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गुजरात में कांग्रेस की नैतिक जीत नहीं हुई है

सैद्धांतिक तौर पर, लोकतंत्र में चुनाव नागरिक को सरकार को चुनने और मार्गदर्शन करने में मदद करता है. ऐसा ही एक चुनाव, अभी-अभी भारत के एक राज्य गुजरात में हुआ है और यह चुनाव हाल के वर्षों में सबसे महत्वपूर्ण चुनाव रहा है. दो मुख्य पार्टियाँ भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस एवं भारतीय जनता पार्टी आमने-सामने थी. भारतीय जनता पार्टी गुजरात में पिछले 22 साल से शासन में चुनी जाती रही है. एक बार फिर भारतीय जनता पार्टी को सरकार चलाने का जनादेश दिया है. इस जनादेश में इस बार भाजपा को 22 साल में सबसे कम 99 सीट मिली हैं और कांग्रेस को 22 साल में सबसे अधिक 81 सीटें. चुनाव के परिणाम के बाद जो सबसे महत्वपूर्ण चीज देखने को मिली है वो यह है कि भाजपा और कांग्रेस दोनों ही जश्न मना रहे हैं. भाजपा जहाँ जीत का जश्न मना रही है, वही कांग्रेस इसे नैतिक जीत तथा भाजपा को 100 सीटों के अन्दर रखते हुए, खुद अधिक सीट पाने का जश्न मना रही है.

बहरहाल, इसे कई तरीके से देखा जा रहा है. लेकिन इस बात को इस तरह देखना भी जरूरी है कि यह चुनाव कांग्रेस हार चुकी है जहाँ हारने की कोई ख़ास वजह दिखती नहीं थी. पिछले 22 साल की सरकार की विरोधी-लहर(anti-incumbe), तीन महत्वपूर्ण सामाजिक आन्दोलन (हार्दिक पटेल, जिग्नेश मेवानी, अल्पेश ठाकोर के नेतृत्व में), मोदी सरकार की आर्थिक नीतियाँ (जीएसटी, विमुद्रीकरण), किसान का कर्ज, उत्पादन के सही दाम न मिलना, ऐसे तमाम फैक्टर भाजपा के खिलाफ थे. लेकिन फिर भी भाजपा गुजरात में चुनाव जीत गयी. कांग्रेस की हार की वजहों में, उसके गुजरात में कमजोर संगठन को भी माना जा रहा है. यह कुछ हद तक सही भी है लेकिन इन सब कारणों के परे, कांग्रेस के नेताओं का जनता से संपर्क टूटना सबसे महत्वपूर्ण है.

कांग्रेस की तरफ से चुनाव जीतने के लिए कर्मण्यता का भी अभाव था. जहाँ भाजपा की तरफ से हर छोटे-बड़े नेता गुजरात की गलियों में धूल फांक रहे थे वहीं कांग्रेस के अधिकतर नेता दिल्ली के ऐशो-आराम से निकलने को तैयार भी नहीं थे. वह इसलिए भी की कांग्रेस में ज्यादातर नेता, वकीलों की जमात से हैं जिनका जनता से कोई सम्पर्क नहीं, हाँ सरकार बनने पर ये लोग मंत्री पद की होड़ में सबसे आगे होते हैं. प्रधानमंत्री मोदी तमाम व्यस्तताओं के वावजूद गुजरात में अकेले 34 बड़ी रैली करते हैं वहीं दूसरी तरफ कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी महज 30 रैली ही कर पाते हैं. मोदी हिमाचल के चुनाव में भी खूब सारी रैली करते हैं लेकिन राहुल गाँधी हिमाचल में चुनाव से पहले ही हार शायद स्वीकार कर लेते हैं. ऐसे कई इलाके गुजरात में रहे हैं जहाँ लोगों ने कांग्रेस को ढूंढ़ा पर कांग्रेस के नेता वहां तक पहुँच नहीं पाए.

