चर्चा मेंसमाजस्त्रीकाल

हाशिए की स्त्री का संघर्ष-बेबी हालदार

जिस उम्र में  निम्नवर्गीय परिवार की बेबी ब्याह का मतलब भी नहीं जानती थी, उसे उसकी सौतेली मां और  पिता ने तकरीबन दुगनी उम्र के आदमी के साथ बांध दिया। पति के हाथों निरंतर प्रताड़ित और उपेक्षित बेबी  अंततः अपना रास्ता खुद तलाशते हुए अपने तीन बच्चों के साथ एक अनजाने शहर के लिए निकल पड़ी। घरेलू सेविका के रूप में काम करते हुए कथाकार प्रबोध कुमार और अशोक सकसेरिया की प्रेरणा से अल्पशिक्षित बेबी ने अपनी आत्मकथा लिखी। पति से अलग रहनेवाली कामगार स्त्री के संघर्ष को बेबी ने अपनी सहज भाषा में बड़ी मासूमियत से बयां किया है।

–गीता दूबे


 

मैं सोचती, मेरा स्वामी मेरे साथ नहीं है तो क्या मैं कहीं घूम फिर भी नहीं सकती ! और फिर उसका साथ में रहना भी तो न रहने जैसा है ! उसके साथ रहकर भी क्या मुझे शांति मिली ! उसके साथ होते हुए भी पाड़े के लोगों की क्या-क्या बातें मैंने नहीं सुनीं ! जब उसी ने उन बातों को लेकर उनसे कभी कुछ नहीं कहा तो मैं आंख-मुंह बंद किए चुप न रह जाती तो क्या करती !

जब मेरे स्वामी के सामने वहां के लोगों के मुंह बंद नहीं होते थे तो यहां तो बच्चों को लेकर मैं अकेली थी ! यहां तो वैसी बातें और भी सुननी पड़तीं। मैं काम पर आती-जाती तो आस-पास के लोग एक-दूसरे को बताते कि इस लड़की का स्वामी यहां नहीं रहता है, यह अकेली ही भाड़े के घर में बच्चों के साथ रहती है। दूसरे लोग यह सुनकर मुझसे छेड़खानी करना चाहते। वे मुझसे बातें करने की चेष्टा करते और पानी पीने के बहाने मेरे घर  आ जाते। मैं अपने लड़के से उन्हें पानी पिलाने को कह कोई बहाना बना बाहर निकल आती।‌ इसी तरह मैं जब बच्चों को साथ कहीं जा रही होती तो लोग जबरदस्ती न जाने कितनी तरह की बातें करते, कितनी सीटियां मारते, कितने ताने मारते !‌ लेकिन मुझ पर कोई फर्क नहीं पड़ता। मैं उनसे बचकर निकल जाती। तातुश के यहां जब पहुंचती और वह बताते कि उनके किसी बंधु ने उनसे फिर मेरी पढ़ाई-लिखाई के बारे में पूछा है तो खुशी में मैं वह सब भूल जाती जो रास्ते में मेरे साथ घटता। तातुश के कुछ बंधु कोलकाता ‌और दिल्ली में थे जिन्हें ‌वह मेरे पढ़ने-लिखने के बारे में बताते रहते थे। वे लोग  भी चिट्ठियां लिखकर या फोन‌ पर‌ तातुश से मेरे संबंध में जब-तब पूछते रहते थे।

