मुनादी

स्त्री अकेली नहीं और अलग नहीं

भारत का स्वतन्त्रता संग्राम अपनी चेतना और अपने मनोविज्ञान में कई तरह के न्यायिक अधिकारों के संघर्ष को समाहित किये हुए था। इसलिए  भारत में स्त्री आन्दोलन का इतिहास स्वतन्त्रता संग्राम से अलग नहीं है। भारत का  आजादी का आन्दोलन अपने मूल ढाँचे में  भले पितृ सत्त्तात्मक  रहा हो लेकिन स्त्री अधिकारों की परवाह भी इसी आन्दोलन के दायरे में होती रही। हालांकि अन्य संगठनों ने भी समय समय पर स्त्री अधिकार के  लिए  आवाज उठायी है। सामाजिक सुधार और स्वतन्त्रता आन्दोलन में सक्रिय स्त्री-संघर्ष बीसवीं सदी की शुरुआत में  स्त्री अधिकारों के प्रति भी सजग हुआ। पूरे देश में महिलाएँ विभिन्न स्तरों पर संगठित हुईं और विभिन्न महिला संगठनों ने भी महिलाओं को एकजुट किया।
1908 में हुआ लेडिज कॉंग्रेस का सम्मलेन हो या 1917 में गठित विमेंस इंडियन असोसिएशन जैसे संगठन, ये  इस बात के प्रमाण हैं कि कॉंग्रेस के बाहर भी महिलाओं की सक्रिय भागीदारी कायम थी। हो सकता है स्त्री की इसी एकजुटता को ध्यान में रखकर 1918 में स्त्री-अधिकार के लिए कॉंग्रेस ने एक बैठक बुलाई   और -महिलाओं को मताधिकार दिया जाए – इस आशय का प्रस्ताव पेश किया, मदन मोहन मालवीय के अलावा सभी ने समर्थन किया और प्रस्ताव पारित हो गया। जिस  मताधिकार के लिए पश्चिम की महिलाओं को वर्षों का संघर्ष करना पड़ा वह भारत की महिलाओं को आसानी से हासिल हो गया। मताधिकार मिल जाने का मतलब यह नहीं कि भारत में महिलाओं की स्थिति अच्छी हो गयी। अभी भी भारत में दहेज़ के लिए हत्या, महिलाओं का शोषण, उनके साथ हिंसा और दुर्व्यवहार जारी है।
भारत में आजादी के पूर्व के स्त्री आन्दोलन की एक सीमा यह रही कि उसकी यात्रा हिन्दू विचारधारा के प्रभाव में  हुई। यही कारण था कि रमाबाई जैसी महत्त्वपूर्ण स्त्री नेत्री को हिन्दू धर्म छोड़ना पड़ा। दरअसल हिन्दू धर्म में  स्त्रियों के प्रति एक सामन्ती स्वभाव और स्त्री-स्वतन्त्रता के निषेध के बीज अन्तर्निहित हैं।
विनायक दामोदर सावरकर हों या मदन मोहन मालवीय स्त्री-मुक्ति के सन्दर्भ में उनकी अवधारणा सामन्ती और परम्परावादी ही रही है। सावरकर ने अपनी किताब (सिक्स ग्लोरियस इपोक्स ऑफ़ इण्डियन हिस्ट्री) में शिवाजी द्वारा मुगलों को हराने की चर्चा की है। शिवाजी को इस बात के लिए उन्होंने कोसा है कि मुगल सेना जब भाग गयी तो मुस्लिम महिलाओं को अपने हरम में ले जाने के बजाय शिवाजी ने उन्हें  आदरपूर्वक मुक्त कर दिया। स्त्रियों के प्रति सामन्ती स्वभाव का यह बीज हिन्दू संगठनों में अच्छी  तरह फैला है जो वेलेंटाइन डे पर प्रायः हिंसक तरीके से प्रकट होते रहा है।
