँग्रेस की तरफ से मुख्यमन्त्री पद के वे अकेले दावेदार है जिनके मुकाबले ना तो काँग्रेस और ना ही भाजपा में कोई चेहरा है और इस बार के चुनाव में यही सबसे बड़ी ताकत भी है। पिछली बार के चुनाव की तरह इस बार भी उन्होंने वचन पत्र जारी किया है जिसमें लोक लुभावन वादों की भरमार है।

मई 2018 में मध्यप्रदेश में प्रदेश अध्यक्ष के तौर पर कमलनाथ के आने के बाद से काँग्रेस लगातार नरम हिन्दुतत्व के रास्ते पर आगे बढ़ी है और इस दौरान विचारधारा के स्तर पर वह भाजपा की “बी टीम” नजर आती है। पिछले दिनों कमलनाथ ने अपने एक इंटरव्यू में राममन्दिर का श्रेय काँग्रेस को देते हुए कहा है कि राजीव गाँधी ने मन्दिर का ताला खुलवाया था, अपनी चुनावी तैयारियों के तहत वे बागेश्वर धाम के धीरेंद्र शास्त्री के कई कार्यक्रम भी करा चुके हैं।

चुनाव से कुछ ही महीनों पहले शिवराज सिंह चौहान की सरकार द्वारा “लाड़ली बहना योजना” की घोषणा की गयी है और पूरे चुनावी अभियान के दौरान भाजपा का सारा जोर अपने 18 साल के शासन की उपलब्धियों को बताने के बजाय इस नये नवेले योजना के प्रचार और उसका श्रेय लेने में रहा है। शायद भाजपा मध्यप्रदेश में अपने 18 साल के शासन की किसी एक उपलब्धि और चेहरे को पेश कर पाने की स्थिति में हैं इसलिए उसका जोर “मोदी के चेहरे, राम मन्दिर और लाड़ली बहना योजना” पर है।

हालांकि गृह मन्त्री अमित शाह मध्यप्रदेश को बीमारू राज्य से बेमिसाल राज्य बनाने का दावा करते हैं लेकिन इसपर ज्यादा जोर नहीं दिया गया है। मध्यप्रदेश में असल मुद्दों की कमी नहीं है जिसपर ध्यान देने की जरूरत है, जैसे कि प्रदेश में अर्थव्यवस्था की हालत बहुत पतली है लेकिन प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी द्वारा “राजस्थान में काँग्रेस को चुना तो सर तन से जुदा के नारे लगे, अब मध्यप्रदेश को बचाना है” जैसी बातें कहकर ध्यान कहीं और ले जाने की कोशिश की गयी है।

बहरहाल मुकाबला बहुत दिलचस्प और करीबी है, आगामी तीन दिसम्बर के नतीजे ना केवल मध्यप्रदेश के मुख्यमन्त्री का नाम तय करेंगें बल्कि इससे दोनों प्रमुख पार्टियों के अन्दरूनी समीकरण भी नये सिरे से तय होने वाले हैं

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राजनीति

क्या लोकतन्त्र को ऑक्सीजन दे पाएगा चुनाव?

 

कोलकाता के एक बड़े अखबार के पत्रकार ने भोपाल और इंदौर के युवाओं से जो बात की वह अपने में इस बात का द्योतक है कि इन दस वर्षों और खास कर मध्य प्रदेश में बीस वर्षों के भाजपा शासन में देश का मानस कितना बदल चुका है। मध्य प्रदेश के युवा भ्रष्टाचार, पेपर लीक, बुनियादी ढांचे की कमी, शिक्षा का ऊंचा बजट, महंगाई वगैरह की बात तो करते हैं लेकिन उनके लिए न तो ढहता हुआ लोकतन्त्र कोई मुद्दा है और न ही सर्वधर्म समभाव व संवैधानिक  नैतिकता। वे मानते हैं कि मोदी जबरदस्त काम कर रहे हैं और उन्होंने देश को विश्वगुरु बना दिया है, पूरी दुनिया में भारत का डंका बज रहा है। उनमें यह भी मान्यता है कि इससे पहले भारत को कोई जानता नहीं था। वे नहीं मानते कि इंदिरा गाँधी ने 1971 में पाकिस्तान को विभाजित और बांग्लादेश बनाकर कोई चमत्कारिक काम किया और न ही वे यह मानते हैं कि देश में उदारीकरण और उसकी जीडीपी बढ़ाने की शुरुआत पीवी नरसिंह राव ने की और बाद में उसे डा मनमोहन सिंह ने बढ़ाया। वे मानते हैं कि मनमोहन सिंह तो बोल ही नहीं पाते थे और मोदी जी कितना बढ़िया बोलते हैं। वे यह भी नहीं मानते कि वाजपेयी जी ने जब सरकार बनायी तो अनुच्छेद 370, राम मंदिर और कामन सिविल कोड जैसे मुद्दों को दरकिनार कर दिया था। हाँ वे यह जरूर स्वीकार करते हैं कि बीस साल के शासन के बाद मध्यप्रदेश शासन में एक थकान आ गयी है इसके लिए सरकार बदलने की जरूरत है। लेकिन वे मानते हैं कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है और आखिर कमलनाथ भी तो हनुमान भक्त हैं।

दिल्ली के एक मीडिया समूह के वरिष्ठ पत्रकार ने जब इंदौर में देवी अहिल्या बाई विश्वविद्यालय के छात्रों से बात की तो कुछ चौंकाने वाली प्रतिक्रियाएं आयीं। कुछ युवकों ने ऊँचे स्वर में कहा कि गाँधी ने देश को बाँटा और उनकी हत्या करने वाला गोडसे वास्तव में देश का नायक है। हालांकि उम्मीद की बात यह रही कि उनके पास खड़े बहुसंख्यक युवाओं ने उनसे असहमति जतायी और कहा कि गाँधी बड़े राजनेता और सन्त थे और उन्होंने देश की आजादी में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया।

इस चुनाव की विशेषता यह है कि भारतीय जनता पार्टी इसे राष्ट्रीय चुनाव मानकर लड़ रही है जबकि काँग्रेस और दूसरे विपक्षी दल इसे स्थानीय चुनाव मानकर लड़ रहे हैं। भाजपा ने अगर राजस्थान से लेकर छत्तीसगढ़ तक किसी स्थानीय नेता को मुख्यमन्त्री के उम्मीदवार के रूप में पेश नहीं किया है और मोदी के नेतृत्व में ही सारे पांसे रख दिये हैं तो काँग्रेस, बीआरएस और एमएनएफ मुख्यमन्त्री के उम्मीदवार को ज्यादातर जगहों पर तय मान कर चुनाव लड़ रही है। लेकिन काँग्रेस ने इस चुनाव में इण्डिया गठबन्धन को मुल्तवी कर रखा है। मध्य प्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना सभी स्थानों पर इण्डिया गठबन्धन के घटक अलग चुनाव लड़ रहे हैं और उनके नेता काँग्रेस पर हमला करते हुए प्रचार कर रहे हैं। कमलनाथ से धोखा खाने के बाद अखिलेश यादव तो काँग्रेस पर खासे हमलावर हैं और उनके भाषणों को सुनकर तो लगता है कि इण्डिया गठबन्धन जो घुटनों के बल चल रहा था और जिसने घोसी चुनाव में खड़े होने की कोशिश की उसने विधानसभा चुनाव में अपना घुटना तुड़वा दिया।

काँग्रेस के जिम्मेदार नेता कह रहे हैं कि विधानसभा चुनावों के बाद गठबन्धन सक्रिय होगा तो शरद पवार कह रहे हैं कि इण्डिया गठबन्धन लोकसभा के लिए है विधानसभा के लिए नहीं। लेकिन इस ऊहापोह के बीच राहुल गाँधी जाति जनगणना जैसे राष्ट्रीय मुद्दे तो उठा रहे हैं और भाजपा से आगे बढ़कर गारंटी योजनाओं की घोषणा भी कर रहे हैं। लेकिन या तो काँग्रेस उस आख्यान से रणनीतिक तौर पर पीछे हट रही है जो उसने भारत जोड़ो यात्रा में उठाया था और जिसका असर कर्नाटक और हिमाचल के चुनावों में दिखा या फिर उसने उन्हें 2024 के लिए बचा कर रखा है। लेकिन इन चुनावों में काँग्रेस की ओर से संविधान बचाने का राष्ट्रीय आह्वान का वैसा स्वर नहीं सुनाई पड़ रहा है जैसी कि उससे उम्मीद थी।

चुनावों के दौरान एक ओर भाजपा छत्तीसगढ़ के मुख्यमन्त्री भूपेश बघेल पर भ्रष्टाचार का आरोप लगा रही है तो दूसरी ओर उसके अपने केंद्रीय मन्त्री नरेंद्र तोमर के बेटे का वीडियो वायरल हो रहा है। उसमें 500 करोड़ रुपए लेनदेन की बात है। यह वीडियो उस समय का है जब नरेंद्र तोमर खनन मन्त्री थे। लेकिन विंडबना देखिए कि ईडी और सीबीआई के छापे वहाँ पड़ रहे हैं जहाँ पर विपक्षी दलों और विशेषकर काँग्रेस की सरकारें हैं यानी राजस्थान और छत्तीसगढ़। भ्रष्टाचार और परिवारवाद के आरोप जब भाजपा पर लगते हैं तो सरकारी जांच एजेंसियां और प्रधानमन्त्री खामोश हो जाते हैं। इस अन्यायपूर्ण खामोशी को राष्ट्रवाद के आक्रामक आख्यान और राममंदिर के जनवरी में होने वाले उद्घाटन से ढक दिया जाता है। विडम्बना देखिए कि इस चुनाव में इजराइल और हमास को मुद्दा बनाया जा रहा है और उस पर सबसे ज्यादा भाषण उत्तर प्रदेश के मुख्यमन्त्री योगी आदित्यनाथ दे रहे हैं।