एक दिन मैं घर में बैठी अपने‌ बच्चों से बातें कर रही थी कि तभी मकान मालिक का बड़ा लड़का‌ आकर दरवाजे‌ पर खड़ा हो गया। मैंने उससे बैठने को‌ कहा। बस, वह बैठा तो उठने का नाम ही न‌ ले ! उसने बातें चालू की तो लगा‌ वे कभी खत्म नहीं होंगी। उसकी बातें ऐसी थीं कि जवाब देने‌ में मुझे शर्म आ रही थी।‌ मैं उससे वहां से चले जाने‌ को‌ भी नहीं कह पा रही थी और स्वयं भी बाहर नहीं जा सकती थी क्योंकि वह दरवाजे पर ऐसे बैठा था कि उसकी बगल से निकला नहीं जा सकता था।‌ मैं‌ समझ रही थी कि वह क्या कहना चाह रहा है। ऐसे में उसकी बातों को अनसुना न करती तो क्या करती ! मैंने सोचा अब मेरा भला इसी में है कि इस घर को भी जल्दी से जल्दी छोड़ दूं। उसकी बातों से यह साफ हो गया कि मैं यदि उसके कहने पर चलूंगी तब तो उस घर में रह सकूंगी, नहीं तो नहीं। मैंने सोचा यह क्या इतना सहज हैं ! घर में कोई मर्द नहीं है तो क्या इसी से मुझे हर किसी की कोई भी बात माननी ‌होगी ! मैं कल ही कहीं‌ और घर ढूंढ़ लूंगी।

मैं अपने काम पर जाती रही और साथ ही साथ घर भी ढूंढती रही।‌ एक दिन ‌काम पर से मैं लौट रही थी तो देखा कि मेरे बच्चे रोते-रोते दौड़ते चले आ रहे हैं। मेरे पास आ वे बोले, मम्मी, मम्मी, जल्दी चलो, हमारा घर उन्होंने तोड़ दिया। बच्चों की बात से मैं चौंक पड़ी कि यह क्या हो गया ! मैंने कहा, चलो, चलकर देखती हूं। वहां पहुंचकर देखा कि सचमुच ही घर का सारा सामान बाहर बिखरा पड़ा है।‌वह सब देख मैं सिर पकड़कर बैठ गई और सोचने लगी कि बच्चों को‌ लेकर अब मैं कहां जाऊं ! इतनी जल्दी दूसरा घर भी कहां मिलेगा ! बच्चों को अपने पास बिठाए मैं रोने लगी।

उन्होंने सिर्फ मेरा ही घर नहीं तोड़ा था, आस-पास के जो और  घर थे उन्हें भी तोड़ डाला था। लेकिन उन घरों में कोई न कोई मर्द- बड़ा लड़का, स्वामी जरूर था जबकि मेरे यहां होते हुए भी कोई नहीं था।‌ इसीलिए मेरा सामान अभी तक उसी तरह बिखरा पड़ा था जबकि दूसरे घरों के लोग अपना सामान एक जगह सहेजकर नया घर खोजने ‌निकल गये थे। हमें छोड़ वहां बस कुछ ही लोग और बचे ‌थे। वे इसलिए रुक गये थे क्योंकि मेरे बच्चों से उन्हें मोह था और घर की वैसी हालत में वे‌ उन्हें अकेले नहीं छोड़ना चाहते थे‌। मैं रो रही थी और मुझे रोते ‌देखकर मेरे बच्चे भी रोने लगे‌ थे। ऐसे समय में मेरी मदद को ‌सामने आने वाला मेरा अपना कोई नहीं था। पास ही मेरे दो -दो भाई रहते थे। उन्हें मालूम था कि मैं कहां रहती हूं।‌ उन्हें यह भी मालूम था कि वहां के सभी घर तोड़ दिए ‌गये हैं। फिर भी वे मेरी खोज-खबर लेने‌ नहीं आए ! मैंने सोचा, मां होती तो देखती मैं आज किस हाल में हूं ! पता नहीं मेरे भाग्य में अभी और कितना कष्ट और कितना दुःख भोगना लिखा है।

