आवरण कथासाहित्य

पुरातत्ववेत्ता बनना है कि पुलिसवाला

मैं और रवीन्द्र चम्बल के घाट से लौट कर आए  तो देखा डॉ.वाकणकर , किशोर ,अशोक,राममिलन और अजय एक्सप्लोरेशन हेतु फुलान जाने के लिए तैयार खड़े थे । हम दोनों ने जल्दी जल्दी नाश्ता किया और उनके साथ चल पड़े । आकाश में बादल ज़रूर थे लेकिन बारिश थम गई थी । वैसे भी फरवरी की यह बारिश बिन मौसम ही थी । हम लोग पैदल पैदल दंगवाड़ा के लिए  रवाना हो गए ।  रात की बारिश के फलस्वरूप नाले में पानी बढ़ जाने की संभावना को देखते हुए सर हमें दूसरे  रास्ते से ले गए  । इस रास्ते के बारे में हमें कोई जानकारी नहीं थी । हमने सर से कहा तो उन्होंने जवाब दिया ..”भाई ,पुरातत्ववेत्ता एक खोजी की तरह होता है ,उसे हमेशा नए रास्तों की जानकारी होना चाहिए ,जब वह ज़मीन के भीतर रास्ते खोज सकता है तो ज़मीन पर भी रास्ते खोज सकता है , और रास्ते ही नहीं लुप्त हो चुकी नदियाँ और ज़मीन के नीचे दबे हुए पहाड़ भी खोज सकता है । ”

गाँव के बाहरी छोर पर सड़क थी । हम लोग सड़क के किनारे खड़े रहकर बस की राह देखने लगे ।  उन दिनों शहरों में ही बस स्टॉप बहुत कम हुआ करते थे सो गांवों में होना तो बहुत मुश्किल था  । थोड़ी देर में बस आई जिसमें सवार होकर हम लोग नरसिंगा तक गए  । नरसिंगा , दंगवाड़ा से सात किलोमीटर दूर इंगोरिया – गौतमपुरा मार्ग पर स्थित है । वहाँ से पूर्व में लगभग एक किलोमीटर पर है फुलान का टीला । हम लोग पैदल चलते हुए कुछ ही देर में टीले पर  पहुँच गए ।

” चलो सज्जनों शुरू हो जाओ , यहाँ प्राचीन सभ्यता के अवशेष बिखरे पड़े हैं , ढूँढो ,देखें तुम लोगों को क्या क्या मिलता है  ।”  डॉ.वाकणकर ने आदेश दिया । हम लोग किसी खोई हुई वस्तु को ढूँढने की मुद्रा में झुक झुक कर टीले पर अवशेष ढूँढने लगे । निश्चित ही सर भी हमारा साथ दे रहे थे । अचानक अजय की आवाज़ आई ..” सर बैल ,सर बैल ” देखा तो अजय के हाथ में मिटटी का एक टेराकोटा बैल था । रवीन्द्र ने घूरकर अजय की ओर देखा । सर क़रीब आ गए थे । उन्होंने बैल की प्रतिमा को हाथ में लेकर कहा ..”शाब्बास यह पकी हुई मिटटी का टेराकोटा बैल है , और ढूँढो । ”