पहले भारतीय मीडिया संसाधनों की कमी के कारण मध्यपूर्व देशों की खबरों के लिए पश्चिमी मीडिया पर निर्भर होता था। लेकिन आज अपनी बढ़ी ताकत के बावजूद वह इन पर कई गुना निर्भर हो गया है। लेकिन पहले गुटनिरपेक्ष संगठन के नाते भारतीय राजनीति फिलस्तीनियों के इतने विरुद्ध नहीं थी और इजराइल की साजिशों में इतनी शामिल नहीं हुई थी। आज हमारी राजनीति इस स्तर तक पहुँच गयी है कि दावा कर रही है कि अगर आप के कानों में अजान की आवाज पहुँच रही है तो आप हमास के रेंज में हैं। हमास की आतंकवादी गतिविधि की पुरजोर निंदा और विरोध करते हुए भी अस्पतालों पर बमबारी और निहत्थे बच्चों और औरतों की हत्याओं को भला कैसे सही ठहराया जा सकता है। क्या यह आतंकी कार्रवाई नहीं है?  लेकिन विडम्बना यह है कि रामायण और महाभारत का पारायण करने वाला यह देश और उसके नेता न्याय और अन्याय का फर्क भूल गये हैं और यह भी भूल गये हैं कि प्राचीन युग में भी युद्ध की नैतिकता के कुछ नियम होते थे जिनमें रात को युद्ध नहीं होता था और न ही निहत्थे लोगों और औरतों बच्चों पर वार किया जाता था।

बिखरती संवैधानिक नैतिकता लोकतन्त्र की उखड़ती सांसों के बीच दो मुद्दे राष्ट्रीय स्तर पर चर्चा में उठे हैं और कुछ कहा नहीं जा सकता कि उनका इन चुनावों पर कितना असर पड़ेगा। एक है जातीय जनगणना और उसके आधार पर आरक्षण पर लगी 50 प्रतिशत की सीमा को हटाने की बात। दूसरा मुद्दा है इलेक्टोरल बांड का जिस पर सुप्रीमकोर्ट सुनवाई कर रहा है। हालांकि उसने कोई भी रोक लगाने से मना कर दिया है।

बिहार देश का पहला राज्य है जिसने जाति जनगणना पूरी की और पचहत्तर प्रतिशत आरक्षण लागू करने का विधेयक पास कर दिया। बिहार की इस कार्रवाई का असर निश्चित तौर पर पूरे देश पर पड़ेगा। देर सबेर सभी राज्य इस ढर्रे पर कदम बढ़ाएँगे। क्योंकि आरक्षण की राजनीति ने हाल में महाराष्ट्र को गरमा रखा था और आश्चर्य नहीं कि आगे देश के अन्य राज्य इस ओर बढ़ेगे। सवाल यह है कि क्या इस राजनीति का असर इन चुनावों पर पड़ेगा?  क्या जाति की राजनीति, साम्प्रदायिक राजनीति या राष्ट्रवाद की भावुक अपील को काट पाएगी?  इसका परीक्षण अभी नहीं तो 2024 में तो होगा है।

दूसरा मुद्दा भ्रष्टाचार का है। क्या इस देश की जनता भ्रष्टाचार के मुद्दे पर मौलिक बहस करने और उसका कोई रेडिकल समाधान करने के लिए तैयार है?  अगर है तो उसे चुनावी बांड पर सोचना होगा। चुनावी बांड में मिलने वाले चन्दे की गोपनीयता और उस पर आयकर की छूट दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। ये लोकतन्त्र की पारदर्शी भावना के विरुद्ध हैं और लगता है कि आयकर विभाग काले धन पर कर की छूट दे रहा है। इस स्थिति के रहते हुए हमारा लोकतन्त्र कभी भ्रष्टाचार से मुक्त नहीं हो सकता भले ही हमारे मोदी जी हर विपक्षी नेता के घर पर ईडी और सीबीआई दौड़ाते रहें। क्या हमारा मतदाता और हम भारत के लोग इस बीमार होते लोकतन्त्र को चंगा करने के लिए कोई निदान और इलाज सोच रहे हैं या वे उसकी बीमारी को ही स्वास्थ्य मान कर चल रहे हैं?  लोकतन्त्र में सिर्फ राजनीतिक दल ही भागीदार नहीं होते। उसमें लोकतन्त्र की संस्थाएं और जनता भी बराबर की भागीदार होती है। लोकतन्त्र में जो गड़बड़ी होती है उसकी जितनी जिम्मेदारी संस्थाओं पर होती है उतनी ही जनता पर होती है। क्या जनता इस जिम्मेदारी को समझेगी और 2024 के लिए कोई उम्मीद पैदा करेगी?

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राजस्थान विधानसभा चुनाव
राजस्थान

राजस्थान विधानसभा चुनाव: ऊंट किस करवट बैठेगा!

 

9 अक्टूबर 2023 को भारत निर्वाचन आयोग द्वारा दिल्ली के आकाशवाणी स्थित रंग भवन सभागार में आयोजित एक पत्रकार संगोष्ठी में भारत के मुख्य निर्वाचन आयुक्त राजीव कुमार द्वारा राजस्थान सहित पांच राज्यों के आगामी विधानसभा आम चुनावों के कार्यक्रम संबंधी घोषणा की गई। जिसके अनुसार राजस्थान की सभी 200 विधानसभा सीटों पर 23 नवंबर 2023 को एक ही चरण में चुनाव आयोजित किए जाएंगे, जिनके परिणाम 3 दिसंबर 2023 को घोषित किए जाएंगे। काँग्रेस और भाजपा के आंतरिक सर्वेक्षणों में राजस्थान में दोनों प्रमुख दलों के बीच कड़ी टक्कर होने की संभावना है। पिछले चुनाव में काँग्रेस के खाते में 99 सीटें गई थीं, वहीं बीजेपी 73 सीटें जीतने में कामयाब रही। उस चुनाव में काँग्रेस को रालोद का भी साथ मिल जाने से उसकी सीटों का आंकड़ा 100 पहुंच गया और पार्टी बहुमत हासिल करने में कामयाब हो गई। लेकिन उस चुनाव के कई ऐसे समीकरण रहे जो काँग्रेस को जीत के बाद भी चिंताएं दे गए और बीजेपी को कुछ उम्मीदें मिलीं। असल में पिछले चुनाव में कई ऐसी सीटें रही जहां पर जीत का अंतर 1000 वोटों से भी कम का रहा। यानी अगर उन सीटों पर थोड़ा भी फेर-बदल हो जाता तो सत्ता में काँग्रेस की जगह बीजेपी भी आ सकती थी। बड़ी बात ये भी है कि राज्य की 10 ऐसी सीटें रहीं जहां पर 1000 से भी कम वोटों से हार-जीत तय हुई।

राजस्थान में मुकाबला जरूर बीजेपी और काँग्रेस के बीच में रहा, लेकिन कई दूसरी पार्टियों ने भी अपनी उपस्थिति दर्ज करवाई थी। पिछले चुनाव में मायावती की बीएसपी को 6 सीटें, कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ इंडिया (मार्क्‍ससिस्‍ट) को 2, भारतीय ट्रायबल पार्टी को 2, राष्ट्रीय लोक दल को 1, राष्ट्रीय लोकतांत्रिक पार्टी को 3 सीटें मिली थीं। इसके अलावा 13 निर्दलीयों ने भी एक निर्णायक भूमिका निभाई थी। यहां ये समझना जरूरी है कि वर्तमान में राजस्थान विधानसभा की स्थिति कुछ बदली हुई है। इस समय एक तरफ काँग्रेस का आंकड़ा 100 से बढ़कर 108 हो गया है, तो वहीं बीजेपी 70 सीटों पर चल रही है। राजस्थान का जैसा ट्रेंड रहा है, यहां हर पांच साल में सत्ता बदल जाती है। इस बार बीजेपी भी इसी ट्रेंड के दम पर सरकार में आना चाहती है, वहीं काँग्रेस इतिहास रच उस ट्रेंड को तोड़ना चाहती है। राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए बीजेपी ने अभी तक अपने मुख्यमंत्री पद के चेहरे को घोषित नहीं किया है।

बीजेपी की नेता और राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने झालावाड़ में एक जनसभा में अपने सांसद पुत्र दुष्यंत सिंह के भाषण और उस पर जनता के रिस्पांस की तारीफ़ें करते हुए कहा, ‘झालावाड़ ने सांसद दुष्यंत सिंह को इतना सिखा दिया है कि अब मैं रिटायर हो सकती हूँ।’ उनके भाषण में इतनी सी बात सुनकर बीजेपी के भीतर काफ़ी हलचल होने लगी और उनका यह बयान वायरल हो गया। लेकिन वसुंधरा राजे ने अगले दिन झालारापाटन से नामांकन दाख़िल करने के दौरान कहा, ”मैं रिटायर होने वाली नहीं हूँ। सेवा का कर्म जारी रहेगा। मैंने सांसद दुष्यंत सिंह की राजनीतिक परिपक्वता से खु़श होकर माँ के नाते कहा कि वे झालावाड़-बारां में अच्छा काम कर रहे हैं।” लेकिन यह सवाल एक सहज जिज्ञासा के रूप में इस बार शुरू से ही पूछा जा रहा है कि अगर वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री पद का चेहरा नहीं होती हैं तो फिर कौन?

