अनुपम स्मृति

मन्नू भाई मोटर चली ,पम पम पम

  • संकल्प सिंघई

नवम्बर के दूसरे सप्ताह में, मैं छिन्दवाड़ा जिले की तामिया तहसील के पातालकोट इलाके का भ्रमण कर रहा था, मेरे मित्र गाड़ी चला रहे थे और कुछ पुराने नग्मे हमारे आनंद को दुगुना कर रहे थेI तभी एक गाने ने इस तस्कीन माहौल में खलल डाला और मुझे अपने एक रफीक की उल्फत सताने लगी I

गाने के बोल थे “मन्नू भाई मोटर चली, पम पम पम’ पमपम, हाँ अनुपम जी को घर में स्नेह से पम पम बोलते थे, यानि अपुन के अनुपम, जिन्हें प्यार से मैं “काका”कहकर बुलाया करता था और मन्नू से भी मन्ना का एहसास हो रहा था, यानि भवानी दादा का, गाने भी कमाल की चीज़ होते हैं, जो वर्तमान को अतीत में ले जाते हैं | खैर जैसे तैसे मैंने खुद को सम्हाला और आगे चिमटीपुर पर मुकाम डाला|

यहाँ के सरकारी गेस्ट हाउस से समग्र पातालकोट घाटी का अद्भुत और विहंगम दृश्य दिखाई पड़ता हैI मैं भी उसे देखने का जतन कर रहा था ,पर हर बार घाटी में पमपम यानी अनुपम काका की दो बड़ी-बड़ी हबीब आँखे दिखाई पड़ती, मैं ज़ार-ज़ार कोशिश करता कि उनसे दस्तबरदार हो सकूं, मगर वे बार बार सामने आ जातीI

इतेफाकन मुझे याद आने लगा की, कोई ३०/३५ वर्ष पहले अनुपम जी ने इस जनजातीय इलाके के बारे में प्रारंभिक और प्रमाणिक आलेख लिखा था, जिसे मैंने गांधीमार्ग के किसी अंक में पढ़ा भी था, शायद ये उसी का असर थाI

एक बार गाँधी शांति प्रतिष्टान के उनके कुतुबखानानुमा कमरे में वार्तालाप के दौरान जब मैंने उन्हें बताया था कि, यायावरी के दरमियाँ तफरीह करने अक्सर पातालकोट जाना होता है, तो वे बड़े खुश हुए और इलाके की कैफियत के बारे में पूछने लगे और लगे हाथ गांधीमार्ग के लिए एक लेख लिखने का आग्रह भी कियाI

खैर यह लेख मैं अपनी लापरवाही के कारण कभी पूरा नहीं कर पाया, इस हिमाकत का रंज ताउम्र रहेगा पर इससे उनकी मोहब्बत में कोई कमी नहीं आई, हर बार वो बालसुलभ मुद्रा में पातालकोट घाटी में हो रहे परिवर्तनों की तफ्तीस करते और वहां हो रहे “विकास” का सोग मनातेI उनके प्रश्न “देखन में छोटे लगें पर घाव करें गंभीर” प्रकृति के होते थेI

मसलन –

1.क्या घाटी के नीचे तक सड़क निर्माण चालू हो गया है?

२.भारिया जनजाति क्या अभी भी मुख्यधारा से खुद को बचाने में कामयाब है?

३.स्कूल और अस्पताल के नाम पर कहीं सरकार इनके पारंपरिक ज्ञानविज्ञान को समाप्त करने पर आमादा तो नहीं?

आदि आदि

मेरे पास इन संवेदनशील प्रश्नों के नकारात्मक जबाब होते, जिन्हें मैं उनसे साँझा नहीं करना चाहता था, मैं भला उनसे कैसे कहता कि “तथाकथित विकास” अब पातालकोट को भी अपनी गिरफ्त में ले चुका है और ये इलाका अब वैसा नहीं रहा जैसा उन्होंने देखा थाI परन्तु वे निगहबान की तरह सब गड़बड़ झाले को समझते थे और धीरे से कहते “यह ठीक नहीं हो रहा, अगर इन जनजातियों के पारंपरिक ज्ञान विज्ञान को नहीं बचाया गया तो हमारे पास मौलिकता के नाम पर कुछ नहीं बचेगा”

एक मिनट का अन्तराल और फिर यह कहना कि “क्या यह सब पागलपन रोका नहीं जा सकता?”

मैं उन्हें यहाँ वहां की बातों में उलझाने की असफल कोशिश करता, ताकि उनकी चिंताएं कम कर सकूं, मगर वे –

“हमको मालूम है ज़माने की हकीक़त ग़ालिब

दिल को बहलाने के लिए ख्याल अच्छा है” के निरपेक्ष भाव से सब समझ जाते I

“विकास” नामक शब्द जो आज लगभग व्यंगात्मक लहजे में प्रयुक्त होने लगा है और भारतीय लोकतंत्र के वर्तमान मॉडल की असफलता का प्रतीक बन कर रह गया है, से उन्हें उस ज़माने में भी अच्छी खासी नफरत थीI उनके लेखन और विचारों में विकास से उत्पन्न विस्थापन का दर्द स्पष्ट उभर कर आ जाता था, उनके ही शब्दों में यह बानगी देखिये –“ऐसी विचित्र भगदड़ में फंसा समाज अपनी जड़ों को खोज पायेगा, उनसे जुड़ पायेगा, ऐसी उम्मीद रखना बड़ा कठिन काम हैI”

मूल रूप से विकास रुपी शब्द हिंदी शब्दावली का हिस्सा कभी नहीं रहा, वे बताते थे कि किसी अमेरिकी राष्ट्रपति ने इसे लोकप्रिय बनाया था, जो आज सोशल मीडिया के चुटकुलों में बुलंदियों को छू रहा है, वाह रे ज़मानाI