उस दिन फिर कहीं घर खोजना-खाजना नहीं हुआ। रात सात-आठ बजे भोलदा आया।‌वह मुसलमान था और पास ही में रहता था। उसका घर भी तोड़ दिया गया था। वह हमलोगों‌ की ही तरफ का रहने वाला था और मेरे भाइयों और मेरे बाबा को भी जानता था। मेरे बच्चों से उसे बहुत लगाव था।‌भोलादा ने कहा, इस तरह बच्चों के साथ रात में तुम अकेली कैसे रहोगी ? इतना कहकर वह वहीं हम लोगों के पास बैठ गया। उस हालत में क्या किसी को नींद आ सकती थी ! उस खुली, गंदी जगह में हम सबने ओस में वह रात किसी तरह काट दी।सबेरे भोलादा ने कहा, तुम जहां काम करती हो वहां के साहब से बात करके देखो न ! मैंने सोचा, ठीक ही तो कह रहा है।‌तातुश ने तो पहले ही कहा था कि रहने के लिए वह मुझे जगह भी दे सकते हैं, एक बार बात करके देख ही लूं ‌! मैंने उससे कहा, भोलादा, तुम्हीं एक बार चलकर उनसे बात कर लो न ! मेरी तो कहने की हिम्मत नहीं होती। भोलादा बोला, तो फिर चलो। मैं उसे लेकर चली आई। वह बाहर ही खड़ा रहा और मैं भीतर गई। देखा तो तातुश अखबार पढ़ रहे हैं। मुझे देखते ही वह बोले, क्या बात है, बेबी ? रोज तो तुम ऐसी नहीं दिखती ! तुम्हारा मुंह ऐसा सूखा-सूखा सा क्यों है ? मैंने उन्हें सारी बातें बता दीं कि कैसे हम लोगों के घर बुलडोजर से तोड़ डाले गये और कैसे सारी रात मुझे बच्चों के साथ ओस में पड़े रहना पड़ा। मैंने उनसे कहा, मेरे साथ मेरी जान-पहचान का एक आदमी आया है, आपसे बातें करना चाहता है। मेरी बात सुन तातुश फौरन बाहर गए और भोलादा से बातें कर मेरे पास आए और बोले, तो तुम रात को ही क्यों नहीं चली आईं ? बच्चों को लेकर रात भर बाहर क्यों रही ? तुम्हें रात में ही चले आना था। ख़ैर, अब बताओ कब आ रही हो ?‌ मैंने कहा, आप जब कहेंगे। तातुश बोले, अभी आ सकोगी ? मैं राजी हो गई और घर जाकर एक ‌रिक्शे में अपना सामान लाद बच्चों के साथ आ गई। रास्ते में मैं सोच रही थी कि तातुश तो एक ही बार कहने पर तैयार हो गये ! अब आगे पता नहीं क्या होगा।

तातुश ने छत पर एक कमरा मेरे लिए खाली कर दिया। उस कमरे में अपना सारा सामान ‌जमा मैं खाना बनाने ‌की तैयारी करने लगी। तातुश ने ऊपर आकर देखा तो हंसते हुए बोले, तुम आज खाना न बनातीं तो भी चल जाता। नीचे तो काफी खाना रखा ही है !‌ मैंने कहा, तो क्या हुआ ! रखा रहे, दादा लोग खाएंगे। तातुश बोले, रात को एकबार नीचे एक गरम-गरम रोटी खिला सकोगी ? अभी तक दोनों समय रोटी बनाने वाला कोई नहीं था। तुम जो खाना बना जाती थी उसी को रात में भी खाना पड़ता था।‌अब तो तुम यहीं आ गई ‌हो तो दोनों समय गरम-गरम खाना खिला सकोगी।

इसके बाद से मैं खाना-वाना और अन्य सभी काम अपनी मर्ज़ी से करने लगी। किसी को‌ कुछ भी कहने की जरूरत नहीं होती। तातुश मुझे काम करते देखते तो कभी-कभी कहते, बेबी, तुम इतना काम कैसे कर‌ पाती हो ! सारा दिन काम करती रहती हो ! थोड़ा आकर मेरे पास बैठो। मैं बैठ जाती तो पूछते, बच्चों ने कुछ नाश्ता-वाश्ता किया कि नहीं ? तुमने कुछ खाया-वाया ? जाओ, ऊपर जाकर बच्चों को खिलाओ, फिर आकर अपना नाश्ता करना। जाओ, जल्दी जाओ। इतनी देर हो गई और अभी तक उन्हें कुछ दिया नहीं ! वह फिर कहते, यहां से थोड़ा सा दूध ले जाकर उन्हें दे दो। यहां आने के बाद से मेरे बच्चों को रोज आधा लीटर दूध मिलने लगा था।‌

लेखिका की आत्मकथा “आलो आंधारि” से साभार

 

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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