आर्थिकी

आम जनता की जमा पूँजी पर आशंका के बादल

 

वित्‍तीय समाधान और जमा बीमा विधेयक 2017 (एफआरडीआई)के जमानती खंड को लेकर लोगों की आशंकाओं के मद्देनज़र गुजरात चुनाव पर पड़ने वाले विपरीत असर के कारण वित्‍त मंत्री अरुण जेटली को इस प्रस्‍तावित कानून के बारे में जिस तरह सफाई देनी पड़ी है, वह दाल में कुछ काला होने का संकेत है। 14 जून 2017 को केंद्रीय मंत्रिमंडल ने वित्‍तीय संस्‍थानों के दिवालिया होने की आशंकाओं से निपटने के लिए इस विधेयक को मंजूरी दी थी और अगस्‍त में इसे संसद में पेश भी कर दिया था। वर्तमान में यह विधेयक संसद की संयुक्‍त समिति के पास विचाराधीन है। लेकिन इस विधेयक को लकर मीडिया में जो खबरें आ रही हैं, उससे अपने पसीने की गाढ़ी कमाई बैंकों में जमा करने वाले आम लोगों के पसीने छूट गये हैं। इस घबराहट का कारण इस विधेयक का वह प्रावधान है जो अपने वित्‍तीय घाटे और दिवालियापन से उबरने के लिए बैंक और बीमा कंपनियों जैसे वित्‍तीय संस्‍थानों को जमाकर्ताओं की जमा पूँजी का जमानत (बेल इन) के रूप में इस्‍तेमाल करने का अधिकार देने वाला है। इस

प्रकार की सूचनाओं से करोड़ों बैंक खाता धारकों में आशंका और डर व्‍याप्‍त हो गया है। करदाताओं के पैसों से बैंक आदि को घाटे से उबारने की जगह जमाकर्ताओं की जमा पूँजी से संकटग्रस्‍त बैंक आदि वित्‍तीय संस्‍थानों को बचाने की इस कानूनी कवायद की खबरों ने विपक्षी दलों को भी सरकार पर हमला बोलने का एक मौका मुहैया करा दिया है। विपक्ष द्वारा मोदी सरकार पर लगाये जा रहे लोगों की जमा पूँजी हड़पने के आरोपों ने सरकार को रक्षात्‍मक रुख अपनाने को बाध्‍य कर दिया है और यही कारण है कि वित्‍तमंत्री को गुजरात चुनावों के बीच स्‍पष्‍टीकरण के लिए सामने आना पड़ा। जेटली को कहना पड़ा कि विधेयक संसद की संयुक्‍त समिति के समक्ष विचाराधीन है और इसमें बहुत सारे सुधार हो सकते हैं। सरकार को जमाकर्ताओं के पैसों की सुरक्षा का आश्‍वासन भी देना पड़ा है।

वैसे तो बकाया उधारी से वित्‍तीय संकट के दलदल में फंसने वाले सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों को बचाने के लिएसरकार ने इन बैंकों को जमाकर्ताओं के पैसों का इस्‍तेमाल करने की छूट देने के अतिरिक्‍त 2.11 लाख करोड़ की राशि वाली पुन: पूंजीकरण की योजना का वायदा किया है। किंतु प्रस्‍तावित विधेयक ने बैंकों के दिवालिया होने की सूरत में जमाकर्ताओं की धन राशि के डूब जाने का खतरा तो पैदा कर ही दिया है। यह विधेयक दिवालिया हो जाने वाले बैंकों को छूट देता है कि वे अपने जमाकर्ताओं को उनकी जमा पूँजी वापिस लौटाने से इंकार कर दें या उनके नकदधन की जगह उन्‍हें प्रतिभूतियाँलिखकर अपनी जबावदेही से कन्‍नी काट जायें।यह प्रावधान वित्‍तीय संस्‍थानों के दिवालिया होने की आशंकाओं और खतरों के निराकरण को ध्‍यान में रखकर किया गया है। वास्‍तव में कुछ वित्‍तीय संस्‍थायें अर्थव्‍यवस्‍था की दृष्टि से इतनी बड़ी और इतनी महत्‍वपूर्ण होती हैं कि उन्‍हें संकट की स्थिति में मरने या डूब जाने के लिए नहीं छोड़ा जा सकता। लेकिन सवाल उठता है कि सत्‍ता से जुड़े जिन राजनेताओं के इशारे पर बड़े कॉरपोरेटों और पूँजीपतियों को गलत ढंग से ऐसे विशालकाय ऋण दिये जाते हैं कि जिनकी अदायगी न होने पर ऋणदाता वित्‍तीय संस्‍थान आर्थिक संकट में फंस जाता है, उन राजनेताओं और ऋण लेने वाले पूँजीपतियों और उद्यमियों पर पर क्‍यों नहीं कार्रवाई की जातीॽ किंतु कार्रवाई की बात तो दूर रही, बल्कि राजसत्‍ता तो अपने निकटस्‍थ पूँजीपतियों और उद्यमियों के इसप्रकार के ऋण तक माफ करती देखी जा सकती हैं।

