आवरण कथास्त्रीकाल

स्त्रीवाद क्या और क्यों ?

 

  • सुधा सिंह

 

आज जितनी प्रमुखता से स्त्री और स्त्रीवाद का मसला सामने आ रहा है उतनी प्रमुखता से मानव सभ्यता के इतिहास में कभी नहीं आया। आधुनिक काल को स्त्री का सबसे बड़ा पैरोकार समझा जाता है।

 

स्त्रीवाद की कई तरह से परिभाषा देने की कोशिश की गई है। स्त्रीवाद को अलग अलग क्षेत्रों में अलग अलग तरह से देखने की कोशिश की गई है। राजनीतिक प्रकल्प के रूप में स्त्रीवाद विभिन्न राजनीतिक दलों के लिए ,कर्मी सभाओं, शिक्षण संस्थाओं , स्थानीय और राष्ट्रीय प्रशासन के लिए एक प्रतिरोधी एजेण्डा है। प्रतिरोधी एजेण्डा के रूप में ज्यादातर स्त्री के मसलों पर स्त्री अध्ययन केन्द्रों, विभिन्न राजनीतिक संगठनों और उपसंगठनों आदि के जरिए की बात की जाती है। इनमें स्त्रीवाद का मुद्दा मुख्य नहीं होता। स्त्रीवाद के प्रति यह उपेक्षा भाव आजकल की लड़कियों में भी देखा जाता है। ये वो युवा लड़कियाँ हैं जो स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालयों में शिक्षा प्राप्त कर रही हैं, जिन्हें कई सामाजिक अधिकार सरलतापूर्वक बिना किसी संघर्ष के मिल गए हैं, और वे एकल परिवार की संरचना और पारिवारिक आय में तुलनात्मक रूप से वृध्दि के कारण कम भेदभाव का शिकार हुईं हैं। इन्हें भेद-भाव का एहसास सामाजिक संरचानाओं की गंभीर जाँच-पड़ताल के बाद ही हो पाता है। इनके लिए स्त्रीवाद का मतलब है स्त्री की ‘स्वतंत्रता’ , ‘स्त्री की मुक्ति’। स्त्रीवाद से ये अपना सरोकार महसूस नहीं करतीं। हिन्दी में ऐसी कई लेखिकाएँ हैं जो स्त्री के ,शोषण, उत्पीड़न का चित्रण करती हैं लेकिन स्त्री की मुक्ति से अधिक उनका कोई एजेण्डा नहीं है। ये स्त्रीवादी अवधारणाओं और माँगों को सामने लाने का काम नहीं करतीं। यह भी सच है कि स्त्री के प्रश्न दक्षिण अफ्रीका, भारत और यूरोप में एक जैसे नहीं हैं। सामान्य विशेषताओं के अलावा प्रत्येक की अपनी अलग प्रकृति और संरचना है।

स्त्री के सवाल एकरूप सवाल नहीं हैं। इन्हें एकरूप ढंग से नहीं देखा जा सकता। यह कहना कि स्त्रीवाद पुरूषों द्वारा स्त्री के शोषण और स्त्री के मातहतीकरण पर एकमत है और एक जैसे नजरिए से सोचता है , गलत है। सामाजिक संरचनाओं के बरक्स स्त्रीवाद का विकास देखा जाना चाहिए। चाहे उसे पूँजीवाद कहें, पितृसत्ता कहें या लिंगभेद युक्त समाज (सेक्सिएस्ट सोसाइटी) कहें इनके संदर्भ से समाजवादी, परिवर्तनकामी और उदारवादी स्त्रीवाद विकसित हुआ है। इनमें एक समानता है कि ये स्त्री के शोषण को वरीयता देते हैं। लेकिन इनकी सबसे बड़ी कमजोरी है कि ये इस पक्ष पर अपना सारा जोर लगा देते हैं और स्त्री को मनुष्य के रूप में देखने के मुद्दे से इनका ध्यान हट जाता है। नस्लवादी स्त्रीवाद, मनोवैज्ञानिक स्त्रीवाद, उत्तरसंरचनावादी स्त्रीवाद, उत्तरआधुनिकतावादी स्त्रीवाद और अन्य कोटि का स्त्रीवाद स्त्री को नैतिकता और ‘स्त्रियोचित’ गुणों के उच्चतर स्तर पर स्थापित करके मूल्यांकित करता है, ये सभी दृष्टियाँ स्त्री को एक मनुष्य के रूप में देखने से परहेज करती हैं। स्त्री अध्ययन के क्षेत्र में दृष्टियों का बिखराव ‘स्त्रीवादी’ सिध्दान्त को निरंतर और सुपरिचित धारा के रूप में देखने से रोकता है। पर इतना स्पष्ट है कि समाजशास्त्र और मानविकी में अध्ययन की अन्य दृष्टियों से भिन्न स्त्रीवादी अध्ययन दृष्टि ने अपनी कुछ विशेषताएँ निर्मित की हैं। लेकिन केवल जेण्डर ही समाज और मानवीय संबंधों के बीच निर्धारक कारक नहीं है बल्कि जाति, लिंग, वर्ग और अन्य विमर्श जेण्डर के विमर्श से टकराते हैं और कई बार अंतर्विरोधी स्थितियाँ पैदा करते हैं।