अब तक राजस्थान में बीजेपी की रणनीति एकदम अलग थी क्योंकि बीजेपी मुख्यमंत्री पद के लिए कोई चेहरा घोषित नहीं कर रही थी। इस पर चुनाव नतीजों के बाद फैसले की खबर थी। अब खबर है कि बीजेपी ने अपनी रणनीति में बदलाव किया है। राजस्थान में वसुंधरा राजे बीजेपी के लिए जरूरी हैं या मजबूरी, इस तरह के सवाल उठ रहे हैं। बीजेपी ने राजस्थान में करीब एक महीने पहले एक सर्वे कराया था। सर्वे सीक्रेट था, जिसकी रिपोर्ट भी सीक्रेट ही रखी गई। रिपोर्ट की जानकारी पार्टी के चंद बड़े नेताओं के बीच ही थी। रिपोर्ट में राजस्थान में बीजेपी की चुनावी संभावनाओं का पूरा हिसाब था। पड़ताल में यह बात सामने आई कि अगर वसुंधरा को मुख्य मंत्री का चेहरा बनाया जाए तो बीजेपी को फायदा हो सकता है, यानी वोट के मामले में बीजेपी को काँग्रेस के मुकाबले निर्णायक बढ़त मिल सकती है। बीजेपी की रिपोर्ट जैसे ही दिल्ली पहुंची, इसका असर दिखने लगा। जो बीजेपी मुख्य मंत्री के चेहरे के तौर पर किसी को स्वीकार करने से बच रही थी वो अब मॉडल के तौर पर वसुंधरा का नाम ले रही है। बीजेपी को अब राजस्थान में वसुंधरा की अहमियत का अंदाजा होने लगा है।

राजस्थान में चुनाव के कुछ ही दिन और बचे हैं, काँग्रेस की ओर से स्टार प्रचारक प्रचार अभियान में जोरों से लगे हैं लेकिन एक स्टार प्रचारक- राहुल गांधी, राज्य में किसी रैली या मंच पर गहलोत के लिए वोट मांगते अभी तक नहीं दिखे। बस इसी बात को लेकर चर्चाओं का बाजार गर्म है। राजस्थान के लिए स्टार प्रचारक की लिस्ट में काँग्रेस अध्यक्ष मल्लिकार्जुन खड़गे और सोनिया गांधी के बाद तीसरा नाम राहुल गांधी का ही है। लेकिन सवाल यही है कि आखिर एमपी-छत्तीसगढ़ में सक्रिय  राहुल गांधी राजस्थान में दिखाई क्यों नहीं दे रहे? इससे क्या ये संकेत मिलता है कि राजस्थान में रिवाज कायम होगा और काँग्रेस सत्ता से बाहर होगी? या पायलट-गहलोत के बीच के तनाव से इसका कोई लेना देना है ? राहुल गांधी मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और तेलंगाना में व्यस्त हैं, छ्त्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में पहले चुनाव हैं। हालांकि राहुल गांधी राजस्थान को लेकर थोड़े निराश भी हैं, उन्होंने इस बात का पहले भी जिक्र किया था कि राज्य में इस बार तगड़ी लड़ाई है। हालांकि राहुल गांधी के अब चार दौरे पक्के हो चुके हैं। दीवाली के बाद वे चार बार राजस्थान में आएंगे। यहाँ वे जहाजपुर, जयपुर में रोड शो करेंगे, जोधपुर संभाग में भी रैली प्रस्तावित है, फिर गंगानगर में भी एक रैली में वे दिखाई देंगे। दीवाली के बाद ही राजस्थान का चुनावी अभियान उठेगा, प्रियंका गांधी और खड़गे भी चार-चार रैलियाँ करेंगे।

राजस्थान में 49 लाख नए मतदाता राज्य के 139 विधानसभा सीटों पर कई प्रमुख नेताओं का भविष्य बना या बिगाड़ सकते हैं। वजह है कि 200 विधानसभाओं में से 139 सीटें ऐसी हैं जहां मतदाताओं की संख्या पिछले चुनाव में जीत के अंतर से बढ़ गई है। चुनाव आयोग के आधिकारिक आंकड़ों के मुताबिक, इस बार विधानसभा चुनाव में 5. 27 करोड़ मतदाता राजस्थान में सरकार चुनेंगे। इनमें से इस बार 48.92 लाख मतदाता नये हैं। नए वोटरों की ताकत का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि पिछली बार बीजेपी के पूर्व मंत्री कालीचरण सराफ महज 1704 वोटों से मालवीय नगर सीट से जीते थे। इसी तरह हवामहल सीट से काँग्रेस के दिग्गज नेता महेश जोशी 9282 वोटों से जीते थे. इस बार सूची में 19076 नये मतदाता हैं।

चूरू में पिछले विधानसभा चुनाव में नेता प्रतिपक्ष राजेंद्र राठौड़ को बेहद करीबी जीत मिली थी। उनके और काँग्रेस के रफीक मंडेलिया के बीच अंतर सिर्फ 1850 वोटों का था। इस बार मतदाता सूची में 21,977 मतदाता बढ़े हैं, जो पिछली बार की जीत के अंतर से 20,127 ज्यादा हैं।

ध्यातव्य है कि राजस्थान में 119 सीटें ऐसी हैं, जहाँ वोटर्स हर बार पार्टी या विधायक को बदलते रहते हैं। इन सीटों पर मतदाता अपने क्षेत्र के मुद्दों, चेहरे, जाति, सक्रियता के आधार पर वोट देते हैं। चुनाव में पार्टियां दो स्तर पर चुनाव लड़ रहीं हैं। एक मुद्दों के आधार पर, तो दूसरा जाति पर। विधानसभा चुनावों में विकास और धर्म के मुद्दे जरूर हैं, लेकिन जातियों का दबदबा इनसे जरा भी कम होता नजर नहीं आ रहा। अधिकतर राजनीतिक दल जातिगत समीकरण को देखते हुए ही चुनावी मैदान में ताल ठोक रहे हैं।

दोनों दलों की स्थिति जानना दिलचस्प है कि किसने किस जाति को ज्यादा महत्व दिया है। राजस्थान विधानसभा में 200 सीटें हैं और यहां सबसे ज्यादा जाट और एससी-एसटी का दबदबा रहा है। इसके बाद राजपूतों का नंबर आता है। काँग्रेस और बीजेपी ने इसे ध्यान में रखते हुए टिकट बाँटे हैं। भारतीय जनता पार्टी और काँग्रेस ने सभी 200 विधानसभा सीटों पर उम्मीदवारों का ऐलान कर दिया है। काँग्रेस ने जाट समाज से 36 प्रत्याशियों को मौका दिया है, जबकि बीजेपी ने 33 को टिकट दिया है। बात एससी  वर्ग की करें तो काँग्रेस ने 34 सीटों पर इन्हें उतारा है, तो बीजेपी ने भी इतने ही एससी को टिकट दिये हैं। काँग्रेस ने 33 एसटी उम्मीदवारों को टिकट दिया है, जबकि बीजेपी ने 30 को मौका दिया है।

काँग्रेस ने जहां 17 सीटों पर राजपूत प्रत्याशी उतारे  है, तो वहीं बीजेपी ने 25 राजपूत उम्मीदवारों को मौका दिया है। काँग्रेस ने 16 ब्राह्मण उम्मीदवार उतारे हैं, तो बीजेपी ने 20 ब्राह्मणों को टिकट दिया है। बनिया समाज से 11 उम्मीदवार काँग्रेस ने उतारे हैं तो बीजेपी ने भी इतने ही प्रत्याशियों को मौका दिया है। काँग्रेस की सूची में 15 मुस्लिम उम्मीदवार हैं, जबकि बीजेपी ने एक भी मुस्लिम को टिकट नहीं दिया है। काँग्रेस ने 11 गुर्जरों को मैदान में उतारा है,  तो बीजेपी ने 10 को। माली समाज की बात करें तो काँग्रेस ने 4 को टिकट दिया है, जबकि बीजेपी ने 3 को। लोग बोल रहे हैं – मुद्दे सब गायब हैं, बचा है बस गाय-गोबर और हिंदू-मुस्लिम। टिकट बंटवारे में इस बार भी जाटों का ही वर्चस्व दिखाई दिया।

राजस्थान के उत्तर पश्चिम के सीकर, चूरू, झुंझुनूं, हनुमानगढ़, बीकानेर, नागौर, जोधपुर, बाड़मेर, और पूर्वी राजस्थान के भरतपुर और धौलपुर जिलों में यह समुदाय सबसे ज्यादा है। प्रदेश की आबादी में इनकी संख्या करीब 12 प्रतिशत मानी जाती है। यही कारण है कि दोनों ही दल इस समुदाय के प्रत्याशियों की अनदेखी नहीं कर पाते। इस बार के चुनाव में भी दोनों ही दलों ने सबसे ज्यादा टिकिट इसी समुदाय को दिये हैं। हालांकि, यह समुदाय इससे संतुष्ट नहीं है। जाटों ने इस वर्ष अप्रैल में और इसके बाद हाल में पिछले महीने बड़ी बैठकें कर अपना प्रतिनिधित्व और बढ़ाने की माँग उठाई थी। दोनों ही दलों ने इस माँग को मानते हुए पिछली बार के मुकाबले टिकट बढ़ाए भी हैं। दरअसल, यह समुदाय लंबे समय से प्रदेश में एक जाट मुख्यमंत्री का सपना देख रहा है, लेकिन, यह सम्भव नहीं हो पा रहा है।

