ऑस्कर जीतने वाली फिल्म ‘गाँधी’
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यूँ तो हमारे राष्ट्रपिता गाँधी पर कई बेहतरीन फ़िल्में बनी हैं। मसलन ‘फ़िरोज अब्बास मस्तान’ निर्देशित ‘गाँधी माय फादर’ जिसमें गाँधी का किरदार ‘दर्शन जरीवाला’ ने निभाया। इसके अलावा ‘कमल हसन’ ने भारत के बंटवारे और गाँधी की हत्या की पृष्ठभूमि को आधार बनाकर ‘हे राम’ बनाई, इसके साथ ही ‘राजकुमार हिरानी’ की ‘लगे रहो मुन्ना भाई’ में भी गाँधी को किसी न किसी रूप में रखा ही गया और इसमें ‘दिलीप प्रभावलकर’ ने गाँधी का किरदार निभाया। ‘द लीजेंड ऑफ़ भगत सिंह’ ‘राजकुमार संतोषी’ की, ‘केतन मेहता’ की फ़िल्म ‘सरदार’, ‘श्याम बेनेगल’ की ‘द मेकिंग ऑफ़ गाँधी’ ‘जहनू बरुआ’ की ‘मैंने गाँधी को नहीं मारा’ जिसमें ‘अनुपम खेर’ ने शानदार अभिनय किया। ये कुछ चुनिंदा फिल्में हैं जो कहीं न कहीं पूर्णतया तो कहीं न कहीं अंशतः ‘गाँधी’ को आधार बनाकर बनाई गई शानदार और सफल फ़िल्में हैं।
इस महाकाव्य रूपी फिल्म में एक छोटा सा दृश्य आपको संपूर्ण फ़िल्म की अद्भुत क्षमता को दिखाने समझाने में बडा सहायक होगा। दशकों के महान विस्तार में डूबी इस फिल्म का शुमार दुनिया की महाकाव्यात्मक फिल्मों में किया गया। आरम्भ से लेकर अन्तिम दृश्यों तक एक एक मानवीय धागा कहानी की संवेदना को समेटे हुए है। एटनबरो की इस (गाँधी) फिल्म का केनवास इतना भव्य है कि इसे फिर से करना किसी भी फिल्मकार के लिए एक बडा ख्वाब होगा। यह फ़िल्म विश्व सिनेमा की सर्वकालिक फिल्मों की सभी मापदंडों को पूरा करती है। अतुलनीय केनवस को जीवन्त करना हमेशा से असम्भव के निकट रहा है। बापू को एक बार फिर जीवित देखने की कामना फिल्म को आकार दे जाती है।
फिल्म की कहानी महात्मा गाँधी के जीवन में दक्षिण अफ्रीका की कथा को स्थापित करते हुए शुरू होती है। जब वे वकालत की पढाई के सिलसिले में वहाँ गए थे। शिक्षा-दीक्षा के दरम्यान वहाँ की कडवी व अमानवीय रंगभेद नीति की वजह से उन्हें काफी जिल्लत उठानी पड़ी। तमाम तत्कालीन व्यवस्था को लेकर चलती हुई फिल्म ‘गाँधी’ एक ऐतिहासिक दस्तावेज का दर्जा रखती है। इतिहास की घटनाओं का बंधन फिल्म को विस्तृत केनवास पर बनाने के लिए बाध्य कर गया लगता है। अफसोस कि देश के मुस्तकबिल का मार्गदर्शन करने वाले बापू आजाद भारत को ज्यादा समय तक देख न सके और सत्य-अहिंसा के बापू को एक हिंसक अंत का दिन देखना पड़ा।
अपनी रेटिंग – 4 स्टार
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