हम लोगों के हाथ अभी तक कुछ नहीं लगा था और हम लोग निराश हो रहे थे । “ऐसा लगता है यहाँ कुछ नहीं मिलेगा ।” मैंने ठण्डी साँस भरते हुए कहा । सर ने मेरी बात सुन ली और कहा ” देखो भाई , यह मनोविज्ञान का नियम है , यदि आपने सोच लिया कि यहाँ कुछ नहीं मिलेगा तो सामने पड़ी हुई वस्तु भी आपको नहीं दिखाई देगी । घर में ऐसा नहीं होता क्या ,हम किसी चीज़ को किसी निश्चित जगह पर ढूँढते हैं और सोच लेते हैं कि वह वहाँ हो ही नहीं सकती,जबकि वह वस्तु उसी स्थान पर रखी हुई होती है । सो पहले उस वस्तु की इमेज मन में बनाओ और फिर उसे ढूँढना प्रारंभ करो ।” सर की बात सुनकर हम लोगों ने दुगुने उत्साह से वस्तुओं को ढूँढना प्रारंभ कर दिया और आश्चर्य यह कि हमें उन्हीं स्थानों पर वे वस्तुएँ मिलने लगीं जहाँ से होकर हम पहले एक बार जा चुके थे । इस तरह फुलान के उस टीले पर दो घंटे के एक्स्प्लोरेशन में हमें दो टेराकोटा बुल ,स्वास्तिक चिन्हों से युक्त कुछ सिक्के , आहत सिक्के, मिट्टी के बाँट,तथा कुषाण कालीन मिट्टी के मृद्भांड जैसी महत्वपूर्ण वस्तुएँ प्राप्त हुईं ।

सब लोग तन्मयता से टीले पर बिखरे पड़े अवशेष ढूँढने में लगे थे कि अचानक अजय ने सवाल किया “ यार ये मृद्भांड मिट्टी के ही क्यों होते हैं, ताम्बे के या सोने चांदी के क्यों नहीं होते ? “ रवीन्द्र ने ज़ोरदार ठहाका लगाया और कहा “ अरे बेवकूफ ,मृद्भांड हैं तो मिट्टी के ही होंगे ना , मृदा का अर्थ ही मिट्टी होता है , तेरे से इसलिए  कहा था कि सुबह सुबह नहा लिया कर , नहाने की गोली खाने से ऐसा ही होता है । “ अजय बेचारा बगलें झाँकने लगा । “चलो रे सज्जनों । “ इतने में डॉ. वाकणकर की आवाज़ आई “ यह सब अवशेष झोले में रख लो ,चलो अब फुलान गाँव चलते हैं ।“ “गाँव जाकर क्या करेंगे सर ? “ अशोक इतनी ही देर में ऊब गया था । “ अरे चलो तो,  यहाँ गाँव में भी बहुत सुन्दर मन्दिर और मूर्तियाँ हैं ।“ सर ने कहा । अशोक की ऊब का कारण मैं समझ गया था कि उसे  सिगरेट की तलब लगी थी । मैंने धीरे से कहा “ तू चल तो ..तेरे लिए वहाँ भी इंतज़ाम है, किसी भी मन्दिर के पिछ्वाड़े जाकर सर और भगवान की  पीठ पीछे यह बुरा काम कर लेना । “ यह सुनते ही अशोक की ऊब हवा हो गई । सर ने एक बार हमारी ओर देखा, हमें पता था हमारी कानाफूसी में छुपी बात उनकी समझ में नहीं आई है ।

गाँव में प्रवेश से पहले ही बाहर एक चबूतरे पर हमें गणेश की एक दक्षिणावर्त प्रतिमा के दर्शन हुए । दक्षिणावर्त गणेश प्रतिमा अर्थात वह प्रतिमा जिसमें गणेश की सूंड दाहिनी ओर घूमी हुई हो । इसके विपरीत वामावर्त प्रतिमा होती है । “अरे वाह … “ डॉ.वाकणकर ने प्रतिमा देखते ही कहा “ श्री गणेश तो अच्छा हुआ है । “ आगे बढ़ते ही हमें एक और चबूतरे पर नन्दी पर आसीन शिव-पार्वती की प्रतिमा, गरुड़ पर आसीन लक्ष्मी-नारायण की प्रतिमा ,जटाधारी शिव और भैरव की प्रतिमा भी मिली । हालाँकि उनमें से बहुत सारी प्रतिमाएँ खंडित थीं ,किसी के हाथ नहीं थे तो किसी के सर नहीं थे । सर ने बताया “ ध्यान से देखो, यह सब नवीं से ग्यारहवीं शताब्दी की परमार कालीन शिल्प की प्रतिमायें हैं । “ “ मतलब यहाँ परमारों का शासन रहा है ?” अशोक ने पूछा । “ और क्या “ सर ने कहा …“ उनके बहुत से अभिलेख भी यहाँ मिलते हैं । “ इतने में पास के ही एक चबूतरे से अजय ने आवाज़ दी “ सर मेरी समझ में नहीं आ रहा यह किसकी प्रतिमा है ।“ सर के साथ हम लोग भी वहाँ पहुँचे । अजय एक टूटी-फूटी प्रतिमा के सामने खड़ा हुआ अपना सिर खपा रहा था ।

