यह अराजक एकध्रुवीयता
जनता पार्टी से अलग होकर जो भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) अस्तित्व में आयी दरअसल उसकी बुनियाद 11 अक्टूबर 1951 में ही भारतीय जनसंघ के रूप में पड़ चुकी थी| श्यामा प्रसाद मुखर्जी जवाहर लाल नेहरू के पाश्च्यात्य प्रेम को पसन्द नहीं करते थे| यद्यपि सरदार वल्लभ भाई पटेल के अनुरोध पर मुखर्जी पहले मन्त्रीमण्डल में उद्योग मन्त्री बने लेकिन उनकी महत्त्वाकांक्षा हिन्दू हितों की परवाह करने वाले एक ऐसे राजनीतिक दल बनाने की थी जो भारतीय विचारों पर आधारित हो| अपने हिन्दू राष्ट्रवादी विचारों के कारण भी समकक्षी नेताओं से उनका मतभेद बना रहता था| अन्ततः उन्होंने मन्त्रीमण्डल से इस्तीफा दे दिया|
फिर उन्होंने राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के दीनदयाल उपाध्याय,सुन्दर सिंह भण्डारी,कुशाभाई ठाकरे और भाई महावीर के सहयोग से भारतीय जनसंघ की स्थापना की| 1974 के राष्ट्रव्यापी आन्दोलन के बाद लोकनायक जयप्रकाश नारायण की पहल पर बनी जनता पार्टी में भारतीय जनसंघ का विलय हुआ,लेकिन मोरारजी देशाई के नेतृत्व में जनता पार्टी की सरकार ज्यादा दिनों तक नहीं चली|आखिरकार 6 अप्रैल 1980 को भारतीय जनसंघ ने जनता पार्टी से अलग होकर भारतीय जनता पार्टी बना ली|
तब से भाजपा ने अपनी यात्रा अनवरत जारी रखी है| आठवीं लोक सभा (1984) में भाजपा के मात्र दो सांसद थे और सोलहवीं लोक सभा (2014) तक आते आते संसद में अपार बहुमत के साथ उसके 282 सांसद हैं और देश की 70 प्रतिशत संसदीय आबादी पर उसकी हुकूमत है। इस छोटी सी अवधि में भाजपा सिर्फ देश का ही नहीं बल्कि प्राथमिक सदस्यता के मामले में दुनिया का भी सबसे बड़ा दल है तो इसलिए कि तारीखी गणना में भले भाजपा 38 वर्षों की हो लेकिन भारतीय मानस में उसकी उपस्थिति आजादी के पहले से है और भाजपा ने इस उपस्थिति का भरपूर राजनीतिक दोहन किया है|
भारत जब कॉंग्रेसी शासन के दौर से गुजर रहा था,तब देश के 25 राज्यों में से 15 राज्यों में कॉंग्रेस की सरकार थी, आज 29 राज्यों में से 21 राज्यों में भाजपा की या भाजपा समर्थित पार्टी की सरकार है। हालाँकि इस तथ्य का दूसरा पहलू यह भी है कि देश की कुल 4139 विधान सभा सीटों में से 1516 सीटें( करीब 37प्रतिशत) ही भाजपा के पास हैं।सिक्किम,मिजोरम और तमिलनाडु के विधान सभा में तो भाजपा की एक भी सीट नहीं है। केरल,पंजाब,पश्चिम बंगाल,तेलांगना, दिल्ली, उड़ीसा,आन्ध्र प्रदेश और नागालैण्ड के कुल 1241 विधान सभा सीटों में से भाजपा के पास मात्र 46 सीटें हैं। इसका मतलब यह है कि देश के संसदीय क्षेत्रों पर भाजपा का जो वर्चस्व है वह विधान सभा क्षेत्रों पर नहीं है।
बावजूद इसके इन आँकड़ों से यह आशय निकालना अनुचित नहीं होगा कि राजनीतिक एकध्रुवीयता के सन्दर्भ में भाजपा ने काँग्रेस को काफी पीछे छोड़ दिया है| भले ही इन्दिरा गाँधी की तरह नरेन्द्र मोदी ने आपातकाल की घोषणा नहीं करवायी हो लेकिन देश एक अघोषित आपातकाल को झेल रहा है| खबर है कि पिछले तीन वर्षों में 147 न्यूज़ चैनलों के लाइसेंस रद्द किये गए|न्यूज़ चैनलों को बंद कराना कौन सा रचनात्मक कार्य है? जिनके पास चैनल का लाइसेंस बचा हुआ है,उनमें से अधिकांश (लगभग सभी) रीढ़विहीन हो गये हैं,इसमें कोई धोखा नहीं हुआ है सचमुच वे सजदे में हैं|