मुस्लिम समुदाय परम्परागत तौर पर काँग्रेस का ही वोट बैक माना जाता है। भाजपा को मुसमलानों के वोट नहीं के बराबर मिलते हैं। पिछले चुनाव की स्थिति यह थी कि जयपुर के मुस्लिम बाहुल्य बूथों पर पार्टी को दो से चार वोट ही मिल पाए थे। यही कारण है कि इस बार पार्टी ने मुस्लिम समुदाय से पूरी तरह परहेज किया है। पिछली बार वसुंधरा सरकार के मंत्री युनूस खान को टिकट मिल गया था, लेकिन इस बार तो उन्हें भी वंचित कर दिया गया। स्थिति यह तक देखने में आई कि एक प्रत्याशी के बारे में जब यह पता चला कि उसने धर्म के मामले में गलत जानकारी दी है तो उसका टिकट बदल दिया गया। ऐसा अजमेर जिले की मसूदा सीट से अभिषेक सिंह के साथ हुआ। पार्टी को दिये अपने बायोडाटा में उन्होंने खुद को रावत राजपूत बताया था, लेकिन एक सरकारी दस्तावेज में पता चला कि उनकी जाति मेहरात है जो इस इलाके में कन्वर्ट मुस्लिम माने जाते हैं। जानकारी सामने आते ही पार्टी ने टिकट बदल कर वीरेन्द्र कानावत को दे दिया। वहीं, काँग्रेस का मुस्लिम प्रेम लगातार जारी है। पार्टी ने पिछली बार इस समुदाय को 15 टिकट दिये थे। इस बार 14 टिकट दिए हैं।

इसके साथ ही अपने वोट बैंक के हिसाब से टिकट देने की परम्परा इस बार भी कायम है। भाजपा ने अपने कोर वोट बैंक माने जाने वाले राजपूत, वैश्य और ब्राह्मण समुदाय को काँग्रेस के मुकाबले ज्यादा टिकट दिये हैं। इस साल के बजट और इसके बाद की घोषणाओं से मुख्य मंत्री गहलोत ने चुनाव से पहले पूरी काँग्रेस में जान फूंकने का प्रयास किया है। चुनाव में ये घोषणाएं विपक्ष को जवाब देने के काम आ सकती हैं, लेकिन उन्हें विशेष वर्गों की नाराजगी को भी साधना होगा।

दरअसल, राजस्थान में जाति फैक्टर बहुत बड़ा है और यह कई सीटों पर नतीजों को प्रभावित करता है। बात चाहे भारतीय जनता पार्टी (बीजेपी) की हो या फिर काँग्रेस की, दोनों ही दलों ने टिकट देते वक्त जातिगत समीकरण का काफी ध्यान रखा है. जिस सीट पर जिस पार्टी का उम्मीदवार है, वहां उसी वर्ग के उम्मीदवार को तवज्जो दी गई है। विधानसभा चुनाव के एलान से पहले प्रदेश भर में राजपूत, ब्राह्मण, जाट, एससी, एसटी और वैश्य वर्ग के बड़े-बड़े सम्मेलन हुए। टिकटों में ज्यादा हिस्सेदारी पाने के लिए जातिगत गोलबंदी की गई। आइए, जानते हैं भाजपा और काँग्रेस ने किस समाज से कितने उम्मीदवारों को टिकट दिया है।

चुनाव अब दिलचस्प मोड़ पर पहुच गया है। दोनों ही दलों के बागियों ने संघठन के चुनाव रणनीतिकारों के पसीने छुड़ा रखे हैं। 9 नवंबर नाम वापसी की आखिरी तारीख थी। ऐसे में भारतीय जनता पार्टी बागियों की मान-मनोव्वल में जुटी हुई थी। सिरोही पहुंचे भाजपा प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह ने चुनाव की रणनीति को लेकर पूछे गए सवाल पर जवाब देते हुए बताया ”जो पार्टी कार्यकर्ता, नेता नाराज थे, उनमें से ज्यादातर को मना लिया गया है। बहुत कम ऐसे लोग बचे हुए हैं जो नाराज हैं।” हाल ही में भाजपा में शामिल हुए रविन्द्र सिंह भाटी के नाराज होकर चुनाव लड़ने के सवाल का जवाब देते हुए प्रदेश प्रभारी अरुण सिंह ने कहा कि उनसे बात हुई है। वहीं, हाल ही में राज्य में नए जिला बनाए गए सांचोर की सांचोर विधानसभा सीट पर भी भाजपा को विरोध का सामना करना पड़ रहा है। इस सीट पर वर्तमान भाजपा सांसद देव जी पटेल को पार्टी ने अपना उम्मीदवार बनाया है। उन्हें काँग्रेस के सुखराम विश्नोई के सामने मैदान में उतारा है। सुखराम विश्नोई गहलोत सरकार में मंत्री है। वह इलाके के कद्दावर नेता माने जाते हैं। ऐसे में अपनों की बगावत से इस सीट पर भाजपा मुश्किल में पड़ती दिखाई दे रही है। कई बागी नेताओं ने अपना नाम वापस लिया. जिसके बाद कई सीटों पर भाजपा-काँग्रेस में आमने-सामने की टक्कर की स्थिति साफ हो गई है। पार्टी से टिकट नहीं मिलने पर निर्दलीय चुनावी मैदान में उतरने वाले उम्मीदवारों ने पार्टी नेताओं द्वारा मनाने पर अपना हठ त्यागते हुए पार्टी हित की बात की है। अब देखना ये है कि आखिर चुनावी ऊंट किस करवट बैठेगा

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एक चुनाव दूसरे चुनाव के लिए
देश

एक चुनाव दूसरे चुनाव के लिए

 

मतदाता क्या अगली पीढ़ी को यह भरोसा दिलाता है कि वह किसी राजनीतिक पार्टी या उम्मीदवार के पक्ष में वोट देने के अपने फैसले से नागरिक समाज के बनने में सहायक होने की जिम्मेदारी पूरा करेगा, यह एक बड़ा सवाल यहां उठाना चाहते हैं। चुनाव अगले चुनाव के लिए हो रहे हैं, विचारों को चुनावी समाज तक सीमित कर देने के गंभीर नतीजे दिखने लगे हैं। (लेखक)

हम पांच राज्यों छत्तीसगढ़, राजस्थान, मध्यप्रदेश, तेलंगाना और मिजोरम के चुनाव के नतीजे और उसके 2024 के लोकसभा चुनाव पर होने वाले असर को लेकर बातचीत करने की सीमा में बंधे हुए हैं। राज्यों में लड़ाई तीन तरफा हैं। एक तरफ दो राष्ट्रीय स्तर की कही जाने वाली पार्टियां- काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी है तो दूसरी तरफ वे पार्टियां हैं जिन्हें हम राज्य स्तरीय या क्षेत्रीय पार्टिया कहते हैं। लेकिन गणतन्त्र में सत्ता के विकेन्द्रीकरण की जो अवधारणा होती है उस स्वर का प्रतिनिधित्व क्षेत्रीय पार्टियां ही करती है। राष्ट्रीय पार्टियां आखिरकार सत्ता के केन्द्रीकरण के पक्ष में होती है। काँग्रेस और भारतीय जनता पार्टी की केन्द्र में सत्ता के अनुभव से भी यह हासिल होता है।

दूसरी बात कि भारतीय चुनावी राजनीति में यह मान लेना कि राज्यों के चुनाव नतीजे संसद के चुनाव को प्रभावित कर सकते हैं, यह पक्के तौर पर हीं कहा जा सकता है। दिल्ली में आम आदमी पार्टी की राज्य स्तरीय जीत हो सकती है लेकिन दिल्ली में लोकसभा में एक भी सीट पर कामयाब नहीं हो सकती है। ऐसे बहुतेरे उदाहरण हैं। चुनावी लोकतन्त्र के शुरुआती दौर में यह धारणा बनी थी कि किसी उपचुनाव के नतीजे भी संसदीय चुनाव के नतीजों के संकेत दे सकते हैं। मसलन जब चिकमगलूर से इंदिरा गांधी ने लोकसभा के लिए चुनाव जीता तो यह संकेत मिलने लगे थे कि 1977 में बुरी तरह से पराजीत होने वाली इंदिरा गाधी और उनकी पार्टी की 1980 में ही शानदार वापसी हो सकती है। राज्यों के लिए किसी अन्य पार्टी के नेतृत्व के नाम पर मतदान का बहुमत हिस्सा जा सकता है तो वहीं हिस्सा केन्द्र में सत्ता के लिए किसी और पार्टी अथवा नेतृत्व के नाम की तरफ लुढक सकता है। इसका यह अर्थ लगता है कि विचारधारा के स्तर पर पार्टियों में जो दूरियां थी वह सिमटती चली गई है। यानी चुनावी लोकतन्त्र में पार्टियां एक दूसरे की छाया प्रति होती चली गई है और चुनाव नतीजे इस बात पर निर्भर करने लगे हैं कि चुनाव जीतने की तैयारी किसने किस तरह से की है।

चुनाव सुधार

तीसरी बात यह है कि गवर्नेंस का अर्थ मतदाताओं को सत्ता से लालच की संस्कृति विकसित करने की तरफ ले जाना और विचारधारात्मक स्तर पर वर्चस्ववाद को मजबूत करने का एक मिश्रित माध्यम में चुनावी लोकतन्त्र विकसित हुआ है। गरीबी की सबसे ज्यादा बातें होती है लेकिन चुनाव अमीर लड़ते हैं। 95 प्रतिशत से आबादी नागरिक के रुप में चुनाव लड़ने की प्रक्रिया से बाहर हो चुकी है और वह सिर्फ वोट की मशीन का बटन दबाने वाली एक मशीन की तरह हो गई है। इंदिरा गांधी भी गरीबी मिटाने की बात करती थी और नरेन्द्र मोदी भी अस्सी करोड़ लोगों को पांच किलो का थैला अगले पांच वर्षों तक जारी रखने का ऐलान करते नहीं थक रहे हैं। इसके साथ देश को आत्मनिर्भर बनाने का ऐलान पुरपानी भाषा में कितना विरोधाभासी लगता है लेकिन चुनावी लोकतन्त्र की भाषा में यह खासियत के रुप में प्रतिष्ठित हैं।अमीरी और चुनावी लोकतन्त्र का रिश्ता स्थापित हुआ है। अपराध चुनावी लोकतन्त्र में प्रतियोगिता के लिए राजनीतिक पार्टियों के बीच स्वीकार्य हुआ है। मतदाता नागरिक के रुप में कमजोर हुआ है। इसका कोई डाटा या ग्राफिक्स किसी चुनावी नतीजे से नहीं निकलता है। उसकी झलक बस कई तरह की घटनाओं में मिलती है। चुनावी लोकतन्त्र में सबसे ज्यादा बातें धर्म निरपेक्षता की हुई है लेकिन चुनावी प्रतियोगिता में जाति और साम्प्रदायिकता खून की तरह दौड़ती है। संविधान का इस्तेमाल सत्ता और सत्ता पर वर्चस्व रखने वाली विचारधारा की वस्तु बन गई है।

