आँखन देखीबिहारराजनीति

जनतंत्र की  किस्सागोई – मणीन्द्र नाथ ठाकुर

 

  • मणीन्द्र नाथ ठाकुर

 

भारतीय समाज को यदि समझना है तो समाजशास्त्रियों को लोगों से चुनाव के समय बातें करनी चाहिए, क्योंकि उस समय हर कोई राजनीति और समाज के बारे में बात करने के मूड में होता है। आप एक सवाल करेंगे, वह आपको दस जवाब देगा। संस्कृति और राजनीति का अद्भुत संयोग आप उस समय देख सकते हैं। 2014 के आम चुनाव में हुई  भारतीय जनता पार्टी की ज़बरदस्त जीत के बाद बहुत से लोगों को यह लगने लगा था कि भारतीय जनतंत्र एक नए मोड़ पर पहुँच गया है, जहाँ आकर स्वतंत्रता संग्राम के मूल्य, जिन पर हमारा जनतंत्र टिका था, चुक गए हैं। आगे का रास्ता बहुसंख्यावाद और धार्मिक उन्माद के जनतंत्र को धूमिल करने का है। इसी सोच की सच्चाई की परख के लिय मैंने कुछ मित्रों के साथ 2015 के विधान सभा चुनावों में बिहार के अलग-अलग हिस्सों में लोगों से बात करने का मन बनाया। इस लेख में मैं मुज़फ़्फ़रपुर के बोचहा चुनाव क्षेत्र के बारे में अपने अनुभव के आधार पर जनतंत्र और संस्कृति के बारे में बातें करूँगा।

यह चुनाव क्षेत्र दलितों के लिय आरक्षित है। हमें जान कर आश्चर्य हुआ कि यहाँ से पिछले आठ बार एक ही व्यक्ति लगातार चुने जा रहे थे। इस बार कई महिलाएँ भी उम्मीदवार थीं और कम से कम दो दिग्गज पुरुष नेता थे। जिनके बीच दंगल की सम्भावना थी। हमारी रुचि इस बात में नहीं थी कि कौन जीतता या हारता है, बल्कि हम यह जानना चाहते थे कि लोग राजनीति के बारे में सोचते कैसे हैं और मतदान का निर्णय कैसे लेते हैं। हम यह भी समझना चाहते थे जनतंत्र की संस्कृति कैसी है और क्या हमारी संस्कृति का कोई ख़ास प्रभाव मतदान के निर्णय में है? इसके लिए हमने हमने यह देखने का प्रयास किया कि उम्मीदवार लोगों के बारे में क्या सोचते हैं और लोग उम्मीदवार के बारे में क्या सोचते हैं। इतना बताते चलें कि इस चुनाव में अपराजेय दिग्गज नेता एक मध्यम वर्गीय, अधेड़ उम्र की स्वतंत्र उम्मीदवार के सामने औंधें मुँह गिर गए। उस महिला की जीत भारतीय जनतंत्र की एक ख़ास घटना थी। इसका आभास हमें घूमने के दौरान होने तो लगा था, लेकिन जीत इतनी ज़बरदस्त होगी इसका अंदाज़ा लगाना थोड़ा कठिन था। दरअसल जिस महिला उम्मीदवार की जीत हुई उसके साथ एक दुर्घटना घटी थी जिसका व्यापक प्रभाव इस चुनाव पर देखा गया। उन्होंने पहली बार कांग्रेस के टिकट पर चुनाव लड़ा था और लगभग पाँच हज़ार वोट हासिल किया था। उसके बाद पिछले चार वर्षों से वह भाजपा की सदस्य थीं और उन्हें टिकट मिलना लगभग तय था। ऐसा क्यों था मुझे नहीं मालूम। यह थोड़ा रहस्यमय ज़रूर था क्योंकि न तो उनकी जाति के वोट वहाँ ज़्यादा थे और न ही उनके पास प्रयाप्त धन ही था। लोगों का कहना ज़रूर था कि उन्होंने पिछले चार सालों में बहुत काम किया है, मसलन हर किसी के सुख-दुःख में शामिल होना और ज़रूरत पड़ने पर लोगों की सहायता  के लिए खड़ा रहना आदि-आदि। हुआ यह कि भाजपा और रामविलास  जी की पार्टी लोजपा के बीच सीटों के बँटवारे में यह सीट लोजपा को चली गई। फिर भाजपा की ओर से लोजपा से इस महिला को टिकट देने का अनुरोध किया गया और टिकट देना तय हो गया। इस बात की घोषणा भी कर दी गई। लेकिन अपनी उम्मीदवारी के फ़ॉर्म भरने के आख़िरी दिन उनका टिकट वापस ले लिया गया। लोजपा ने कोई ख़ास कारण तो नहीं बताया, लेकिन ख़बर फैली कि रामविलास जी ने काफ़ी पैसा माँगा था, जिसे देने का वादा भी किया गया और कुछ दिया भी गया, लेकिन बाद में और पैसों का इंतज़ाम नहीं हो पाया। खबर यह भी थी कि पार्टी सुप्रीमो की पत्नी के भाई साहब ने विद्रोह का डंका बजा दिया था इसलिए यह सीट उन्हें देनी पड़ी। कुल मिला कर कहानी यह थी कि मध्यम वर्गीय, अधेड़ उम्र की एक स्वतंत्र महिला प्रत्याशी जिसका जातीय समीकरण, धनबल या बाहुबल भी उसके पक्ष में नहीं था,  एक ऐसे दिग्गज नेता के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ रही थी, जो कभी हारे ही नहीं थे और सत्तारूढ़ पार्टी के उम्मीदवार थे। चुनाव रोचक हुआ और हम जनतंत्र पर जनता और नेता के  विचारों को समझने की कोशिश में लगे रहे। 

