राजनीति

मोदी के जादू के पीछे – ईश्वर सिंह दोस्त

 

  • ईश्वर सिंह दोस्त

 

मोदी मुस्करा रहे हैं और विश्लेषक मशक्कत कर रहे हैं कि आखिर जादू कैसे चला। जादू का असर एकबारगी होता है, मगर उसकी तैयारी लम्बी होती है। राजनीति का सबसे प्रभावी जादू वह होता है, जिसमें जादूगर जनता की आंखों के सामने से उसकी तमाम समस्याओं को गायब कर दे। इस मायने में मोदी इंदिरा गाँधी से भी बड़े जादूगर साबित हुए हैं। मगर यह हुआ कैसे?

चुनावी नतीजों की एक गुत्थी यह है कि मोदी पर लोगों ने इतना भरोसा क्यों जताया। जबकि 2014 के वायदों या अच्छे दिनों का जिक्र तक नहीं आया। रैलियों में मोदी ने विकास शब्द छोड़ दिया। नोटबन्दी और जीएसटी का नाम तक नहीं लिया, जबकि जीएसटी की घोषणा धूम-धमाके से संसद के विशेष सत्र में आधी रात को की गई थी। नोटबन्दी से कालाधन के अलावा आतंकवाद तक सुलझाने का दावा था। हालाँकि भाजपा ने कांग्रेस के पिछले कार्यकालों के विपरीत यह सुनिश्चित किया कि सरकारी योजनाओं के जितने भी लाभार्थी हैं, उनकी सूची बनाकर सरकार नहीं बल्कि भाजपा की ओर से उन तक पहुंचा जाए। फिर भी उज्जवला, गरीब किसानों को छह हजार रूपए जैसी योजनाओं का सीमित असर है।

फिर ऐसा क्या था, जिसने बेरोजगारी, किसानों की दशा जैसे मुद्दों को किनारे कर दिया। वह कौन सी आंधी थी, जो तमाम तथ्यों और तर्कों को बहा ले गई। बहुत से पत्रकारों को और तरह-तरह के मोदी विरोधियों और बुद्धिजीवियों को विश्वास था कि जनता का फैसला मोदी के पिछले पाँच सालों के प्रदर्शन के आधार पर होगा। जिसमें बेरोजगारी की बढ़ती दर, किसानों की बदहाली, औद्योगिक उत्पादन में गिरावट, बैंकों का एनपीए संकट, सार्वजनिक क्षेत्र के संस्थानों का कमजोर होना, अर्थव्यवस्था का मंद होना, सीबीआई, आरबीआई, चुनाव आयोग आदि लोकतांत्रिक संस्थानों की साख का गिरना ही नहीं, आतंकवादी घटनाओं का बढ़ना भी शामिल था। मगर मोदी पहले नेहरू के प्रदर्शन को जनता की अदालत में ले आए। फिर राजीव गाँधी को ले आए। जनता की कसौटी पर कांग्रेस के साठ साल को रखा गया।

जनता के एक बड़े हिस्से ने मोदी की छवि के साथ खुद को एकाकार कर लिया है, जैसे कि वह फिल्मी नायकों के साथ करती थी। चुनाव के बाद रिलीज हुई मोदी की बायोपिक को दर्शक नहीं मिल रहे हैं, क्योंकि मोदी स्वयं एक फिल्म हैं और उसके मुख्य किरदार व पटकथा लेखक हैं। तेईस मई की रात को ही एक वीडियो व्हाट्सएप पर बंटा, जिसमें मोदी फिल्मी अंदाज में विरोधियों से ढिशुम ढिशुम करते हुए उन्हें ठिकाने लगा देते हैं। घर में घुसकर मारते हैं। मोदी की छवि ने मोदी को ढंक लिया है। छवि को एनलार्ज करने और रंगबिरंगा बनाने का हुनर उन्हें और उनकी पार्टी को आ गया है।