इसे पांच राज्यों के चुनावों के विश्लेषण व उसके नतीजों एवं उसके अगले चुनाव पर असर के बारे में बतौर पृष्ठभूमि लिखने की वजह यह है कि हम किसी एक बुरी राजनीतिक प्रवृति या विकसित की जा रही अलोकतांत्रिक संस्कृति को लेकर एक चुनाव में हार जीत तक अपने विश्लेषण की सीमा को कैद करते जा रहे हैं। पांच राज्यों में चुनाव से राजनीतिक पार्टियों के उम्मीदवार हारेंगे व जीतेंगे।लेकिन क्या इससे राजनीतिक स्तर पर जो चुनावी प्रतियोगिता का ढांचा बन चुका है, उसमें बतौर नागरिक किसी स्तर पर हस्तक्षेप की कोई गुंजाइश दिखती है? पांच राज्यों में यही तय होना है कि पहले से सत्ता को चलाने वाली पार्टियां और नेतृत्व रहेगा व बदल जाएगा। इसे ही मतदाताओं की जीत के रुप में दर्ज किया जाता है। यह बिडम्बना है कि चुनावी युद्ध जीतने की तैयारी राजनीतिक पार्टियां व उसके नेतृत्व द्वारा किया जाता है और उसमें हर वो चीज शामिल होती है जो कि एक हित विरोधी दुश्मन को हराने के लिए जरुरी होने की मान्यता हासिल कर चुका है। यहां तक कि पांच वर्षों के लिए होने वाले चुनाव में बहुमत हासिल करने के बाद भी जरुरी नहीं है कि सत्ता बहुमत हासिल करने वाली पार्टी की ही बनी रह सकती है।

पांच राज्यों के चुनाव को इस नजरिये से देखा जा सकता है कि समाज में और सत्ता के जरिये आर्थिक, सामाजिक और राजनीतिक वर्चस्व के खिलाफ लड़ने की चेतना किस तरह से सक्रिय है और उसे किन रास्तों से भटकाने की कोशिश की जा रही है। चुनाव के नतीजों से समाज में एक नये ढांचे के बनने और सत्ता के भीतर बनने वाले दमनकारी ढांचे पर चोट मारने के लिए किस तरह की उर्जा और सांगठनिक क्षमता हासिल हो रही है, यह पड़ताल महत्वपूर्ण है। लोकतांत्रिक चुनावों के विश्लेषण करने वालों व टिप्पणियों करने वालों के लिए एक बड़ी चुनौती यह है कि वह नागरिक के सशक्तिकरण में किसी चुनाव की भूमिका क्या हो सकती है। चुनाव एक तरह से मतदाताओं का एक नये तरीके से स्वंय पुनर्गठित होने की प्रक्रिया होती है और वह अनुभवजनित होनी चाहिए ताकि मतदाता समूह अपने नागरिकपन और नागरिक समाज को सशक्त कर सके। एक मतदाता के एक वोट की गिनती महज एक में नहीं होती है। वह मतदाता आबादी के बड़े हिस्से का प्रतिनिधि होता है। यानी 18 वर्ष कम उम्र की आबादी का वह किसी चुनाव में मतदाता के रुप में प्रतिनिधित्व करता है और उसे यह भरोसा दिलाने की जिम्मेदारी होती है कि अगली पीढ़ी को बेहतर नागरिकपन की परिस्थितियों के तैयार होने व नागरिक समाज के सुदृढ़ होने में उसका फैसला सहायक होगा। अभी यह स्थिति दिखती है कि राजनीतिक पार्टियां व उसके उम्मीदवार उन मतदाता समुहों को अपने प्रभाव व असर में लेने की हर स्तर पर कोशिश करती है जो महज वोटों की गिनती में सबसे ज्यादा नंबर बनने में सहायक हो सके। चुनावी लोकतन्त्र का सांस्कृतिक रिश्ता नागरिक समाज के लिए बने, यह बड़ी चुनौती समाजिक विश्लेषकों की होनी चाहिए

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चुनावी बॉन्डों में पारदर्शिता
मुद्दा

चुनावी बॉन्डों में पारदर्शिता का सवाल

 

लोकतांत्रिक शासन-प्रणाली में वित्तीय लेन-देन की पारदर्शिता एक अपरिहार्य आवश्यकता है। सबसे अधिक आबादी वाले लोकतंत्र भारत में चुनावी बॉन्ड के माध्यम से 2017 में तथकथित साफ-सुथरे वित्तपोषण की शुरुआत की गयी। लेकिन प्रारम्भ से ही इस व्यवस्था ने एक तीखी बहस छेड़ दी है। यह बहस चुनावी बॉन्डों की गोपनीयता बनाम लोकतांत्रिक पारदर्शिता की है। चुनावी प्रक्रिया में भागीदारी करने वाले विभिन्न राजनीतिक दलों के अपारदर्शी और संदिग्ध लेन-देन को नियंत्रित करने के लिए चुनावी बॉण्ड योजना का सूत्रपात किया गया था। लेकिन अब यह व्यवस्था संदेह के घेरे में आ गयी है और भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा उसकी समीक्षा की जा रही है।

भारत के उच्चतम न्यायालय द्वारा गठित संविधान पीठ के समक्ष प्रस्तुत याचिकाएं चुनावी बॉन्ड योजना (EBS) द्वारा अनुमत “चयनात्मक गोपनीयता” पर प्रश्न उठाती हैं। यह एक गंभीर मुद्दे को सामने लाती हैं कि क्या विशिष्ट व्यक्तियों या कंपनियों की गोपनीयता को अनुच्छेद 19 (1) द्वारा प्रदत्त सामान्य आबादी के सूचना के संवैधानिक अधिकार से अधिक प्राथमिकता दी जानी चाहिए? मुख्य न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ की अध्यक्षता में पांच जजों की संविधान पीठ ने 2 नवंबर, 2023 को चुनावी बॉण्ड की वैधता को चुनौती देने वाली याचिकाओं पर अपना निर्णय सुरक्षित रखा है। इसके साथ ही, इस संविधान पीठ ने एक अंतरिम आदेश जारी करते हुए भारत के चुनाव आयोग को 30 सितंबर, 2023 तक भारत के विभिन्न राजनीतिक दलों द्वारा प्राप्त चंदे का समग्र और विस्तृत विवरण प्रकाशित करने को कहा है। साथ ही, अदालत ने टिप्पणी की है कि प्प्रथमदृष्टया यह योजना ‘गंभीर त्रुटियों’ और ‘अपारदर्शिता’ से ग्रस्त है।

इस पृष्ठभूमि में इस व्यवस्था की समीक्षा करना समीचीन है। भारत में चुनावी बॉण्ड योजना की घोषणा 2017 के बजट के  दौरान तत्कालीन वित्त मंत्री अरुण जेटली द्वारा की गई थी। इसका उद्देश्य राजनीतिक चंदे के लेन-देन में  पारदर्शिता लाना और देश के राजनीतिक वित्तपोषण परिदृश्य को स्वच्छ बनाना था। यह सुधार कॉर्पोरेट चंदे को व्यवस्थित करने और राजनीतिक क्षेत्र में प्रचलित अघोषित, अपारदर्शी वित्तपोषण की समाप्ति पर केंद्रित था।

चुनावी बॉन्ड व्यक्तियों और कंपनियों को यह सुविधा देते हैं कि वे गोपनीय ढंग से भारतीय राजनीतिक दलों को आर्थिक सहायता प्रदान कर सकते हैं। नियंत्रण और विनियमन  सुनिश्चित करने के लिए केवल वे राजनीतिक दल, जिन्होंने हालिया संपन्न राष्ट्रीय चुनावों में कम से कम 1 प्रतिशत मत हासिल किए हैं, इसप्रकार के बॉन्ड्स की प्राप्ति और नकदीकरण के पात्र हैं। 1000 रुपये से लेकर 100 करोड़ रुपये तक के इन बॉन्डों को केवल स्टेट बैंक ऑफ इंडिया की निर्धारित शाखाओं से ही खरीदा जा सकता है। इन्हें खरीदने के लिए बैंक हस्तांतरण या इलेक्ट्रॉनिक भुगतान जैसी पहचान योग्य लेन-देन पद्धतियों का इस्तेमाल करना अनिवार्य है। इसमें दानकर्ताओं की पहचान गुप्त रखी जाती है। राजनीतिक दल 15 दिनों की निश्चित अवधि में बॉन्ड को गोपनीय ढंग से भुना सकते हैं और इस राशि का उपयोग चुनावी प्रचार अभियान आदि में कर सकते हैं। इन चुनावी बॉन्डों की खरीद पर कोई संख्यात्मक सीमा निर्धारित नहीं है तथा इनका व्यक्ति अथवा कम्पनी की आय और अर्जित लाभ से भी कोई समानुपातिक संबंध नहीं है।

