त्रेतायुग के उत्तरार्ध कालीन इतिहास को अपने पन्नो में संजोय हुए बूढ़ी दिवाली के इस पावन महापर्व की सांस्कृतिक व पुरातन गरिमा बनाए हुए यह पर्व उत्तर भारत हिमाचल प्रदेश के देव परम्परा का सबसे प्रमुख पर्व रहा है।
बूढ़ी दिवाली का यह महापर्व मार्गशीर्ष माह के कृष्ण पक्ष की अमावस्या को मनाया जाता है। जगत प्रसिद्ध दिवाली कार्तिक महा कृष्ण पक्ष अमावस्या को मनाई जाने वाली दिवाली को भगवान श्रीरामचन्द्र जी के लंका विजय के उपरान्त अयोध्या आने के उपलक्ष में मनाई जाती है। जबकी मार्गशीर्ष माह के अमावस्या को जो बूढ़ी दिवाली मनाई जाती हैं, वह सतयुग के उत्तरार्ध काल में परम प्रतापी राजा बलि से भगवान वामन द्वारा तीन पग भूमि दान के बहाने सर्वस्व हर लेने के उपलक्ष में मनाई जाती है। तभी तो राजा बलि के प्रशंसा में आमवस्या की रात्रि को “काव” गाए जाते है। उस काल से लेकर आज तक इस परम्परा का निर्वाहन हो रहा है। इसी अमावस्या से (बूढ़ी दिवाली वाले दिन) इतिहास के सबसे बड़े युद्ध महाभारत की शुरूआत हुई थी।
जब राजा बलि को तीसरे पग के निमितार्थ पताल में स्थान दिया गया तो, जो 100 वा यज्ञ शेष रह गया था, उसकी पूर्ति न हो सकी क्योंकि पूर्णाहुति से पहले ही भगवान वामन ने दान में सर्वस्व हर लिया था। अब समस्या उत्पन्न हो गई यजमान के अभाव में यज्ञ की मेधा शक्ती अतृप्त रह गई जिसके फलस्वरुप उस महादिव्य शक्ती ने यज्ञ से बाहर आकर भीमकाय रुप बनाया और अपने साधक को खोजने लगी जब यह सूचना मालूम पड़ी की भगवान वामन ने उन्हें पाताल लोक में सदा के लिये स्थान दे दिया है, तो मेधा शक्ती, उन अन्य दानवों के विनय पर शान्त हुई मेधा शक्ती को कुण्ड मे पुन: स्थापित करना चाहते थे तो आकाश से देख रहे सभी देवता गण अग्नि रुपी उस मेधा शक्ती की रोकने लगे इस पर दोनो पक्षों में घोर युद्ध छिड़ गया था। उसी परम्परा को दोहराता यह महापर्व आज भी उन्हीं सभी इतिहासिक क्षणों को स्मृति-आत्मक करवाता है।
कहीं-कहीं लोकमतानुसार भिन्न भिन्न तरीके से इसकी व्याख्या करते हैं। जैसे एक मत से जो बूढ़ी दिवाली की रात्रि में देरची निकली है और बाद में देवता विशेष की प्रमुख निश्चित स्थान पर अग्नि जलाते हैं उसी अग्नि को लंका दहन का प्रतिरूप माना जाता है और जलती हुई लकडियों को लंका के राजभवन माना जाता है।
हिमाचल प्रदेश का राज्य महापर्व बूढ़ी दिवाली
सम्पूर्ण भारतवर्ष में जहां दिवाली को कार्तिक अमावस्या में मनाते हैं वहीं हिमाचल में बूढ़ी दिवाली को मार्गशीर्ष अमावस्या पर मनाया जाता है। भारतवर्ष विभिन्नताओ का देश है यहाँ कोई न कोई पर्व यहाँ की पुरातन संस्कृति की देन है। हिमाचल में ऐसी ही पुरातन संस्कृति का वहन करती हुई बूढ़ी दिवाली का पर्व है जिसको सतयुग के मध्यकालीन समय में हुए देवासुर संग्राम व राजा बलि के पाताल गमन से उद्धृत किया गया है। हिमाचल के भिन्न भिन्न जिलो के अन्तर्गत मनाई जाने वाली बूढ़ी दिवाली का अपना एक पुरातन इतिहास रहा है। हिमाचल के कुल्लू आउटर सिराज आनी के आराध्य देव शमश्री महादेव के समान में मनाई जाने वाली बूढ़ी दिवाली का भी अपना एक विशिष्ट इतिहास रहा है, जिसके तहत क्षेत्र में व्याधि का फैलना और उससे यहां के लोगो पर संकट पैदा हो गया था, जिस संकट के निवारणार्थ उस काल में शमश्री महादेव को बूढ़ी दिवाली के निमित धोगी नामक ग्राम में पहुंचाया गया था। उसी प्राचीन परम्पराओ का निर्वाहन सदियो से आज भी होता आ रहा है। यहाँ की बूढ़ी दिवाली कृष्ण पक्ष रात्रि में और शुक्ल पक्ष दिन में मनाने का विधान रहा है। पूर्व दिन अमावस्या में महादेव की पूजा हवन इत्यादि धोगी कोठी में ही होता आ रहा है। उसके उपरान्त देरच अग्नि की विशेष मशालों को मन्दिर परिसर में जलाया जाता है। परस्पर उत्साह के चलते अग्नि की मशलो के साथ गायन भी होता है और महादेव को मन्दिर परिसर के रिक्त भू भाग में रथ के साथ लाया जाता है। यहाँ पर विशाल अग्निपुंज को प्रतिष्टित करके प्रचण्ड किया जाता हैं और महादेव के रथ की अग्निपुंज के चारो ओर परिक्रमा करवाई जाती हैं। क्षेत्र के ब्राह्मणों द्वारा काव गाए जाते है। ये काव प्राचीन साँस्कृतिक परम्परा का एक अभिन्न अंग है जिसमें राजा बलि का वर्णन होता है। तदनंतर शमश्री महादेव के रथ को मन्दिर में ले जाया जाता है।