पार्टी के भीतर और पार्टी के बाहर जो भी राजनीतिक विरोधी हैं उन्हें झुकने के लिए विवश किया जा रहा है और जो झुकने को तैयार नहीं हैं उन्हें ठिकाने लगाया जा रहा है| राजनीतिक विरोधियों को ख़त्म करने के लिए इन्दिरा गाँधी बहुत बदनाम थीं,इस मामले में नरेन्द्र मोदी भी कम क्रूर नहीं हैं| वैसे भाजपा में नेतृत्व से बगावत करने वालों की खैर पहले भी नहीं थी लेकिन मोदी के शासन काल में यह प्रताड़ना और बढ़ गयी है| कल्याण सिंह, उमा भारती ( हालाँकि इन दोनों ने वापसी कर ली है,लेकिन इन्हें पुरानी जगह नहीं मिली),शंकर सिंह वाघेला,यशवंत सिंह,यशवंत सिन्हा,अरुण शौरी और शत्रुघ्न सिन्हा जैसे बहुत नाम हैं जिन्हें नेतृत्व से असहमत होने की कीमत चुकानी पड़ी है|
दुखद आश्चर्य तो यह कि जिस लालकृष्ण आडवाणी ने रथयात्रा निकाल कर राम मन्दिर आन्दोलन को तेज किया और भाजपा के लिए अनुकूल राजनीतिक परिवेश बनाया उस आडवाणी को भी नहीं बख्शा गया, उनकी खता सिर्फ इतनी थी कि मोहम्मद अली जिन्ना के मजार पर जाकर उन्होंने जिन्ना को सेकुलर कहा था| इस देश में अभिव्यक्ति के अधिकार का कानून भले बना हो लेकिन जमीनी हकीकत कुछ और है| जब देश के बड़े बड़े नेता अपनी ही पार्टी में अपने मन की बात नहीं कर सकते तो वह पार्टी देश में कैसा लोकतन्त्र बनाएगी?
यह राजनीतिक एकध्रुवीयता भले भाजपा के पक्ष में हो और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की कल्पना के हिन्दू राष्ट्र के करीब हो लेकिन यह भारतीय समाज और भारतीय लोकतन्त्र के लिए बेहद खतरनाक है| यह सच है कि भाजपा ने यह उपलब्धि संविधान सम्मत चुनावी प्रक्रिया के द्वारा हासिल की है,इसलिए यह अवैध नहीं है| लेकिन इसके लिए भाजपा ने जो धार्मिक और साम्प्रदायिक गोलबन्दी की है वह कहीं से नैतिक और सामाजिक नहीं है| इससे बड़ा सामजिक संकट और क्या हो सकता है कि इस देश के लोकतन्त्र को अराजक और हिंसक भीड़ ने अपने कब्जे में ले लिया है|कोई भीड़ किसी को भी कहीं अपना शिकार बना लेती है और इसपर शासन की चुप्पी से लगता है कि यह शिकार शासन की सहमति से हो रहा है|
दरअसल लोकतंत्र में सत्ता पक्ष से ज्यादा विपक्ष की भूमिका इसलिए होती है कि वह सत्ता की मनमानियों पर रोक लगाने की कोशिश करता है| मौजूदा समय का यह दुर्भाग्य है कि विपक्ष पूरी तरह से मृतप्राय हो गया है| सवाल है कि इसके समाधान की दिशा क्या हो ? एक ओर जहाँ विपक्ष द्वारा नकारात्मक नहीं , सकारात्मक विरोध और विकल्प की आवश्यकता है वहीं धार्मिकता के सर्जनात्मक आयाम पर भी ऐसे विमर्श की जरुरत है जो धर्म को हथकंडा बनने से रोके| इस विमर्श में सभी सम्प्रदाय की धार्मिक कट्टरता को निस्तेज करने का मुद्दा भी होना चाहिए| आम तौर पर हम बहुसंख्यक की धार्मिक कट्टरता पर तो चोट करते हैं लेकिन अल्पसंख्यकों की धार्मिक कट्टरता पर चुप रह जाते हैं| यही चुप्पी बहुसंख्यकों के उन्माद के लिए खाद पानी का काम करती है|
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