सबसे पहले संक्षेप में उम्मीदवारों की बात ही कर लें, क्योंकि  उनके बारे में कहने को ज़्यादा कुछ है नहीं! एक समय था जब नेता, स्वतंत्रता से उपजी जनतांत्रिक संस्कृति के हिस्सा हुआ करते थे। मुझे याद है पूर्णियाँ संसदीय  क्षेत्र के एक उम्मीदवार थे मोहम्मद तहिर हुसैन। हमारा घरेलू रिश्ता था। मैं छोटा बच्चा था, उस समय। उनके पर्चे को कंठस्थ कर गया था। यूँ ही जहाँ मौक़ा मिलता माइक पकड़ कर बोलने लगता। भीड़ जमा हो जाती। बहुत बड़ा क्षेत्र था, लेकिन उनके पास जीप एक ही थी। मेरे सामने ही एक बार किसी ने बूथ ख़र्चा माँग लिया तो बरस पड़े कि कहाँ से लेकर आऊँगा। कांग्रेस के किसी बड़े नेता ने  चुनाव प्रचार के लिए ड्राइवर और  पेट्रोल सहित जीप भेजा तो उन्होंने उसे वापस कर दिया। भारी बहुमत से जीते थे। सच्चे अर्थों में जन सेवक थे। कोई बनावटीपन नहीं था। जो लोग भी काम लेकर आते थे उनके पास, सीधे शब्दों में हाँ या ना कह देते थे। पहली बार जब वेतन मिला तो चिंतित हो गए क्योंकि बैंक में खाता खुलवाने को कहा गया। लेकिन  बैंक में तो सूद मिलता है और  इस्लाम में यह सही नहीं है। फिर बैंक वालों ने बताया कि करेंट अकाउंट एक खाता होता है जिसमें सूद नहीं मिलता है, तो बैंक से कारोबार के लिए तैय्यार हुए।