क्या जनता ने मोदी को एक ऐसा फाइटर मान लिया है, जो उसकी तरफ से लड़ता है? फिल्मी पर्दे पर हीरो हाल में बैठे दर्शकों की समस्याओं को सुलझाने के लिए नहीं लड़ता। वे ऐसे दुश्मनों से लड़ता है, जो हीरो की हीरोगिरी में अड़ंगा लगाने के कारण खलनायक कहलाते हैं। हीरो का दुश्मन दर्शक का दुश्मन भी बन जाता है।

कई मामलों में मोदी इंदिरा गाँधी के नक्शे कदम पर हैं। उसी तरह की मजबूत नेता की छवि बनाने में सफल हुए हैं। अपनी पार्टी से काफी बड़े हो गए हैं। लोकतांत्रिक प्रकियाओं और मानदंडों को ठेंगे पर रखते हैं। फर्क सिर्फ यह है कि मोदी अपने राजनीतिक विरोधियों पर सड़क की भाषा में प्रहार कर सकते हैं। काफी आक्रामक ढंग से बोलते हैं। तैश में ललकारते हैं। नफरत करते हुए लगते हैं। मखौल उड़ाते हुए लगते हैं।

फर्क यह भी है कि वे इन सारे नकारात्मक संवेगों को राष्ट्रवाद के सावरकरी संस्करण से जोड़ते हुए आक्रामक हिंदू बहुसंख्यकवाद के एक पापुलर आख्यान को घर-घर तक पहुंचाते हैं। विपक्षी सोचते थे कि आडवानी, जोशी के साथ किए बर्ताव से मोदी की लोकप्रियता कम होगी, मगर उससे तो मोदी की निष्ठुर, आक्रामक छवि मजबूत ही हो रही थी। विपक्षियों द्वारा की गई आलोचना भी अनजाने में मोदी की रणनीति में मददगार बन रही थी। यह राजनीतिक विरोधियों पर राजद्रोह के मुकदमों व इंकम टैक्स, सीबीआई छापों के मामलों में भी हुआ।

मगर आज कोई जादूगर अकेला काम नहीं कर सकता। उसे स्टेज चाहिए होता है और बहुत सारी टेक्नोलॉजी। मोदी की संप्रेषण क्षमता में जादू के तत्व तो हैं, मगर उन्हें साकार करने के लिए कुछ और हमेशा चाहिए। उस जादू को मुकम्मल बना रहा है नवउदारवादी पूंजी का संकट, जिसे मोदी जैसे एक महा-जनप्रतिनिधि की जरूरत है, जिस पर कोई सवाल नहीं उठा सके, जिस पर कोई अंकुश न लगा सके। जिसका विरोध हिंदुओं का विरोध हो जाए, और बहुसंख्यकवादी आक्रामकता के जन-मनोविज्ञान के जरिए राष्ट्र का विरोध हो जाए। नीरव मोदी का विरोध या नोटबन्दी का विरोध हो या बैंकों के डूबने का विरोध हो, यह सब राष्ट्र के खिलाफ चला जाए।

इस पूंजी ने मोदी को गोदी या मोदी मीडिया के रूप में जादू की टेक्नोलॉजी उपलब्ध कराई। इस मीडिया ने पत्रकारिता की अब तक की सारी लोकलज्जा को तज कर मोदी कीर्तन किया। यह मीडिया भी आक्रामक ढंग से हमले करता है। अपने बेशर्म आत्मस्वीकार से आलोचकों को निरस्त्र करता जाता है। नफरत, गुस्सा, द्वैष इसके भी भावनात्मक औजार हैं। ध्यान से देखें तो अख़बार चाहे वह भाजपा समर्थक ही क्यों न हों, अब भी काफी संतुलित हैं, मगर अखबारों खासकर उदारवादी अखबारों के असर को व्हाट्सएप व गोदी इलेक्ट्रोनिक मीडिया की जुगलबन्दी ने महत्वहीन बना दिया है। तर्क व तथ्य फीके हैं, व्हाट्सएप की फेक न्यूज चटपटी है, क्योंकि उसमें अल्पसंख्यकों, दलितों, बुद्धिजीवियों आदि को सताने का आनंद मुफ्त मिल रहा है।