पहले ₹20,000 से अधिक के राजनीतिक चंदे के लिए चुनाव आयोग को सूचित करना अनिवार्य था, जो दानदाताओं के लिए आयकर कटौती प्राप्त करने का भी आधार था। हालाँकि, चुनावी बांड की शुरुआत के बाद दानकर्ता अब पिछली प्रकटीकरण आवश्यकताओं से बचते हुए गुमनाम और गोपनीय ढंग से ₹20 करोड़ से लेकर ₹200 करोड़ तक की बड़ी राशि का योगदान कर सकते हैं।

इस विधायी संशोधन ने राजनीतिक दलों को तीन महत्वपूर्ण स्वतंत्रताएँ प्रदान की हैं। पहली, आयकर अधिनियम- 1961 और लोक प्रतिनिधित्व अधिनियम- 1951 के तहत चुनावी बॉन्ड से प्राप्त योगदान की सूचना देने या प्रकाशित करने की अनिवार्यता से मुक्ति। इससे पारदर्शिता न्यूनतम हो गयी है। दूसरी, कंपनी अधिनियम- 2013 के तहत कंपनियों द्वारा राजनीतिक दलों को दिए जाने वाले दान की ऊपरी सीमा की समाप्ति। इससे अनियंत्रित और असीमित वित्तीय सहयोग का मार्ग प्रशस्त हो गया है। तीसरी, विदेशी योगदान विनियमन अधिनियम- 2010 के तहत विदेश से धन प्राप्ति के मामले में राजनीतिक दलों के लिए विशेष छूट का प्रावधान।  इससे राजनीतिक दलों के नीति-निर्माण और निर्णय-प्रक्रिया में बाहरी प्रभाव और अंतरराष्ट्रीय हस्तक्षेप की आशंका बढ़ गई है।

चुनावी बॉन्ड का इरादा राजनीतिक वित्त पोषण को स्वच्छ बनाने का था, लेकिन इसने अनेक आशंकाओं को जन्म दिया है। इस व्यवस्था के आलोचकों के अनुसार गोपनीयता का प्रावधान मुख्यरूप से सत्तारूढ़ दल का हितसाधन करता  है। चुनावी बॉण्ड का जारीकर्ता भारतीय स्टेट बैंक है, जोकि एक सरकारी बैंक है। इससे सरकार द्वारा विपक्षी दलों को चंदा देने वाले दानकर्ता की पहचान की ट्रैकिंग की आशंका बनी रहती है और उसके संभावित उत्पीड़न या बदले की कार्रवाई की चिंताएं करती है। इससे सत्तारूढ़ दल को चुनावी बॉन्डों की प्राप्ति में अवांछित वरीयता, बढ़त और लाभ मिलती है।

एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक राइट्स (एडीआर) नामक याचिकाकर्ता ने तीन बुनियादी आधारों पर चुनावी बॉन्ड योजना की संवैधानिकता को चुनौती दी है:

पहला, जानकारी का अधिकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और भाषण के अधिकार के अंतर्गत आता है, जोकि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 19(1) (a) में वर्णित है। हालांकि, यह योजना चयनात्मक गोपनीयता को प्रश्रय देती है, जिसमें दान प्राप्तकर्ताओं को तो दानकर्ता की जानकारी होती है, लेकिन उसकी पहचान जनता से अप्रकट रहती है।

दूसरा, यह भेदभावपूर्ण है क्योंकि इससे राजनीतिक दल आसानी से विदेशी अनुदान प्राप्त कर सकते  हैं, जबकि मीडिया और गैर-सरकारी संगठनों आदि के लिए सख्त नियमावली और पाबंदियां हैं।

तीसरा, यह व्यवस्था अनुचित प्रभाव, पक्षपात और प्रताड़ना की संभावना को बल देती है, क्योंकि कॉर्पोरेट संगठन बड़े चंदे के जरिए सत्तारूढ़ दलों के साथ अनुकूलता बनाते हुए अपने पक्ष में नीति-निर्माण करा सकते हैं। यह चुनावी बॉन्ड व्यवस्था में अंतर्निहित गोपनीयता की आड़ में सहज संभव है।

भारत के महाधिवक्ता तुषार मेहता द्वारा अदालत में यह कहना कि राजनीतिक वित्तपोषण में दानदाताओं और प्राप्तकर्ताओं के खुलासे को जनता या मतदाता के जानने के अधिकार के रूप में नहीं देखा जा सकता, चिंताजनक और गैर-जिम्मेदाराना है। इसके अलावा, उन्होंने इस बात पर भी जोर दिया कि राजनीतिक दानों की गोपनीयता बनाए रखने के प्रावधान को अनुच्छेद 19(2) में निर्दिष्ट उचित प्रतिबंधों के तहत मूल्यांकित किया जाना चाहिए। उनका यह दृष्टिकोण उन पारदर्शिता मानकों के सर्वथा प्रतिकूल है जो कि एक स्वतंत्र और लोकतांत्रिक मूल्यों के प्रति समर्पित राष्ट्र से अपेक्षित हैं। विडंबनापूर्ण है कि इन्हीं मूल्यों की प्रतिष्ठा के लिए चुनावी बॉन्ड व्यवस्था का सूत्रपात किया गया।

इस व्यवस्था में धनी-मानी लोग निगरानी व्यवस्था से बचते हुए बिचौलियों के माध्यम से अनेक चुनावी बॉन्ड खरीद सकते हैं, और कंपनियाँ इसी उद्देश्य के लिए अपने सहायक उपक्रमों की स्थापना कर सकती हैं। अनियंत्रित, असीमित और अपारदर्शी दान की अनुमति देने वाली यह व्यवस्था प्रत्यक्षतः ताकतवर लोगों को राजनीतिक दलों को प्रभावित करने की सहूलियत देती है। निश्चय ही, यह प्रभाव जनहित की कीमत पर व्यक्तिगत हितसाधन के लिए होगा।

लोकतंत्र के रंगमंच पर, चुनावी बॉन्ड (अज्ञात) दानदाताओं और प्राप्तकर्ताओं के लिए एक मुखौटा बन गए हैं, जिससे मुख्य पात्र – जनता पर्दे के पीछे की हकीकत से वंचित रह जाती है।

इस बहस के पटाक्षेप और राजनीतिक फंडिंग में पारदर्शिता सुनिश्चित करने के लिए चुनावी बॉन्डों के माध्यम से प्राप्त समस्त दान राशि की सूचना चुनाव आयोग और जनता को अनिवार्यतः देने का प्रावधान किया जाना चाहिए।

इसके अलावा, व्यक्तियों या कंपनियों द्वारा चुनावी बॉन्डों की खरीद की एक सीमा तय की जानी चाहिए ताकि किसी भी एक दानदाता के अत्यधिक प्रभाव को नियंत्रित किया जा सके। बॉन्डों की राशि को व्यक्ति अथवा कंपनी द्वारा अर्जित लाभ के 5 % से अधिक नहीं होना चाहिए। पारदर्शिता को और बढ़ावा देने के लिए, बॉन्ड की खरीद और नकदीकरण की निगरानी और तत्काल घोषणा हेतु एक स्वतंत्र नियामक संस्था का गठन भी किया जा सकता है।

दानराशि के उचित उपयोग की जांच के लिए नियंत्रक और महालेखा परीक्षक जैसी संस्था द्वारा राजनीतिक दलों की नियमित लेखा-परीक्षा की व्यवस्था भी की जानी चाहिए। चुनावी चक्रों के अनुसार चुनावी बांडों की प्रतिपूर्ति अवधि को सीमित करना भी अबाध और अपारदर्शी धन प्रवाह को रोक सकता है। चुनावी बांडों के माध्यम से विदेशी फंडिंग को पूर्णतः प्रतिबंधित किया जाना चाहिए ताकि आंतरिक नीति-निर्माण को बाह्य/विदेशी प्रभाव/दबाव से मुक्त रखा जा सके।

निश्चित रूप से चुनावी प्रक्रिया की स्वच्छता और राजनीतिक चंदे की पारदर्शिता का आपस में गहरा संबंध है। चुनाव में लगने वाला काला धन भ्रष्टाचार की जननी है। चुनाव, भ्रष्टाचार और कालेधन का विषैला चक्र है। इसे तोड़ना अति आवश्यक है। इसलिए चुनावों के लिए सार्वजनिक/सरकारी वित्तपोषण के  विकल्प पर भी विचार किया जा सकता है

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राजस्‍थान चुनाव
राजस्थान

चुनावी रण राजस्‍थान का

 