लेकिन अब माहौल बिलकुल बदल चुका है। उम्मीदवारों के चरित्र बदल गए हैं। महज़ अपनी स्वार्थपूर्ति के लिए चुनाव जीतना चाहते हैं। हारने या जीतने के बाद मुश्किल से ही क्षेत्र में नज़र आते हैं। ज़ाहिर है चुनाव में उन्हें तरह-तरह के हथकंडे अपनाने पड़ते हैं। राजनैतिक पार्टियों का संबंध भी ‘जनतांत्रिक संस्कृति’ से टूट चुका है। टिकटों के बँटवारे में परिवारवाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और सामर्थ्यवाद जैसे नुस्ख़े आज़माए जाते हैं। सामर्थ्यवाद का अर्थ है कि पहले उम्मीदवार पार्टी कोष में दान करे। दान की मात्रा इस बात पर निर्भर करती है कि पार्टी कौन सी है और क्षेत्र-विशेष में उस पार्टी की पकड़ कैसी है। इसी आधार पर क्षेत्र के क़ीमत तय होती है जो करोड़ों में होती है। अब यदि अचानक ही आप अर्थबल से टिकट लेकर क्षेत्र में प्रकट हुए हैं, जनता से आपका कभी संपर्क ही नहीं रहा है, तो फिर आपके पास क्या उपाय है। आप बहुमत को अपने पक्ष में करने के लिए जाति, धर्म, और पैसों का ही तो सहारा लेंगे। चुनाव क्षेत्र में अब राजनैतिक कार्यकर्ता और वोटों के ठेकेदार उपलब्ध हो गए हैं जो आपको तीर्थ के पंडों की तरह घेर लेंगे. आप चाहे किसी पार्टी से हों या स्वतंत्र उम्मीदवार हों, आए हो तो आप गंगा में हाथ धोने ही न! आपको ऐसे लोग घेर लेंगे और फिर आपके सामने आपकी औक़ात के हिसाब से मेन्यू परोसेंगे। आजकल तो नए तरह के प्रोफ़ेसनल भी तैयार हो गए है जिनमें ज़्यादातर लोग आइ आइ टी के पढ़े लिखे लोग हैं। उनके अनुसार चुनाव आँकड़ों का खेल है और इन आँकड़ों को समझने और अपने हिसाब से ठीक करने के लिए कम्प्यूटर प्रोग्रैमिंग किया जा सकता है। जनता के मनोभावों को मशीन पर तौल कर, उसके अनुसार प्रचार कार्य किया जा सकता है। जैसे बाज़ार में साबुन बेचने के लिए लोगों के मनोभावों पर आधारित विज्ञापन बनाए जाते हैं वैसे ही मतदाताओं के   बदलते मनोभावों को समझकर नए नए नारे निकाले जा सकते हैं और उसके प्रभाव को समझकर जीत सुनिश्चित की जा सकती है। हर उम्मीदवार के पास चुनाव संचालन के लिए एक विशिष्ट कमरा होता है जिसे ‘वाररूम’ कहा जाता है। यानी अब चुनाव नहीं युद्ध लड़ा जाता है। इस युद्ध के सिपाही और तकनीक भी बिलकुल नवीन हैं। जैसे एक सोसल मीडिया आर्मी होती है जिसका काम है सुबह के आठ बजते-बजते अपने उम्मीदवार के बारे में फ़ेसबुक और व्हाट्सऐप  पर प्रचार सामग्री को भेजना और विपक्षी उम्मीदवारों के बारे में अफ़वाहें फैलाना। फिर लोकल चैनेल वाले हैं जो आपको प्रति मिनट मीडिया में दिखाने का अथवा विरोधियों के समाचार को छुपाने या दबाने का रेट बताएगा। जनतांत्रिक चुनाव के ये आठ दस दिन एक ऐसे अदृश्य बाज़ार को खड़ा करते हैं जहां सबकुछ बिकाऊ होता है— वोटर से लेकर नेता तक। हाँ, मतदाताओं का भी एक रेट होता है और ठेकेदार यह दावा करते हैं कि इतने पैसे में इतना वोट वो गिन कर डलवाएँगें। जनता यह भी समझती है कि नेताजी फिर   कब मिलें पता नहीं!  इसलिए तरह-तरह की माँगे सामने रखते हैं। मसलन, सामूहिक भोज के बर्तन, बेटे को नौकरी, सहभोज से लेकर मंदिर-मस्जिद में टाइल्स बिठाने तक की माँगें!