“ देखो ।“ सर ने समझाते हुए कहा “ किसी भी प्रतिमा को पहचानने के लिए  उसके लक्षण देखना ज़रूरी है , जैसे शिव प्रतिमा के लक्षण हैं मस्तक पर चन्द्र,गले में सर्प ,हाथ में त्रिशूल,डमरू इत्यादि । भैरव को भी शिव का रूप माना जाता है लेकिन उनकी प्रतिमा में एक दण्ड उनके हाथ में होता है । उसी तरह विष्णु प्रतिमा में उनके चार हाथ होते हैं  जिनमें शंख,चक्र,गदा और पद्म याने कमल का होना अनिवार्य है । अब इसमें हाथ तो सब टूट गए  हैं लेकिन अन्य लक्षण कमोबेश उपस्थित हैं , जैसे मुकुट है और इस टूटे हुए हाथ की बनावट नीचे की ओर है जिसके नीचे गदा साफ साफ दिखाई दे रही है ,मतलब यह विष्णु की प्रतिमा हो सकती है । “ सर अगर यह गदा भी टूट जाती तो हम इसे कैसे पहचानते ? “ अशोक ने पूछा । “ तो हम प्रतिमा में शंख, चक्र या पद्म को ढूंढते । “ सर ने कहा । “ और सर ये शंख ,चक्र, पद्म भी नहीं होते तो ? “ अशोक ने फिर पूछा । “ तो हम आभूषणों से या मुकुट से  या वस्त्रों से प्रतिमा की पहचान करते “ सर ने कहा । “ और सर प्रतिमा पर आभूषण और वस्त्र भी नहीं होते तो ? “ अशोक ने फिर सवाल दागा ।“

डॉ.वाकणकर हँसने लगे “ तुम ये बताओ यार ,तुम्हें  पुरातत्ववेत्ता बनना है कि पुलिसवाला या वकील ? अरे कुछ भी नहीं रहता तो फिर पत्थर और प्रतिमा में फर्क ही क्या रह जाता । शिल्पकार की छेनी और हथौड़े से उकेरे प्रतिमा के ये लक्षण ही तो पत्थर को प्रतिमा बनाते हैं , फिर लोग उसे भगवान बनाकर उन  मूर्तियों की पूजा करते हैं और उसे गढ़ने वाले शिल्पी को भूल जाते हैं । शिल्पकार का श्रम किसीको याद नहीं रहता ,लोग या तो मूर्ति को याद रखते हैं या पैसा लगाकर उसे बनवाने वाले को । चलो आज का काम खतम …भूख लग रही है वापस चलें । “ हम लोगों ने घड़ी देखी, शाम के चार बजने वाले थे और हम लोगों ने लंच भी नहीं लिया था इसलिए  वापस जाना तो ज़रूरी था । लौटते हुए मैंने जनता का भूख से ध्यान हटाने के लिए एक पहेली बुझवाई  “ मान लो आज से हज़ार साल बाद का दृश्य है जब किसी शिल्पी द्वारा बनाई हुई डॉ. वाकणकर की ऐसी ही भग्न प्रतिमा मिलती है और एक जन कहता है  कि “ यह तो विष्णु की प्रतिमा है “ बताओ वह सच कह रहा है कि झूठ ? किशोर बोला – वह झूठ बोल रहा है । ” मैंने कहा “ नहीं वह सच बोल रहा  है ,जानते नहीं ? डॉ. वाकणकर का पूरा नाम विष्णु श्रीधर वाकणकर है । ”

शरद कोकास
पुरातत्वेत्ता, कवि और कहानीकार

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