       हर राज्‍य का चुनाव अलग होता है और आमतौर पर राजनीतिक दल विशेषत: भाजपा जैसा तेज तर्रार दल राज्‍य विशेष के इतिहास, भूगोल, संस्‍कृति, जनसांख्यिकी और राजनीतिक माहौल आदि के मद्देनज़र अलग-अलग रणनीति अपनाते देखे जाते हैं किन्तु पाँच राज्‍यों के वर्तमान विधानसभा चुनावों में राजस्‍थान और मध्‍यप्रदेश को लेकर भाजपा की राजनीतिक रणनीतियों में अद्भुत साम्‍य मिलता है। दोनों ही राज्‍यों में भाजपा ने एक ओर जहाँ किसी को मुख्‍यमन्त्री पद का उम्‍मीदवार घोषित नहीं किया है, वहीं दूसरी ओर अपने कुछ सांसदों को भी विधायकी के चुनाव में बतौर उम्‍मीदवार उतारा है। लम्बे समय से राजस्‍थान में भाजपा का नेतृत्‍व करती आ रही और दो बार की भूतपूर्व मुख्‍यमन्त्री वसुंधरा राजे को इस बार के चुनाव में मुख्‍यमन्त्री पद के चेहरे के रूप में पेश न करके भाजपा के शीर्ष नेतृत्‍व ने एक ओर जहाँ राज्‍य भाजपा की अंदरुनी गुटबंदी को कम करने की कोशिश की है, वहीं दूसरी ओर शीर्ष नेतृत्‍व के प्रति बगावती तेवर रखने के लिए राजे को सबक सिखाने का काम भी किया है। टिकट वितरण में भी राजे के नजदीकी लोगों की उपेक्षा ध्‍यातव्‍य है। इसी क्रम में मध्‍यप्रदेश की तरह  राजस्थान में भी अपने छह सांसदों को विधायकी के चुनाव में उतारकर जहाँ उनके सामने आम चुनाव से पहले राज्‍य के विधानसभा चुनाव में अपनी काबिलियत सिद्ध करने का भारी दबाव डाल दिया है, वहीं वैकल्पिक नेतृत्‍व तैयार करने की दिशा में भी कदम बढ़ा दिया है। वैसे राजस्‍थान की तरह  मध्‍यप्रदेश में भी भाजपा द्वारा मुख्‍यमन्त्री पद के लिए किसी चेहरे को पेश नहीं करने के पीछे की मुख्‍य वजह कुछ और है। 20 सालों से मुख्‍यमन्त्री रहे शिवराज सिंह चौहान के प्रति मध्‍यप्रदेश के मतदाताओं में सत्‍ताविरोधी लहर का होना स्‍वाभाविक है और उसी के मद्देनज़र वहाँ चौहान के चेहरे को सामने रखे बिना भाजपा चुनाव लड़ रही है।

     वसुंधरा राजे के साथ भाजपा के शीर्ष नेतृत्‍व की अंदरुनी खींचातानी के बीच उन्‍हें कमजोर करने की मंशा से उनके समर्थक दावेदारों के टिकट काटने और मजबूत स्‍थानीय उम्‍मीदवारों को दरकिनार करके सांसदों को विधायकी के चुनाव में उतारने का  खामियाजा भी भाजपा को उठाना पड़ सकता है। कई जगहों पर भाजपा के घोषित उम्‍मीदवारों के खिलाफ स्‍थानीय भाजपाई ही विद्रोही बनकर निर्दलीय उम्‍मीदवारों के रूप में ताल ठोकते देखे जा सकते हैं। राजे के नजदीकी राजपाल सिंह शेखावट का टिकट काटकर पूर्व केन्द्रीय मन्त्री और जयपुर (ग्रामीण) से सांसद राज्‍यवर्धनसिंह राठौड़ को झोंटवाड़ा विधानसभा से भाजपा द्वारा टिकट दिये जाने को लेकर जमकर बवाल हुआ है। इसी तरह पूर्व मुख्‍यमन्त्री भैरों सिंह शेखावत के दामाद और पांच बार के विधायक नरपत सिंह राजवी की जगह राजसमन्द की सांसद दीया कुमारी को विद्याधर नगर सीट से उम्‍मीदवार बनाना भाजपा के लिए बड़ा सिरदर्द बनता दिख रहा है। देखने वाली बात यह है कि अपने आप को अनुशासित पार्टी कहने वाली भाजपा के चाणक्‍य और गृहमन्त्री अमित शाह इन विद्रोहों पर कैसे और किस हद तक काबू पाते हैं।

     जहाँ तक काँग्रेस की बात है तो मुख्‍यमन्त्री अशोक गहलोत और सचिन पायलट के बीच विगत पाँच वर्षों से जो सत्‍ता संघर्ष चलता आ रहा था, मल्लिकार्जुन खड़गे के अध्‍यक्ष बनने के बाद उस पर विराम लग चुका प्रतीत होता है। गहलोत और पायलट, दोनों को यह बात शायद समझ आ चुकी है कि उनका अहम अंतत: पार्टी के साथ उन्‍हें भी ले डूबेगा और टिकट से वंचित कुछ कांग्रेसी नेताओं के छुटपुट विरोध के अतिरिक्‍त कोई बड़ा विद्रोह नज़र नहीं आता। यद्यपि काँग्रेस ने भी किसी को मुख्‍यमन्त्री पद के चेहरे के तौर पर प्रस्‍तुत नहीं किया है किन्तु अशोक गहलोत अघोषित रूप से काँग्रेस के मुख्‍यमन्त्री उम्‍मीदवार साफ़ नज़र आते हैं। उनके प्रति मतदाताओं में कोई सत्‍ताविरोधी लहर भी दिखाई नहीं देती किन्तु काँग्रेस द्वारा अपने मौजूदा 100 विधायकों में से 67 को पुन: मैदान में उतार देना उसके लिए भारी भी पड़ सकता है। राज्‍य स्‍तर पर गहलोत कुल मिलाकर आज एक सर्वमान्‍य नेता जरूर साबित होते दिख रहे हैं लेकिन उनके कुछ मौजूदा मंत्रि‍यों और विधायकों के प्रति निश्‍चय ही आम जनता में नाराजगी है। 

     राजस्‍थान में काँग्रेस का पूरा चुनाव प्रचार पिछले चुनाव के दौरान किये गये लोककल्‍याणकारी वायदों के सफल क्रियान्‍वयन और इस चुनाव में किये गये इसी प्रकार नये वायदों पर केन्द्रित है। एक ओर किसानों की कर्ज माफी, राज्‍य कर्मचारियों के लिए पुरानी पेंशन की बहाली, 8 रुपये प्रति थाली वाली ग्रामीण इंदिरा रसोई, प्रति माह 100 यूनिट मुफ्त विद्युत, महात्‍मा गाँधी अंग्रेजी माध्‍यम विद्यालय, हर साल 25 लाख रुपये तक का निःशुल्क इलाज उपलब्ध कराने वाली चिरंजीवी स्वास्थ्य बीमा योजना और गरीबों के लिए 500 रुपये में घरेलू गैस सिलेंडर जैसी योजनाओं के बल पर जहाँ काँग्रेस को भरोसा है कि वह चुनावी वैतरणी पार कर लेगी। वहीं दूसरी ओर विकास की राजनीति करने का दावा करने वाली भाजपा कन्‍हैया लाल हत्‍याकांड में काँग्रेस के आतंकियों से सम्बन्ध होने से लेकर रामनवमी और कांवड़ यात्रा पर प्रतिबंध लगाने जैसे भ्रामक और आपत्‍त‍िजनक आरोप लगाकर चुनाव के सांप्रदायीकरण की हर संभव कोशिश कर रही है। इसी सांप्रदायीकरण की एक मजबूत कड़ी है तिजारा विधानसभा क्षेत्र से अलवर के वर्तमान यादव सांसद बाबा बालकनाथ को भाजपा द्वारा खड़ा करना। मुंडे सिर वाले ये भगवाधारी नाथ संप्रदाय के महंत अपने आपको राजस्‍थान का योगी बताते हैं और उत्‍तरप्रदेश के मुख्‍यमन्त्री योगी आदित्‍यनाथ के वुलडोजर राज को मरूप्रदेश में भी लाना चाहते हैं। सनातन धर्म की माला जपने वाले बालकनाथ तिजारा के मेव मुसलमानों को पाकिस्‍तानी बताने और उनके खिलाफ आग उगलने का कोई मौका नहीं चूकते। ध्‍यातव्‍य है कि भाजपा का एक धड़ा इन्‍हें राजस्‍थान के भावी मुख्‍यमन्त्री के तौर पर भी देखता है। 

     जो मुद्दे काँग्रेस को परेशान कर सकते हैं, उनमें से एक मुद्दा है पेपर लीक का मुद्दा। 2019 के बाद से हर साल औसतन तीन परीक्षाओं के प्रश्‍नपत्र राजस्‍थान में लीक हुए हैं जिनके कारण कई बार परीक्षाएँ तक रद्द करनी पड़ी हैं। स्‍वयं पायलट तक चुनाव से पूर्व इसे लेकर अपनी ही सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल चुके हैं। उनका कहना था कि डेढ़ करोड़ लोग इससे प्रभावित हुए हैं और युवा वर्ग का भविष्‍य इसके कारण दांव पर लगा है। अन्‍य मसलों के साथ-साथ पेपर लीक के मसले पर ऐन चुनाव के वक्‍त प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) का इस्‍तेमाल करके काँग्रेस को तंग करने में भी भाजपा पीछे नहीं है। ध्‍यातव्‍य है कि राजस्‍थान के चुनावी समर के बीच ईडी द्वारा 2022 की वरिष्ठ शिक्षक ग्रेड परीक्षा के एक प्रश्‍नपत्र के लीक होने के मामले में प्रदेश काँग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा के जयपुर और सीकर स्थित आवासों और दौसा जिले के महुवा में काँग्रेस उम्‍मीदवार ओम प्रकाश हुडला के होटल पर छापेमारी की गयी है। इसके साथ ही विदेशी मुद्रा उल्लंघन मामले में मुख्‍यमन्त्री गहलोत के पुत्र वैभव गहलोत को समन भेजकर ईडी ने अपने दिल्‍ली मुख्‍यालय बुलाकर पूछताछ की है। चुनावी दंगल में ईडी का राजनीतिक इस्‍तेमाल छत्‍तीसगढ़ की जैसे राजस्‍थान में दिखाई देना विपक्षी भाजपा की हताशा का भी व्‍यंजक माना जा सकता है। केन्द्रीय एजेंसियों के दम पर विपक्षी दलों की सरकारों और उनके नेताओं को प्रताड़‍ित करने की गंदी राजनीति द्वारा चुनाव को प्रभावित करना निश्‍चय ही चिन्ताजनक है।