चुनाव के आख़िरी अड़तालीस घंटे ‘संक्रांति-काल’ होता है, जब लगातार मुक्त हस्त से मुद्रादान किया जाता है. मेरे आकलन के हिसाब से किसी भी उम्मीदवार का चुनाव में एक चौथाई खर्च पहले दस दिन में होता है और तीन चौथाई आख़िर दो दिनों में। अपने फ़ील्ड वर्क के दौरान ही किसी ने मुझे यह आईडिया दिया कि चुनाव को तीन हिस्सों में बांटकर देखना चाहिए – चर्चा, पर्चा और ख़र्चा। पहले हिस्से में संघर्ष यह रहता है कि उम्मीदवार चर्चा में है या नहीं। पार्टी का टिकट मिल जाने से वह चर्चा में तो बन जाता है। किन्तु यदि उसे कोई पूर्व-प्रतिष्ठा प्राप्त हो जैसे – बड़ा पदाधिकारी हो, नामी अपराधी हो, मीडिया में बराबर दिखता हो, फ़िल्मी कलाकार हो तो लिए चर्चा में बने रहना आसान होता है। इसीलिए आजकल राजनैतिक दल भी ऐसे लोगों की खोज में रहते हैं। पर्चा का दौर है जब उम्मीदवार घूम-घूम कर लोगों से मिलता है। उसके लोग मतदाताओं को बतलाते हैं कि नेता कितना महान है! इसमें लगने वाले नारे तो आपको याद ही होंगे – ‘हमारा नेता कैसा हो, मुसद्दीलाल जैसा हो.  ‘मुसद्दीलाल तुम संघर्ष करो, हम तुम्हारे साथ हैं’ आदि, आदि। इन एक जैसे नारों को जनता पर कोई असर नहीं होता है, इसका उद्देश्य केवल माहौल तैय्यार करना रहता है।

आजकल एक नई चीज़ शुरू हुई है जिसे रोड शो कहा जाता है। विवाह के लिए जैसे बारात निकलती है, वैसे ही रोड शो भी होता है। चुनाव के आख़िरी दो तीन दिनों में उम्मीदवारों की शक्ति प्रदर्शन का यह रिचूअल है। सब कुछ किराए पर मिलता है, मोटरसाइकिल, जीप, लाउडस्पीकर और भीड़। रोड शो के बाद मीडिया  पेड़ न्यूज़ का खेल से धन कमाती है। चुनाव पूर्व के आखिरी दो दिन बेचारा जनतंत्र लक्ष्मीजी की चाकरी करता है. इसे ख़र्चा का फ़ेज़ कहते हैं। भारतीय जनतंत्र का चुनाव कांड हिंदू धर्म के श्राध के कर्मकांड की तरह है। उम्मीदवार चाहे या नहीं, चुनावी पंडित उन्हें इस सब के लिए बाध्य कर ही देते हैं. गिनती के बाद फिर सबकुछ समान्य हो जाता है। किसी को इस बात की ज़रूरत नहीं है कि वापस जाकर देखे कि क्या हुआ, क्यों और कैसे?