इस विधेयक में निक्षेप बीमा और प्रत्‍यय गारंटी निगम को भी समाप्‍त करने का प्रावधान है। ध्‍यातव्‍य है कि दो बैंकों के धराशायी हो जाने पर साठ के दशक के आरंभ में इस निगम की स्‍थापना की गई थी। यह निगम किसी बैंक के घाटे में जाने और बर्बाद होने की सूरत में जमाकर्ता को उसकी एक लाख तक की पूँजी के पुन: सुरक्षित भुगतान की गारंटी देता है। किंतु अब इस निक्षेप बीमा और प्रत्‍यय गारंटी निगमके स्‍थान पर वित्‍त मंत्रालय के अधीन एक नया समाधान निगम बनाये जाने की योजना है। काँग्रेस सरकारों के दौरान स्‍थापित संस्‍थानों को समाप्‍त करने की यह पूर्वाग्रही नीति किसी भी अर्थ में समझदारी भरा कदम नहीं कही जा सकती। कारण कि यह नया निगम जमाकर्ताओं के स्‍थान पर वित्‍तीय संस्‍थानों की सेहत को लेकर ज्‍यादा फिक्रमंद नज़र आता है क्‍योंकि इस निगम को यह अधिकार होगा कि घाटे में जा रहे बैंकों को उनके ग्राहकों के प्रति जबावदेही से मुक्‍त कर सके। स्‍पष्‍टत: यह नया निगत पटरी से उतर चुके वित्‍तीय संस्‍थानों को फिर पटरी पर वापिस लाने की कवायद ही होगा। वैसे कुछ किंतु परंतु के साथ इस निगम का यह भी कर्तव्‍य होगा कि वह जमाकर्ताओं की जमा पूँजी की सुरक्षा भी तय करे। लेकिन किस सीमा तक बैंकों द्वारा ग्राहकों को उनकी जमा पूँजी की वापसी की गारंटी इस नये कानून में दी जाएगी, इस पर छाये अनिश्चितता के बादलों से सब चिंतित हैं। नये कानून के तहत समाधान निगम बैंकों से सलाह-मसविरे के बाद ही यह तय करेगा कि ग्राहकों के जमा पैसे पर किस सीमा तक सुरक्षा की गारंटी दी जाए और किस सीमा तक किस रूप में ग्राहकों को उनकी जमा पूँजी वापिस की जाए। बैंको को यह छूट भी दी जाएगी कि वे लंबे समय तक के लिए अपने यहाँ जमा पैसों को निवेश में लगा दें। ग्राहकों की जमा पूँजी पर छाये इस संकट के बीच आज आवश्‍यकता तो इस बात की है कि वर्तमान में जमा पूँजी की वापसी की गारंटी वाली जो एक लाख की अधिकतम सीमा है, उसे विस्‍तारित किया जाए। कारण कि 1993 से इस सीमा में कोई संशोधन किया ही नहीं गया है।