दरअसल भारत में आजादी के 70 वर्षों के बाद भी स्त्री विमर्श के सन्दर्भ में  एक सन्तुलित सैद्धान्तिकी का निर्माण नहीं हो पाया है। भारतीय समाज का मर्दवादी दृष्टिकोण स्त्री को देह से ज्यादा कुछ नहीं मानता। यौनाचार के समय  पुरुष अपनी तमाम कोशिशों में अपने पुरुष होने के अहंकार को  ही तुष्ट करना चाहता है। प्रसिद्ध नारीवादी चिन्तक  केट मिलेट ने अपनी पुस्तक ‘सेक्सुअल पॉलिटिक्स’ में भी इस स्थापना को पुष्ट किया  है|  विडम्बना यह कि  भारत की मौजूदा नारीवादी दृष्टि इसी मर्दवाद का विलोम रचना चाहती है।  वह  चाहती है- चौखट से मुक्ति,घर से मुक्ति, प्रदर्शनप्रियता की मुक्ति और देह की भी मुक्ति। दुर्भाग्यपूर्ण तो यह है कि अधिकांश मामलों में स्त्री-पुरुष सम्बन्ध का आधार यौन सम्बन्ध ही होता है। यौनाचार के मामले में जो  स्त्री या पुरुष अक्षम होते हैं,उन पर सम्बन्ध विच्छेद का खतरा मंडराता रहता है। स्त्री-पुरुष सम्बन्ध की यह शारीरिकता एक बड़ा सांस्कृतिक संकट है।
दरअसल अपने यहाँ स्त्री पैदा नहीं होती,वह बनाई जाती है। बचपन से ही लड़के और लड़कियों में अतार्किक भेदभाव किया जाने लगता है| ‘लड़का होकर तुम रो रहे हो?,’ ‘लड़की होकर तुम बाहर  खेलने जाओगी?’ इस तरह की बातें कह कह कर बचपन में ही लड़के को स्वछंदता और   लड़कियों को आँसू थमा दिए जाते हैं।  स्त्रियों और पुरुषों के बीच का यह बंटवारा गलत है।  प्रकृति ने दोनों में जो अन्तर किया है, शारीरिक और मनोवैज्ञानिक स्तर पर सिर्फ  उस अन्तर को ही ध्यान में रखकर मानवीय गरिमा के साथ स्त्री अस्मिता को स्वीकार किया जाना चाहिए।पश्चिम के स्त्री आन्दोलनों  और स्त्री विमर्श से तुलना करते हुए या उससे प्रेरणा लेते हुए  कई बार भारत में भी उसकी दरकार समझी जाती है।
यह सच है कि स्त्री विमर्श एक वैश्विक विचारधारा है,लेकिन दुनिया भर की स्त्रियों का संघर्ष एक जैसा नहीं होता। इसतरह की अपेक्षा अव्यावहारिक इसलिए है कि प्रत्येक देश की अपनी एक सामाजिक संरचना और सांस्कृतिक पृष्ठभूमि होती है।  समकालीन स्त्री विमर्श पुरुषों द्वारा थोपे गये उस यौन शुचिता के आवरण से मुक्त हो चुका है जिसके पीछे लिंगभेद का मर्दवादी दृष्टिकोण और स्त्री देह के दोहन  की अवधारणा है। स्त्री विमर्श  इस अवधारणा  को खारिज कर चुका है,  लेकिन इस विमर्श को अभी और आगे की यात्रा करनी है।  स्त्री विमर्श का वह भारतीय अध्याय  अभी लिखा जाना बाकी है जिसमें स्त्री अस्मिता के साथ घर भी  बचा रहेगा।
.
कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।
Show More

किशन कालजयी

लेखक प्रतिष्ठित साहित्यिक पत्रिका 'संवेद' और लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक 'सबलोग' के सम्पादक हैं। सम्पर्क +918340436365, kishankaljayee@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x