     भ्रष्‍टाचार के साथ-साथ महिलाओं की सुरक्षा, दलितों के प्रति उत्‍पीड़न और कानून व्‍यवस्‍था के मुद्दों पर भी राजस्‍थान की काँग्रेस सरकार को घेरने की कोशिश भाजपा कर रही है किन्तु इन मसलों पर काँग्रेस भी भाजपा के दोगलेपन को लेकर आक्रामक नज़र आती है। मणिपुर की नस्‍लीय हिंसा पर भाजपा की खामोशी और उत्‍तरप्रदेश में महिलाओं पर होने वाली हिंसा को लेकर काँग्रेस द्वारा सवाल पूछे जाते रहे हैं। इन चुनावों में दलित उत्‍पीड़न वाले मुद्दे पर एक दिलचस्‍प घटनाक्रम घटा है। जहाँ दलित इंजीनियर से मारपीट के आरोपी बाड़ी के अपने पूर्व विधायक गिर्राज सिंह मलिंगा का टिकट काटकर काँग्रेस ने एक मिसाल पेश की है, वहीं उसे बाड़ी से भाजपा ने अपना टिकट देकर विवाद को जन्‍म दे दिया है। काँग्रेस इसे भाजपा के दलित विरोधी चरित्र से जोड़कर प्रचारित कर रही है।   

     तमाम किन्तु परन्तु के बावजूद अशोक गहलोत के नेतृत्‍व में काँग्रेस की लोककल्‍याणकारी नीतियों की अनुगूँज भी जमीनी धरातल पर सुनी जा सकती है। केन्द्र सरकार की योजनाओं के लाभार्थियों को भाजपा के पक्ष में लामबन्द करने की प्रधानमन्त्री मोदी की चाल के जबाव में गहलोत सरकार ने राजस्‍थान में जिस प्रकार समाज के हर जरूरतमन्द तबके के लिए आक्रामक ढंग से विभिन्‍न योजनाएँ शुरु की, उनकी अहमीयत के चर्चे हर गली-मुहल्‍ले में सुने जा सकते हैं। रसोई गैस के सिलेंडर और बिजली के बिलों में दिये जाने वाले अनुदान आदि को लेकर विपक्षी भाजपा चाहे गहलोत के ऊपर सरकारी खजाने की बर्बादी के आरोप लगाती रहे लेकिन गहलोत सरकार की इन योजनाओं की तारीफ़ हर जाति, हर समुदाय और हर धर्म का व्‍यक्ति कर रहा है। इनके जमीनी क्रियान्‍वयन को लेकर जरूर कुछ जगहों पर लोगों में शिकायतें देखी जा सकती हैं और उन्‍हें लेकर प्रशासनिक स्‍तर पर काँग्रेस सरकार को ज्‍यादा चाक-चौबन्द रहना चाहिए था।

     राजस्‍थान की राजनीति शुरु से दो ही दलों के इर्द-गिर्द घूमती रही है। पहले काँग्रेस और जनसंघ के बीच चुनावी टक्‍कर होती थी और जनसंघ के बाद उसका स्‍थान भाजपा ने ले लिया। आज भी स्थिति में कोई ख़ास बदलाव इस राज्‍य में नहीं आया है किन्तु त्रिशंकु विधानसभा की स्थिति में निर्दलयी और छोटे दल निर्णायक भूमिका निभा सकते हैं। तीसरी ताकत के रूप में किसी दल विशेष को तो हम नहीं पाते लेकिन दो-तीन दलों का प्रदर्शन जरूर ग़ौर करने लायक होगा। भाजपा छोड़कर 2018 के पिछले विधानसभा चुनाव से ठीक पहले राष्‍ट्रीय लोकतान्त्रिक पार्टी के नाम से अपना राजनीतिक दल बनाने वाले हनुमान प्रसाद बेनिवाल उस वक्‍त 3 विधानसभा सीटें जीतने में सफल रहे थे और कई सीटों पर उनकी पार्टी खेल बिगाड़ने में भी कामयाब हुई थी। इस बार अपनी पार्टी की चुनावी सम्भावनाओं में बढ़ोतरी के लिए उन्‍होंने दलित नेता चंद्रशेखर आजाद की आजाद समाज पार्टी के साथ गठबन्धन किया है। बसपा पिछले चुनाव में यहाँ 6 सीटें जीतने में सफल हुई थी लेकिन गहलोत के जोड़तोड़ से बसपा के चुनाव चिह्न पर जीते सभी विधायकों के काँग्रेस में शामिल हो जाने से बसपा को जबर्दस्‍त झटका लगा। मनुवादी दक्षिणपन्थी राजनीति के खिलाफ मायावती की विश्‍वसनीयता पर उठते सवालों के बीच इस बार बसपा के लिए शायद राजस्‍थान में अपना पिछला प्रदर्शन दोहराना आसान न हो।

     राजस्‍थान के इन विधानसभा चुनावों में काँग्रेस और भाजपा,  दोनों के लिए वे आदिवासी सबसे बड़ा सिरदर्द साबित होने वाले हैं जिन्‍हें मुख्‍यधारा की ये दोनों राजनीतिक पार्टियाँ नरम चारा समझती रही हैं। पिछले 10 सितम्बर को डूंगरपुर में जिस भारत आदिवासी पार्टी (बीएपी) का गठन किया गया, उसने अनुसूचित जनजातियों के लिए आरक्षित 25 सीटों में से 17 पर और 5 सामान्‍य सीटों पर अपने उम्‍मीदवार खड़े करके दोनों मुख्‍यधारा की पार्टियों में बेचैनी पैदा कर दी है। इस बेचैनी का कारण है दक्षिण राजस्‍थान के आदिवासी बाहुल्‍य क्षेत्रों में इस नयी पार्टी की जबरदस्‍त पकड़ होना। वास्‍तव में गुजरात की भारत ट्राइबल पार्टी (बीटीपी) के टिकट पर पिछले विधानसभा चुनावों में दक्षिण राजस्‍थान से दो विधायक चुने गये थे किन्तु कुछ राजनीतिक मतभेदों के चलते दक्षिण राजस्‍थान के आदिवासियों ने अब अपनी एक अलग पार्टी (बीएपी) बना ली है और ये दोनों विधाय‍क राजकुमार रोत और रामप्रसाद डिंडोर भी इसी में शामिल हो गये हैं। ध्‍यातव्‍य है कि दक्षिण राजस्‍थान में 21 महाविद्यालयों के छात्रसंघ चुनावों में बीटीपी समर्थित भील प्रदेश विद्यार्थी मोर्चा का प्रदर्शन बहुत शानदार रहा था।

     बीएपी जैसी आदिवासी केन्द्रित पार्टी के जन्‍म के साथ-साथ एक और उल्‍लेखनीय बात इस चुनाव में यह है कि गुर्जर-मीणा विवाद से राजस्‍थान अब उबर चुका है। किरोड़ी लाल मीणा और किरोड़ी लाल बैंसला ने आरक्षण को आधार बनाकर जिस प्रकार अपने-अपने समुदायों को आमने-सामने ला दिया था, उससे इन दोनों समुदायों में गहरी खाई पैदा हो गयी थी। समय के साथ अब यह खाई पूरी तरह नहीं तो आंशिक तौर पर पट चुकी है और यही कारण है कि काँग्रेस के गुर्जर नेता सचिन पायलट का एक बड़ा समर्थक वर्ग मीणा मतदाताओं का भी है। किरोड़ी लाल मीणा और किरोड़ी लाल बैंसला, दोनों की भाजपाई पृष्‍ठभूमि भी अब कोई छिपी बात नहीं रह गयी है। जिस पूर्वी राजस्‍थान में ये दोनों समुदाय मुख्‍यत: केन्द्रित हैं, आज वहाँ का मुख्‍य मुद्दा आरक्षण न होकर ईस्‍टर्न राजस्‍थान कैनाल परियोजना बनती जा रही है। अकाल और सूखे से प्रभावित इस इलाके के लोग अब सिंचाई का माकूल प्रबन्धन चाहते हैं। आरक्षण के नाम पर दूसरों की कठपुतली बन आपस में टकराना अब उन्‍हें मंजूर नहीं और यही कारण है कि प्रियंका गाँधी, मल्लिकार्जुन खड़गे और स्‍वयं अशोक गहलोत तक ने अपने भाषणों में इस मुद्दे को पुरजोर ढंग से उठाया है।

     राजस्‍थान की जनता हर पाँच साल के बाद बारी-बारी से भाजपा और काँग्रेस को सरकार चलाने का जो अवसर देती आयी है, उस तीस साल पुराने राजनीतिक ढर्रे पर रोक लगाकर काँग्रेस इस बार सत्‍ता में वापसी के लिए पूरी तरह से लामबन्द नज़र आ रही है। राज्‍य में मतदान एक ही चरण में 25 नवंबर को होना है और अभी तक किसी राजनीतिक दल विशेष के पक्ष में कोई लहर तो नहीं दिख रही लेकिन राज्‍य की सत्‍ताधारी काँग्रेस की लोककल्‍याणकारी योजनाओं की स्‍वीकार्यता स्‍पष्‍ट नज़र आती है। विपक्षी भाजपा आम चुनाव की तर्ज़ पर राज्‍य विधानसभा के इस चुनाव को प्रधानमन्त्री के करिश्‍माई नेतृत्‍व के दम पर जीतने की कोशिश कर रही है जबकि काँग्रेस इसे नरेंद्र मोदी पर केन्द्रित करने से सचेतन बच रही है और उसकी नीति उचित भी है क्‍योंकि राज्‍य का चुनाव राज्‍य स्‍तरीय मुद्दों पर केन्द्रित होना चाहिए। वैसे भी चुनाव का व्‍यक्‍त‍ि केन्द्रित हो जाना लोकतन्त्र के हित में नहीं होता

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