सारी दुनिया में नवउदारवाद की आर्थिक नीतियों से पीड़ित लोग कोई ऐसा निशाना ढूंढ रहे हैं, जिस पर अपना गुस्सा, नफरत निकाल सकें। भारत में नवउदारवाद ही भाजपा के साथ मिलकर हिंदू बहुसंख्यक को ऐसे निशाने कृपापूर्वक उपलब्ध करा रहा है। सवर्ण मध्यवर्गीय हिंदू आनंद में ज्यादा हिलोरे मार रहा है, मगर दलित ओबीसी हिंदू भी आगे आकर कह रहा है हमें भी आनंद लेने दो, अपने दुःख-दर्द भूलने दो।

इस टेक्नोलॉजी को पुलवामा या बालाकोट नहीं मिलता तब भी यह काफी सफल रहती। मगर यह जरूर है कि इन घटनाओं ने स्ट्राइक रेट बहुत बढ़ा दिया। जब तक मीडिया, व्हाट्सएप द्वारा छवि निर्माण की इस टेक्नोलॉजी को लोकतांत्रिक रूप से जवाबदेह नहीं बनाया जाता, उसे नए-नए बिंदू मिलते रहेंगे। रिपब्लिक टीवी प्रधान चेहरे के पर्सोना का ही दृश्य-श्रव्य विस्तार है।

जादू की टेक्नोलॉजी का दूसरा पहलू भी है। लिंचिंग, भड़काऊ बयान, फिर लीपापोती, फिर नई लिंचिंग, नए भड़काऊ बयान और फिर लीपापोती जैसे अनुष्ठान लगातार किए गए। वहीं एक वेब-कूफ जनता के निर्माण के लिए ट्रोल गिरोह, आईटी टीम, विजुअल मीडिया और प्रचारकों की सेवाएं ली गईं। इन सबको एक बड़े मैनेजमेंट में बदला गया, जिसके लिए पूंजी की कोई कमी नहीं थी, क्योंकि वे इलेक्टोरल बांड के रूप में तक उपलब्ध है।

मकसद था ध्रुवीकरण का मनोविज्ञान पैदा करना, बहुसंख्या में असुरक्षा बोध पैदा करना, नए खलनायक पैदा करना और उसके सहारे संकीर्णता, नफरत व हिंसा को जायज ठहराते जाना। प्रज्ञा ठाकुर की एंट्री इसी लंबे आर्केस्ट्रा के अंतिम हिस्से में हुई। आरएसएस गलत मान्यताओं को जनबोध में बदल देने के ऐतिहासिक काम में सालों से निष्ठापूर्वक लगी ही हुई है। इसे ही टेक्नोलॉजी व प्रबंधन द्वारा डांडिया जैसे बड़े तमाशे में बदला गया, जिसमें आम जनता को तमाशबीन नहीं बल्कि भागीदार के रूप में खींच कर लाया गया।

इस जादू के रास्ते लोकतंत्र का कोई मूल्य, चुनाव संहिता का कोई प्रावधान नहीं आ सके, इसके लिए केंचुआ या केंद्रीय चुनाव आयोग तत्पर रहा। संस्थानों को पालतू बनाने का प्रबंधन सटीक था। लोगों के मानसिक पर्दे पर बनती छवि विशाल व प्रभावी रूप से बहलाने-फुसलाने और झांसा देने वाली थी। इसलिए यह मानना ठीक नहीं है कि भाजपा का हर वोटर संघी हो गया है या बहुसंख्यकवादी हो गया है। तमाम प्रचार प्रसार के बावजूद यह विचारधारा उसके दिमाग में एक उबाल के बाद के बचे रह गए फेन के रूप में ही है, जो कोई दूसरा प्रभावी आख्यान मिलने पर फिर से सुप्त हो सकती है।