आउटर सिराज आनी कुंईर का वो शिव धाम जहां महाकाल के सम्मान में होता है सदियों पुरानी बूढ़ी दिवाली का निर्वहन
भारत वर्ष में हिमाचल व उत्तराखंड ऐसे दो पहाडी राज्य हैं जहां पर वर्ष भर कोई न कोई पारम्परिक पर्व मनाए जाते रहे हैं। चाहे वो परम्पराए कितनी भी पुरातन काल की क्यों न रही हो, इन सभी प्रकार की परंपराओं का वहन आज भी बडे हर्ष-उल्लास के साथ मनाया जाता है। भारतवर्ष में दीपावली महापर्व को कार्तिक कृष्ण पक्ष मे मनाया जाता है। वहीं देव भूमि हिमाचल में देवताओ के सम्मान में पारम्परिक बूढ़ी दिवाली मनाई जाती हैं। हिमाचल प्रदेश के कुल्लू जिले के तहत आनी उपमण्डल के कुंईर गांव में महाकाल शिव कुंईरी महादेव के सम्मान मे सदियों पुरानी देव संस्कृति की पंरम्परा का वहन आज भी होता है। महाकाल शिव की पुरातन स्थली कुंईर में देवाधिदेव महादेव के सम्मान में आयोजित दो दिवसीय बूढ़ी दिवाली का यह विशेष पर्व पुरातन काल की परम्परा रही है । बूढ़ी दिवाली की प्रथम रात्रि महादेव के रुप को गुप्त आवरणीत विग्रह में पूजा की जाती हैं। रात्रि के समय मन्दिर के बाहर ढोल, नगारों की थाप के चलते महादेव के मन्दिर परिसर मे रिक्त भू भाग पर प्रचण्ड अग्नि को प्रज्वलित किया जाता हैं और सभी लोग प्रज्वलित अग्नि के सामने पारम्परिक लोकनृत्य, और काव गाए जाते हैं। तत्पश्चात क्षेत्रीय लोग बडे उच्च स्वर के साथ प्रज्वलित अग्नि के पास प्राचीन नृत्य करते हैं। इस तरह यह लोकगीत भक्ति सस्वर भजन मन्दिर में पूरी रात्रि चलता रहता है।
इस पर्व के दुसरे दिन पारम्परिक संस्कृति की झलकियां देखने को मिलती हैं। इसमे मूंज घास से एक बहुत लम्बा रस्सा बनाया जाता है। जिसे पौराणिक काल के समुद्र मंथन के वासुकी नाग के लिय मानते हैं। ढोल नगारो की प्रचण्ड थाप के चलते इस रस्से को खिंचा जाता है। तत्पश्चात कुंईरी महादेव कुंईर गांव की परिक्रमा करते हैं और मन्दिर परिसर में देव नृत्य होता है ।
श्रीपटल निरमण्ड में द्वापर युग से हो रहा बूढ़ी दिवाली का वहन
हिमाचल प्रदेश के उत्तर पूर्वी भाग में श्रीखण्ड महादेव प्राचीन रुद्रपीठ के समीपवर्ती क्षेत्र छोटी काशी निरमण्ड में महाभारत काल से बूढ़ी दिवाली को पारम्परिक ढंग से मनाते आ रहे हैं। यहां की दिवाली दो पक्षों (कृष्ण शुक्ल) का मिश्रित रुप हैं। रात्रि को बृहद मशाल जलाई जाती हैं जिसे स्थानीय भाषा मे देरच कहते हैं। तत्पश्चात अग्निपुंज की पूजा करते हैं। राजा बलि की प्रशंसा में काव गाए जाते हैं। श्रीपटल निरमण्ड में बूढ़ी दिवाली के सुअवसर पर समस्त प्रकार के काव गाए जाते हैं। जिसमे देवताओ का आवाह्न, सीता स्वयंवर, श्री राम का वनवास, लंका दहन, महाभारत का उपक्रम व कीचक वध, कौरव पाण्डव का संघर्ष, जयद्रथ वध इत्यादि बहुत से पुरातन सांस्कृतिक काव गाए जाते हैं। दो पक्षो के मध्य देरच की छिना झपटी होती हैं। तदनंतर अग्निपुंज की परिक्रमा होती हैं।
निरमण्ड में बूढ़ी दिवाली के उपलक्ष पर चार दिवसीय स्थानीय मेला लगता हैं। बूढ़ी दिवाली के इस पारम्परिक मेले में ढरोपु देवता को भी आमंत्रित किया जाता है। उम्र के हिसाब से प्रचलित माला नृत्य यहां की दिवाली का सबसे अनूठी परम्परा रही है जिसका वहन आज भी यहां के लोक नृत्य में देखने को मिलता है, लोगों को यह नृत्य नग्न पांव से करना पडता है। बूढ़ी दिवाली के इस मेले मे यहां की प्राचीन साँस्कृतिक परम्परा के अनुसार बांड के साथ नृत्य के साथ होता है। बांड विशेष प्रकार के मूंज घास से बनाया जाता जिसका अग्र भाग सर्प के मुख के सदृश प्रतित होता हैं जो देवासुर संग्राम का प्रतिक माना गया है। फिर बांड का छेदन किया जाता है ।
लेखक ज्योतिषकर्ता संस्कृति संरक्षक हैं|
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