अब जरा जनतंत्र के प्रति जनता के दृष्टिकोण पर विचार कर लें। इसके लिए मैं पुन: बोचहा क्षेत्र के अपने कुछ अनुभवों का ज़िक्र करूंगा। भ्रमण के दौरान हमारी पहली बातचीत बड़ी रोचक रही थी।   चाय की दुकान पर दस बारह लोग बैठे थे। हमने उनसे बातचीत शुरू की। अब तक हमें पता चल चुका था कि लोग सीधे से बात करने के आदी नहीं है। इसलिए हमने चुनाव को समझने के वस्तुपरक उपागम को त्याग दिया, जिसमें एक प्रश्न सूची लेकर लोगों  से पूछते हैं कि आपका इरादा किसे वोट देने का है। हमने बातचीत शुरू की कि इस बार किसके जीतने की सम्भावना है। लोगों का सामान्य सा उत्तर था, ‘कहना कठिन है’। हमने उनसे पूछने के बदले आपस में ही बहस की शुरुआत की। भारतीय ज्ञान परम्परा से पूर्वपक्ष और उत्तरपक्ष की तकनीक को उधार लिया और हम दोनों ने एक-एक कमज़ोर उम्मीदवार का पक्ष लेना शुरू किया। अपना-अपना तर्क गढ़ा और प्रमाणित करना शुरू किया कि हमारा पक्ष जीतनेवाला है। कुछ देर तक वे हमारी बहस सुनते रहे,  हमारे तर्कों पर मुस्कुराते रहे। फिर थोड़ी देर में वे भी बहस में शामिल हो गए और हम दोनों को ग़लत साबित करते लगे। अब तक हमें पता चल चुका था कि वहाँ बैठे ज़्यादातर लोग केवट जाति के थे क्योंकि जिन उपमाओं का वे अपने तर्कों में बार-बार उपयोग कर रहे थे, वे सब मछली मारने की प्रक्रिया से सम्बंधित थे। उनका तर्क था कि जब आप पानी में जाल फेंकते हैं तो बड़ी मछलियाँ पहले फँसती हैं। हमें मालूम नहीं था कि यह सच है या नहीं लेकिन इतना तो तय था कि जनता जनतंत्र को भी अपनी भाषा में ही समझती है। उनका कहना था कि आप के जाल में बड़ा छेद है इसलिए बड़ी मछलियाँ आपकी पकड़ में नहीं आ रही हैं और जहाँ तहाँ ग़लती से फँसी छोटी मछलियों पर ही आपका ध्यान जा रहा है। थोड़ी ही देर में बहस तेज़ हो गई और लोगों का मंतव्य सामने आने लगा। बात स्पष्ट हो रही थी कि इस बार ज़ोर उस माध्यम वर्गीय महिला का है। हमने कारण जानना चाहा तो उनका कहना था कि उसके साथ अन्याय हुआ है और जनता इस अन्याय का प्रतिकार करना चाहती है। निश्चित रूप से उम्मीदवार का जातीय संबंध मल्लाह या केवट समुदाय से नहीं था और इस इलाक़े में केवटों को नेतृत्व देने के लिए मुंबई शहर का एक सफल केवट व्यापारी बहुत प्रयासरत था। उसके प्रति थोड़ी सहानुभूति तो थी लेकिन, लोग इस विषय में बहुत ही स्पष्ट थे कि केवल धनी हो जाने से ही काम नहीं चलेगा, उसे अभी लोगों के बीच आ कर अपने को साबित करना होगा। मैंने जानबूझ कर यह बात चलाई कि जिस तरह से गाँव में पैसे बाँटे जाते हैं, उसमें तो पुराने एम एल ए के जीतने की उम्मीद ज़्यादा है। नेताओं के ठीक विपरीत जनता का ख़याल था कि पैसे के बल पर चुनाव जीतना हमेशा सम्भव नहीं होता है। चुनाव के दौरान ठगी का कारोबार ज़ोरों पर रहता है और चूँकि जो लोग नेता बनाना चाहते हैं उनका लोगों से सम्पर्क नहीं रहता है इसलिए वे इस ठगी के शिकार होते हैं

बहस का दूसरा पड़ाव इससे भी रोचक था। अब हम सड़क के किनारे एक छोटी सी चाय की दुकान पर थे। दुकानदार से चाय माँगते हुए हमने बातचीत शुरू की। हमने केवल इतना कहा था कि लगता है यहाँ के दलित रामविलासजी के पक्ष में हैं। हालाँकि हमें मालूम था कि यहाँ के दलितों ने उनकी सभा का वहिष्कार  किया था। हम जानना यह चाहते थे कि ऐसा क्यों हो रहा था। बातचीत तो हम आपस में कर रहे थे लेकिन हमारा ध्यान पूरी तरह से वहाँ बैठे एक बुज़ुर्ग व्यक्ति पर था जिनके बारे में हमें बताया गया था कि वे रामविलासजी की जाति के थे। थोड़ी देर तक तो हमें नज़रअन्दाज़ कर वे चाय पीते रहे। लेकिन आख़िर उनसे नहीं रहा गया। एक गाली देते हुए कहा कि उनका जितना असम्भव है। हमें मौक़े की तलाश थी। हमने एक से एक तर्क रामविलास जी के पक्ष में देना शुरू किया। और उन्होंने इसका खंडन शुरू किया। उनका आख़िरी जवाब तर्क कम, क्षोभ ज़्यादा था। उनका मानना था कि जिस तरह से आख़िरी मौक़े पर उस महिला का टिकट वापस ले लिया गया, उससे हमारी जाति की बहुत बेज्जती हुई है, यह एक तरह से धोखा है। मैं आश्चर्य चकित था। मैंने पूछा जाति की बेज्जती का क्या मतलब? उत्तर था कि इस तरह से धोखा देने से लोग अब यह कहने लगे हैं कि यह जाति ही धोखेबाज़ है। मैंने कहा कि क्या कोई सामने से ऐसा कहता  है। नहीं। फिर? उनके उत्तर ने मुझे जनतंत्र की भारतीय संस्कृति का एक नया स्वरूप नज़र आया। उनका कहना था कि दूसरी जाति के लोग, ख़ास कर केवट लोग जो उनके गाँव में बड़ी संख्या में हैं, उन्हें देख कर थूक देते हैं और धीरे से कहते हैं कि ‘ई जाते साला हरामी है’। उनका मानना था कि केवटों को ऐसा मौक़ा उनकी ही जाति के शीर्ष नेता ने दिया है।