केंद्र सरकार द्वारा लाये गये इस वित्‍तीय समाधान और जमा बीमा विधेयक 2017 के बचाव में सरकार के लोगों द्वारा अमेरिका समेत विकसित देशों और साइप्रस संकट के समाधान का तर्क दिया जा रहा है।लेहमैनब्रदर्स बैंक के दिवालिया हो जाने से 2008 में अमेरिका और विश्‍व में छायी वैश्विक मंदी के समय दिवालिया बैंकों को बचाने के लिए दिये जाने वाले बेल आउट के खिलाफ तर्क दिया गया था कि करदाताओं के पैसों का इस्‍तेमाल दिवालिया हो जाने वाली बैंकों को उबारने के लिए क्‍यों किया जाए ? राष्‍ट्रीय सरकारों द्वारा आर्थिक घाटे से जूझती पूँजीवादी बैंकों को दिए जाने वाले बेल आउट के विरोध औरआर्थिक मंदी की आशंकाओं के बीच जी – 7 के देशों ने ग्राहकों की जमा पूँजी से दिवालिया बैंको को बचाने वाले एक नये कानून की आवश्‍यकता रेखांकित की और 2014 में जी-20 के देशों ने इसप्रकार के कानून पर अपनी सहमति की मुहर भी लगा दी। बैंकोंके दिवालिया होने से आये साइप्रस के आर्थिक संकट के समाधान के रूप में भी जमाकर्ताओं की जमा पूँजी का एक बड़ा हिस्‍सा दिवालिया हो चुके बैंकों को बचाने के काम में लिया गया था। लेकिन अमेरिका हो या साइप्रस का प्रयोग हो, दोनों जगह जमाकर्ताओं के पैसे डूबे थे और दोनों ही जगह इसप्रकार के आम जन विरोधी कानून असफल साबित होते नज़र आते हैं।

2008 के वैश्विक आर्थिक संकट के परिप्रेक्ष्‍य में आज ध्‍वस्‍त होने के कगार पर पहुँच चुके विशालकाय वित्‍तीय संस्‍थानों को पुनर्जीवित करने के लिए एक विशिष्‍ट तंत्र की स्‍थापना निश्‍चय ही आज के समय की आवश्‍यकता कही जा सकती है। और यह भी हम जानते हैं कि वित्‍तीय घाटे से जूझते वित्‍तीय संस्‍थानों को बचाने के लिए सरकारी जमानत के प्रावधान बहस का विषय रहे हैं। लेकिन सच्‍चाई यह भी है कि तमाम विरोधों के बावजूद वैश्विक स्‍तर परइसप्रकार के आपातकालीन जमानती प्रावधान पूँजीवादी अर्थव्‍यवस्‍थाओं का भी हिस्‍सा रहते आये हैं। वित्‍तीय समाधान और जमा बीमा विधेयक 2017 की रूपरेखा बनाने वाली समिति ने भी टिप्‍पणी की थी कि जब महत्‍वपूर्ण समझे जाने वाले किसी वित्‍तीय संस्‍थान को बेचना अलाभप्रद हो चुका हो, तो इस विधेयक में उल्‍लेखित जमानती समाधान का विशेष रूप से उपयोग किया जाना चाहिए। वास्‍तव में आर्थिक घाटा जब एक सीमा से ज्‍यादा हो जाता है तो निश्‍चय ही बैंक आदि किसी वित्‍तीय संस्‍थान को बाज़ार में बेचना मुनाफे का विकल्‍प नहीं रह जाता। लेकिन किसी दिवालिया हो चुकी बैंक को बचाने के लिए ऋण दे रही वित्‍तीय संस्‍था को अगर यह अहसास हो जाए कि जमानती उपाय ऐसे बैंक को वित्‍तीय संकट से उबारने में नाकाफी रहेंगे तो प्रस्‍तावित कानून का जमानती प्रावधान अपने उद्देश्‍य में असफल ही साबित होगा। बैंकों के दिवालिया होने पर मचने वाली भगदड़ को ऐसे में नहीं रोका जा सकेगा। यह कानून छोटे बैंको के लिए अलग मुश्किलें लाने वाला है। कारण कि इस कानून के तहत स्‍थापित होने जा रहा समाधन निगम हर बैंक की जोखिम का आंकलन अलग-अलग करेगा और तद्विषयक सुरक्षा की गारंटी की सीमा भी अलग-अलग तय करेगा। ऐसे में छोटे बैंकों को ग्राहकों को आकर्षित करने में विशेष दिक्‍कतों का सामना करना होगा।