स्त्रीवादी सैध्दान्तिकी में ‘जेण्डर’ का विमर्श महत्वपूर्ण कारक तो है ही इसके अलावा ‘पॉवर’ या ‘शक्ति’ अन्य महत्वपूर्ण कारक है। स्त्री को वंचित, अल्पसंख्यक समुदाय के रूप में देखने और स्त्री के लिए बराबर के हक़, अवसर और अधिकारों की मांग के पीछे यह धारणा काम करती है। इसके पीछे पुरूष के पॉवर को देखा जाता है। इसके अलावा आर्थिक पॉवर, सत्ता की ताकत आदि को स्त्री के लिए दमनकारी रूप में देखा जाता है। स्त्रीवाद का एक धड़ा विशेषकर उत्तारसंरचनावादी धड़ा ‘पॉवर’ को एकरेखीय रूप में नहीं देखता। उनका मानना है कि हर हाल में स्त्री वंचित है यह सिध्दान्त गलत है। पॉवर अनिवार्य रूप से कुछ लोगों जैसे पुरूषों, श्वेतों और पूँजीपतियों के पास होता है और कुछ लोगों जैसे स्त्रियों, अश्वेतों और मजदूरों के पास नहीं होता ऐसा मानना पॉवर की यांत्रिक व्याख्या करना है। कोई व्यक्ति या समूह एक संबंध में मातहत हो सकता है और अन्य में दूसरे को मातहत बना सकता है। अश्वेत स्त्रीवाद के अनुभव इसके उदाहरण हैं। उत्तरसंरचनावादी स्त्रीवाद का तर्क है कि समाज को विभाजित रूप में इस प्रकार देखना कि कौन शोषित है कौन शोषक गलत है, क्योंकि यह एक अलग प्रकार की बहस को जन्म देगा कि समाज में सबसे ज्यादा शोषित कौन है ? इसके बजाए यह देखा जाना चाहिए कि मातहत संबंधों की बहुलता का सामाजिक रूप क्या है ? उत्तरसंरचनावाद के साथ जुड़े दो सिध्दान्तों -उत्तरआधुनिकतावाद और विखंडनवाद के अपने अंतर्विरोध हैं।

स्त्रीवाद के अध्ययन के साथ संस्कृति के अध्ययन का भी संबंध जुड़ता है। स्त्री की देह और उसके सामाजिक सांस्कृतिक प्रतिनिधित्व का सवाल महत्वपूर्ण सवाल है। समाज में कैसे स्त्रीवादी और पुंसवादी पहचान निर्मित होती है, स्त्री और पुरूष कैसे बनाए जाते हैं, यह सांस्कृतिक अध्ययन का हिस्सा है। पहचान की कोटि को इस रूप में निर्मित करने में किसका फायदा है ? स्त्रीवाद के सांस्कृतिक अध्ययन में स्त्रीवादी, बुध्दिजीवी, राजनीतिज्ञ, कलाकार और साधारण स्त्रियाँ सभी शामिल हैं क्योंकि यह संघर्ष केवल जनमाध्यमों , कलारूपों आदि के प्रतीकात्मक प्रस्तुतियों के दायरे तक नहीं सिमटा हुआ है बल्कि ज्यादा ठोस रूप में रोजमर्रा के जीवन की सामान्य गतिविधियों, विचारों और अनुभवों में शामिल है। इसमें घरों में काम के बँटवारे से लेकर स्त्री की घर के निर्णयों में भागीदारी, स्वायत्तता, भाषिक व्यवहार, व्यंग्य, गालियाँ, देखने की भंगिमा, घिनौने हमलों चाहे वह विमर्श के स्तर पर हों या ठोस शारीरिक स्तर पर- सभी शामिल हैं। इसमें स्त्रियाँ तो शामिल हैं ही समलैंगिक पुरूष भी शामिल हैं।