भाजपा एक तरफ अपनी सरकार बचाने के लिए सर्वस्व दे रही थी तो दूसरी तरफ कांग्रेस सरकार बनाने के लिए उतनी मेहनत करती दीख नहीं रही थी. राहुल गाँधी को अखिलेश यादव के मुख्यमंत्री बनने से पहले की मेहनत को देखना चाहिए था. अखिलेश यादव ने साइकिल से लगभग हर गाँव-कसबे में जाकर लोगों से सीधा संपर्क बनाया, लोगों में विश्वास पैदा किया. बिहार में तेजस्वी यादव ने भी जन-संपर्क से अपनी साख बनाने में कामयाबी हासिल की है.

राहुल गाँधी को अपने बड़े नेता की छवि से निकलकर जननेता बनने की कवायद शुरू करनी चाहिए. शायद वो भूल गए हैं कि उनकी दादी इंदिरा गाँधी आपातकाल के बाद हाथी पर बैठकर बिहार के बाढ़ प्रभावित बेलछी गाँव पहुँच गयी थी और उस घटना ने इंदिरा को फिर से इंदिरा बना दिया था. राहुल गाँधी की कांग्रेस को दिल्ली से निकलना होगा, लोक-जीवन में रमना होगा, जनता के साथ जुड़ना होगा, मेहनत करनी होगी, बार-बार पहुँचने से जनता में विश्वास पैदा होगा और जनता राहुल गाँधी और कांग्रेस को अपने आस-पास महसूस करने लगेगी. राज्यों के, कस्बों के, गांवों के स्थानीय मुद्दे समझने होंगे. अभी उनके भाषणों में राष्ट्रीय मुद्दे ज्यादा झलकते हैं. दूसरी महत्वपूर्ण बात, कांग्रेस की राजनीति है. भाजपा की राजनीति के उलट कांग्रेस की राजनीति गुजरात में अलग नहीं हो पायी. हिंदुत्व के मुद्दे पर कांग्रेस डिफेंसिव दीख रही थी. चाहे कुछ भी हो कांग्रेस को समग्र, सहिष्णु, धर्म-निरपेक्ष राजनीति के साथ ही आगे बढ़ना चाहिए. गुजरात में मंदिर जाकर आशीर्वाद पाना सही भी था तो राहुल गाँधी को मस्जिद या मजारों पर भी जाना चाहिए था. सांप्रदायिक राजनीति का तोड़ सांप्रदायिक राजनीति के द्वारा कतई संभव नहीं है. भ्रम को भ्रम से तोड़ा ही नहीं जा सकता.

                         भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू के लिए हिन्दुत्व की राजनीति करना सबसे आसान था वो भी तब, जब यह देश हिन्दू-मुसलमान के आधार पर बाँट चुका था. लेकिन नेहरू ने उस राजनीति के बदले भारत को संवैधानिक गणतंत्र और धर्मनिरपेक्ष राष्ट्र बनाया. राहुल गाँधी को कांग्रेस की मूल विचारधारा के साथ खड़े रहना चाहिए. इस देश को इस राजनीति ने खड़ा किया है. गुजरात चुनाव राहुल गाँधी और कांग्रेस के लिए एक सबक है. उन्हें जनता के बीच चुनाव में नहीं बल्कि हर हमेशा उपलब्ध रहना होगा, संपर्क साधना होगा यह काम वकीलों से नहीं बल्कि जननेता से ही हो सकता है. बहरहाल, कांग्रेस चुनाव हार चुकी है, नैतिक जीत तब होती जब कांग्रेस अपने मूल विचार के साथ समझौता नहीं करती.

डॉ. दीपक भास्कर

लेखक दौलतराम कॉलेज, दिल्ली विश्वविद्यालय में राजनीतिशास्त्र के सहायक प्रोफ़ेसर हैं.

deepakbhaskar85@gmail.com

 

ये लेखक के निजी विचार हैं.

 

 

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