गाँव-गाँव तक सार्वजनिक क्षेत्र की बैंकों का विस्‍तार हो जाने से 63 प्रतिशत भारतीयों का पैसा सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों में जमा रहता है और आज स्थिति यह है कि जून 2017 में अकेले एसबीआई की गैर-निष्पादित परिसंपत्तियाँ यानी एनपीए (नॉन परफॉर्मिंग एसेट्स)1 लाख 88 हजार करोड़ से ज्‍यादा हो चुका है। सार्वजनिक क्षेत्र के अन्‍य पाँच बैंकों का इतना एनपीए बढ़ चुका है कि रिजर्व बैंक उन्‍हें तत्‍काल आपातकालीन कदम उठाने का निर्देश दे चुका है। स्‍पष्‍ट है कि इस नये विधेयक –  वित्‍तीय समाधान और जमा बीमा विधेयक 2017 के कानून बन जाने से देश की व्‍यापक जनता की जेब पर घातक नकारात्‍मक प्रभाव पड़ने वाला है। यह प्रस्‍तावित कानून अप्रत्‍यक्ष तौर पर बैंकों को ग्राहकों का पैसा हड़पने का लाइसेंस देने वाला है। जिस देश के बहुसंख्‍यक लोग अपनी जमा पूँजी की सुरक्षा के लिए सार्वजनिक क्षेत्र के बैंकों पर विश्‍वास करते हों और शेयर बाज़ार से उनका कोई सरोकार न हो, वे लोग तो निश्‍चय ही इस नये कानून से दिवालिया तक हो सकते हैं। जिस तरह से केंद्र सरकार डिजिटल भुगतान पर बल दे रही है, उसे देखते हुए तो घर में पैसा रखने का भी कोई विशेष फायदा नहीं होने वाला है। निजी बैंक भी विकल्‍प नहीं हो सकते क्‍योंकि वे भी आवश्‍यकता पड़ने पर इस नये कानून के चोर रास्‍ते अपना घाटा दूर करने के लिए ग्राहकों के जमा पैसे हड़प सकते हैं। आज के जिस समय में बैंकों द्वारा प्रदत्‍त सेवाओं से हर भारतीय व्‍यक्ति का जीवन जुड़ता जा रहा हो, उस समय में बैंकों का बहिष्‍कार करके किसी व्‍यक्ति का काम चल ही नहीं सकता। किंतु ग्राहकों का मजबूरी का फायदा उठा उनकी गर्दन काटने का अधिकार तो बैंकों को नहीं दिया जाना चाहिए। ग्राहकों को यह तो मालूम होना ही चाहिए कि बैंक उनकी जमा पूँजी के कितने अंश की सुरक्षा की गारंटी देंगे।

स्‍पष्‍ट है कि यह विधेयक अगर अपने वर्तमान रूप में ही कानून बन जाता है तो औपचारिक बैंक सेवाओं से लोगों को बड़े पैमाने पर जोड़ने के लिए उठाये गये केंद्र सरकार के कदमों जैसे जन धन योजना और विमुद्रीकरण आदि पर पानी फिर सकता है।अगर सरकार बैंक सेवाओं के विस्‍तार और आम जन को बचत खाते जैसी आधरभूत बैंक सेवाओं से जोड़ने के प्रति ईमानदार है, तो उसे इस प्रस्‍तावित नये कानून के जमानती प्रावधानों और उन प्रावधानों के पीछे की तार्किकता को पूर्णत: स्‍पष्‍ट करना चाहिए।  जिन परिस्थि‍तियों में और जिस सीमा तक ग्राहकों की जमा पूँजी का इस्‍तेमाल जमानती समाधान के रूप में वास्‍तव में किया जाएगा, उन सबका खुलासा जरूरी है। और सबसे ज्‍यादा जरूरी है कि नई व्‍यवस्‍था के अंतर्गत बैंक खातों में जमा आम जनता की पूँजी पर सुरक्षा की गारंटी की वर्तमान सीमा में बढ़ोतरी की जाए।

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प्रमोद मीणा

लेखक भाषा एवं सामाजिक विज्ञान संकाय, तेजपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +917320920958, pramod.pu.raj@gmail.com
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