जेण्डर पर बहस जारी है, जेण्डर की अवधारणा को रोज चुनौती दी जा रही है उन स्त्रीवादियों की तरफ से भी जो इसे बदलना चाहती हैं और उन रूढ़िवादियों की तरफ से भी जो इसे बनाए रखना चाहते हैं। इस अर्थ में सांस्कृतिक स्त्रीवाद राजनीतिक और अकादमिक बहस में महत्वपूर्ण स्थान रखता है। संस्कृति के क्षेत्र में स्त्रीवादी एजेण्डे के रूप में ‘प्रतीकीकरण’ और ‘प्रतिनिधित्व’ को स्थापित किया गया। इस प्रक्रिया में ‘वैयक्तिकता’ और ‘मैं’ (सेल्फ) की अवधारणा पर महत्वपूर्ण काम हुआ है। स्त्रीवाद के अंतर्गत सांस्कृतिक अध्ययन की एक व्याख्या है कि इसने स्त्रीवादियों को अस्तित्व, अभिव्यक्ति के विभिन्न कलात्मक रूपों की व्याख्या के बौध्दिक कर्म में लगाया है जो लेखकों और विद्वानों और जनता के रोजाना जीवन के बारे में सूचनाएँ देता है। लेकिन स्त्रीवादी सांस्कृतिक अध्ययन का दायरा इतना छोटा नहीं कि यह केवल महत्वपूर्ण और साधारण लोगों के जीवन का रोजनामचा हो। बल्कि इसके दायरे में समाज में मौजूद स्त्री उत्पीड़न का अभ्यासजनित रवैय्या, पोर्नोग्राफी, गर्भपात, पुंसहिंसा, तकनीक और विज्ञान का स्त्री के प्रति रवैय्या सभी शामिल हैं। ये केवल सामाजिक संस्थाएँ और आदतें भर नहीं हैं इनका एक प्रतीकात्मक अर्थ भी है। ये पहचान के निर्माण और पुराने विश्वासों को पकड़े रखने का आधार भी हैं। 

‘जेण्डर’ और ‘पॉवर’ स्त्रीवादी अध्ययन के महत्वपूर्ण घटक हैं। इनकी जटिलताओं को समझे बिना स्त्रीवाद पर बात नहीं की जा सकती। सांस्कृतिक अध्ययन के तहत जेण्डर की सामाजिक निर्मिति और विमर्श आते हैं। वर्तमान समय में जनमाध्यम सांस्कृतिक विमर्श का महत्वपूर्ण हिस्सा हैं। सांस्कृतिक अध्ययन के अनेक रूप प्रचलित हैं जो पापुलर कल्चर से लेकर प्रतिनिधित्व, सामूहिक पहचान जैसे राष्ट्रीय, नस्लीय या जेण्डर अस्मिताओं के रूप में मौजूद हैं। सांस्कृतिक अध्ययन का आधार मार्क्सवादी अध्ययन और वाम राजनीति है और अकादमिक दुनिया के बाहर यह प्रगतिशील राजनीति के साथ जुड़ा हुआ है। स्त्रीवादी माध्यम अध्ययन के लिए महत्वपूर्ण है कि माध्यमों में जो चीज आनंद के उत्पादन की राजनीति के तहत लगातार पेश की जा रही है वह क्या है, इसकी पड़ताल की जाए। लोकप्रिय धारावाहिकों ,नाटकों, महिला पत्रिकाओं और गॉसिप पत्रिकाओं में स्त्री मुक्ति के नाम पर और रोमांस पत्रिकाओं में ‘आनंद की राजनीति’ के नाम पर क्या आ रहा ,किस दृष्टिकोण का निर्माण किया जा रहा है, आनंद के उपभोग में स्त्री की भूमिका क्या है?

स्त्रीवादी अध्ययन का जितना विकास हो रहा है , उसकी स्थापनाओं में अंतर्विरोध भी उतनी ही तेजी से दिखाई दे रहे हैं। धारावाहिकों की लोकप्रियता ने कई तरह के सवाल खड़े किए हैं। उदाहरण के लिए धारावाहिकों की सबसे बड़ी उपभोक्ता स्त्रियाँ हैं। वे जब धारावाहिक देखती हैं, उनके अभिनेता अभिनेत्रियों की जीवनशैली और आदतों की नकल करती हैं, कहानी का आनंद लेती हैं तो जेण्डर अस्मिता की वर्चस्वमूलक संरचनाओं को बनाए रखने के लिए इन धारावाहिकों की आलोचना का नैतिक आधार कमजोर होता है। लोकप्रिय संस्कृति के आनंद और स्त्रीवाद के राजनीतिक उद्देश्यों के बीच का यह तनाव स्त्रीवादी माध्यम अध्ययन की सैध्दान्तिकी के मुख्य अंतर्विरोधों में से एक है। सभी स्त्रीवादी अध्ययन सांस्कृतिक अध्ययन हैं और सभी सांस्कृतिक अध्ययनों में स्त्री अध्ययन शामिल है यह मान लेना किसी भी तरह के स्त्री अध्ययन के लिए घातक है।

लेखिका दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली, में हिन्दी के प्रोफेसर हैं|

सम्पर्क- +919718539322, singhsudha.singh66@gmail.com

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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