ग़ौर करने की बात है कि न्याय अन्याय की एक समझ  हमारे समाज में है। यह इसकी संस्कृति में है। इस समझ के लिए उसे किसी विद्वान की पुस्तक पढ़ने की ज़रूरत नहीं है। उसके दैनिक जीवन से लेकर राजनैतिक निर्णय तक में इसका प्रभाव देखा जा सकता है। मुझे याद है आपातकाल के दौरान जब जयप्रकाशजी पर लाठी चली तो अचानक से लोगों की नैतिकता जाग उठी थी। उसके पहले तक लोग शांत थे, लेकिन उसके बाद न्याय-अन्याय का विमर्श अचानक तेज़ हो गया था और लोगों में उनके लिए सहानुभूति की लहर दौड़ गई थी, जिसने आंदोलन का विराट रूप ले लिया था। हाल ही में मेरी एक दक्षिण भारतीय मित्र पुराने दिनों का सुना किस्सा बतला रहीं थी कि जब गांधी अनशन पर होते थे तो उनके गाँव की अधिकांश महिलाएँ खाना बंद कर देती थीं, कहती थीं कि जब वह आदमी हम लोगों के लिए अनशन पर है तो फिर हम खाना कैसे खा सकते हैं? यही इस देश की संस्कृति हैं, जिसने जनतंत्र को सफल बनाया है। इसी चुनाव के दौरान हम लोग चकाई नमक एक विधान सभा क्षेत्र में घूम रहे थे, वहाँ किसी स्वर्गीय भाजपा नेता की पत्नी को आरजेडी ने टिकट दिया था। लोग कहते थे कि उनकी मृत्यु के बाद उनकी पत्नी को इस पार्टी के लोगों ने मंच से धकेल दिया था और इसलिए लोगों की सहानुभूति उनके साथ थी। इस वृद्ध महिला ने भी कई दिग्गजों को पछाड़ दिया और विजयी रहीं। यह केवल संयोग नहीं है। ऐसे अनेक उदाहरण हमें मिल सकते हैं। ऐसा ही एक उदाहरण है अस्सी के दसक में मांगन इंसान का, जो कटिहार के कदवा विधान सभा से दो बार विजयी हुए। कहते हैं कि मांगन के पास केवल एक गाय थी जिसे बेचकर उसने अपनी उम्मीदवारी का पर्चा भरा था। फिर टीन का एक डब्बा, जिसे स्थानीय भाषा में पीपा कहते हैं, लेकर चुनाव प्रचार में निकल गया। स्वतंत्र उम्मीदवार था और ‘मैं हिन्दू हूँ न मुसलमान हूँ बस मांगन इंसान हूँ’ का नारा लगाता घर-घर घूमता रहा। इस चुनाव क्षेत्र में अक्सर मतों का बँटवारा सम्प्रदाय के नाम पर हो जाया करता  था। लेकिन मांगन उन सबसे ऊपर था। कहते हैं कि मांगन ने चुनाव में काफ़ी पैसा भी जमा कर लिया था। शायद आजकल जिसे ‘ क्राउड सोर्सिंग’ कहते हैं उसका यह पहला उदाहरण रहा होगा। लोगों  ने उसे क्यों वोट दिया? इस सवाल के जवाब में हमें भारतीय जनतंत्र की संस्कृति दिखेगी। चलते-चलते एक और उदाहरण दे दूँ। एक बार प्रसिद्ध बाहुबली नेता पप्पू यादव पूर्णियाँ लोकसभा क्षेत्र से चार लाख से ऊपर वोटों से विजयी हुए। निश्चित रूप से इतना वोट तो बाहुबल से नहीं  लाया जा सकता है।  हुआ यह कि पप्पू यादव जेल में थे और उनकी पत्नी ने प्रचार का मोर्चा सम्भाला था। कहते हैं कि उनकी पत्नी अपने छोटे से बच्चे के साथ प्रचार में लोगों के घर जाती थीं और ढेर सारी सहानुभूति बटोर लाती थीं। मैंने ख़ुद ऊँची जाति की महिलाओं को भी कहते सुना था कि इस अबला को इस बार सहयाता करना ज़रूरी है। इंदिरा गांधी की मृत्यु के बाद राजीव गांधी का विजयी होना और राजीव गांधी की मृत्यु के बाद कांग्रेस की ज़बरदस्त जीत इसी संस्कृति की देन है।