मगर राजनीति में दो धन दो चार नहीं होता। यह जादू तब तक सफल नहीं हो सकता था, जब तक कि विपक्ष भी इसमें सहयोग न करे। विपक्ष की सबसे बड़ी खामी यह रही कि उसके पास विरोध तो था मगर अपनी कोई कहानी नहीं थी। मोदी सरकार की तमाम चूकों, नाकामियों का फुटकर व अलग-अलग मुद्देवार विरोध मोदी-विरोध की कहानी तो बना रहा था, मगर स्वयं मोदी की पटकथा में विरोधियों का किरदार था ही। इस तरह विपक्ष की उपकथा मोदी के बड़े आख्यान में जज्ब होकर रह गई।

राहुल समेत विपक्ष की बड़ी गलती यह थी कि वह तथ्यों व तर्कों के एनजीओनुमा बहकावे में पड़ गया। वह राजनीति का यह बुनियादी उसूल भूल गया कि फंतासी को तर्क कमजोर नहीं करते। डाकूमेंटरी हिट नहीं होती। हिट वह फिल्म होती है, जिसमें मनोरंजन, विरेचन, नाच-गान और प्रभावी संवाद हों। वह भूल गया कि नेहरू में तो साइंटिफिक टेंपर था, मगर उसे पूजने वाली जनता में नहीं। इंदिरा का करिश्मा फंतासी का करिश्मा था, जिसने इंदिरा को एक आधुनिक मिथक में बदल दिया था। अब मोदी एक मिथक बन गए हैं। इस तरह उन्होंने तथ्य व तर्क के असर से खुद को काफी हद तक मुक्त कर लिया है।

मिथक मनोवैज्ञानिक जरूरत को पूरा करने के नाते उपयोगी लगता है, तार्किक भले न हो। राहुल की जितनी भी तारीफ की जाए, मगर इस मोर्चे पर उनके व्यक्तित्व की सीमा उजागर है। तीन विधानसभाओं की जीत ने एक भ्रम बना दिया था कि मोदी जैसे जादूगर का मुकाबला वैसे ही मुद्दों और नारों के आधार पर किया जा सकता है। एक मंजे हुए नेता की तरह वे इस भ्रम के पार न जा सके।

विपक्ष की दूसरी गलती यह है कि वह राष्ट्रवाद का अपना कोई यकीनी विमर्श नहीं पैदा कर सका। किसी भी तरह के राष्ट्रवाद में आत्म त्याग की विषयवस्तु हमेशा अंतर्धारा के रूप में होती है, जो जनता को वास्तविक समस्याओं से ऊपर उठ अपने नायक के गिर्द गोलबंद होने को प्रेरित करती है। जब यह भावना उभार दी जाए, तब आर्थिक दुश्वारियों के तर्क और बेहतर अर्थव्यवस्था के वायदे से उससे पार नहीं पाया जा सकता।

उदारवादी विश्लेषकों को क्या यह पता नहीं है कि आज यूरोपीय संघ वाले अति आधुनिक, सेकुलर देशों तक में राष्ट्रवाद और अस्मिता के विमर्श की वापसी है। मुकाबला इसी बात का है कि राष्ट्रवाद का कौन सा संस्करण ज्यादा लुभाने वाला और यकीनी है। वैसे भी जिन पर वंशवाद या अवसरवाद का आरोप लगा दिया गया हो, वे राष्ट्रवाद के आत्म-त्यागी विमर्श का मुकाबला नहीं कर पाते। राष्ट्रवादी फंतासी के दौर में विपक्ष को आगे राजनीति यदि करनी हो तो अपनी छवि, अपनी कहानी, अपनी फंतासी और अपने वैकल्पिक राष्ट्रवाद के प्रति गंभीर होना होगा।

लेखक वरिष्ठ टिप्पणीकार हैं।

.

Show More

सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x