वापस बोचहा लौटें। हमने चाय की दुकान की जगह अब दारू के अड्डे की तरफ़ रूख किया। देशी दारू की दुकानों पर हम जम कर बैठ गए और बहस छेड दी कि इस बार तो लगता है जदयू के उम्मीदवार ही विजयी होंगे क्योंकि आज तक उन्हें कोई हरा ही नहीं पाया है। तभी हमें पता चला कि उनकी हालत ख़राब है। दारू के नशे में भी लोग सही विश्लेषण कर रहे थे। एक ने कहा कि ‘अब वो दलित नहीं रहे, ऊँची जाति की तरह धोती, छाता, जूता में सजधज कर चलते हैं’। यह प्रतीकात्मक विरोध था, उनकी ऊँची जाति के लोगों के साथ साँठ-गाँठ का। दरअसल  में दलितों के लिए आरक्षित क्षेत्रों की एक बिडंबना है कि वहाँ जीत या हार इस बात पर निर्भर होने लगता है कि किस दलित उम्मीदवार को ऊँची जाति का समर्थन ज़्यादा है। यही कारण है कि दलित उम्मीदवार ऊँची जाति के हाथों का खिलौना हो जाता है। इस बात से  उस देशी दारू के अड्डे पर बैठा हर आदमी सहमत था। वहाँ भी न्याय अन्याय का विमर्श ही हावी रहा। हमने इस बात का खंडन करने का प्रयास किया, लेकिन उनका तर्क बड़ा सहज था कि ‘किसी के सामने थाली परोस कर फिर उसे छीन लेना कहाँ का न्याय है’। आख़िरी दो दिनों में यही एक मेटाफ़र समूचे विधान सभा क्षेत्र में गूँजने लगा। ज़ाहिर है यह बात लाउडस्पीकर पर तो नहीं कही जा रही होगी। आश्चर्य  की बात यह है कि यह बात हर किसी के ज़ुबान पर कैसे चढ़ गई।

भारतीय जनतंत्र के इस रहस्य को चुनावी पंडित नहीं समझ सकते हैं। जो लोग साबुन बेचने को और चुनाव प्रबंधन को एक तरह से देखते हैं, उनमें इस बात को समझने की क्षमता  भी नहीं  है। देखना यह है कि बाजार की संस्कृति और इस भारतीय संस्कृति के बीच के संघर्ष में कौन जीतता है। क्या भारतीय जनतंत्र भी पूँजी के इशारे पर चलेगा या फिर लोगों की नैतिकता, स्वयं को अजेय समझनेवालों को पटखनी दे देगी?  न्याय-अन्याय का विमर्श लोकचेतना को अभी भी प्रभावित करेगा या फिर लोग केवल स्वार्थलोलुप हो जाएँगे?

लेखक समाजशास्त्री और जे.एन.यू. में प्राध्यापक हैं|

सम्पर्क- +919968406430, manindrat@gmail.com

 

Show More

सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments

Related Articles

Back to top button
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x