जातीय तौर पर अनुपम काका से बमुश्किल ताउम्र 15-20 मुलाकातें ही हुई होंगी, हाँ अवचेतन का संवाद आज भी जारी हैI मगर उनसे रिश्ता पुराना था, पिताजी बताते हैं की प्रभाष दादा जब चम्बल इलाके में विनोबा/जयप्रकाश के दस्यु समर्पण वाले अभियान में जोरों से लगे थे, तो उनके साथ युवा अनुपम भी थेI हमारे गाँव के समीप ही उस समय खुली जेल(मुंगावली) को स्थापित किया गया था जिसमें मोहर सिंह, माधो सिंह, तहसीलदार सिंह जैसे दुर्दांत डाकू रखे गए थेI इस प्रकार सर्वोदय समाज का हमारे गाँव आना जाना लगा रहता था और यह हमारी आशनाई की शुरुआत थीI

‍‍‍‍‌वैसे उनकी सुहबत का मौका अधिकांश गाँधी शांति प्रतिष्ठान वाले कमरे में ही मिला| उनके जाने के बाद भी, जब कभी दिल्ली जाना होता तो, बरबस कदम उनके कमरे की तरफ मुड़ जातेI इस तथ्य से वाकिफ होने के बावजूद कि अब उस कुर्सी पर जिसपर लिखा हुआ होता था “पॉवर विदाउट परपस”(मैं मजाक में इसे तख्ते ताउस कहता था) पर बैठने वाला सरफ़राज़ शक्स हमारे बीच से उठकर कहीं कहकशां की सैर कर रहा हैI

पिछली बार जब उनके कमरे में गया तो माहौल बड़ा संजीदा किस्म का हो गया था, जिसका मैं आदी नहीं हूँ, मैंने पाया की मंजू काकी पमपम की छोड़ी छोटी बड़ी धरोहरों को सहेजने का दुष्कर कार्य कर रहीं थीI औपचारिक संवाद में, मैं विश्वास नहीं रखता सो ज्यादा ठहरने की हिम्मत नहीं हुईI कैसी विडंबना है कि, जिस कमरे से बाहर जाने की कभी इच्छा नहीं होती थी, आज वही काटने को दौड़ रहा थाI किसी के होने या न होने का एहसास इन हालातों में ही होता हैI

ऐसे में जब हम मुखातिब होते हैं, कुमार गन्धर्व साहेब से, अपने देवास टेकरी वालों से और उनकी बेनजीर देन कि “उड़ जायेगा, हंस अकेला, जग दर्शन का मेला” तब इस आलाप के साथ रिक्तता की तीव्रता अपने उच्चतम स्तर पर पहुँच जाती है|

अनुपम आज भी तवा घाटी के मछुआरों के बीच या चम्बल के बीहड़ों से दूर मुख्यधारा का जीवन व्यतीत कर रहे डाकुओं के बीच या फिर उत्तराखंड के पहाड़ों में चिपको आंदोलनकारियों के बीच अपने चिरपरिचित अंदाज़ में मिल जायेंगे, उसी खाकी रंग के आधी बाजू वाले कुर्ते (अनुपम कट) व अपने जन्मजात लंगोटिया यार झोले के साथ|

दिल्ली के सरकारी अस्पताल में कैंसर से दोचार हो रहे अनुपम को देखना काफी कष्टप्रद अनुभव था, बड़ी हिम्मत कर अपने मित्र प्रहलाद के साथ वहां गया, मगर जब उन्हें देखकर जाने लगा तो आवाज़ देकर कहने लगे कि, ठीक होकर एकबार तुम्हारे साथ पातालकोट जरूर चलना हैI इस इंसान की जिजिविषा देखिये कि, मौत सामने है पर मुखातिब हैं किसी और तरफ, काश खुदा की नवाजिसें रहती तो उन्हें इस रहस्यलोक की सैर ज़रुर कराता मगर शायद यह उपरवाले को मंज़ूर नहीं थाI

तामिया गेस्ट हाउस से ढलता हुआ सूरज बहुत सुर्खी लिए हुए दिखाई पड़ रहा है, मगर हमारे तसब्बुर में पमपम मुसलसल दस्तक दे रहें हैं, तभी दूरध्वनी यंत्र पर मंजू काकी का आग्रह दिखाई पड़ता है कि तुमसे अनुपम पर एक संस्मरण की अपेक्षा है I

मित्र गाड़ी चला रहें और हम अनुपम के सुरूर में चूर हैं, गाना बज रहा है –

“राह पे रहते हैं, यादों में बसर करते हैं, खुश रहो अहले वतन, अब हम तो सफर करते हैं”

सामने ख़राब रास्ता आने पर दोस्त जोर से ब्रेक लगाता है, अँधेरे में आधी बाजू वाले कुर्ते में कोई शक्स, झोला टांगे दिखाई पड़ता है जो हमसे कहता है की –

“जड़ों की तरफ मुड़ने से पहले हमें अपनी जड़ता की तरफ भी
देखना होगा, झांकना होगा। यह जड़ता आधुनिक है।
इसकी झांकी इतनी मोहक है कि इसका
वजन ढोना भी हमें सरल लगने लगता है।
बजाय इसे उतार फेंकने के, हम इसे और ज्य़ादा
लाद लेते हैं अपने ऊपर”

हमदोनों को कुछ देर ऐसा लगता है, जैसे हमलोग मुक्तिबोध की किसी फंतासी कविता के पात्र हों I अब मिशन पातालकोट तकमील होता दिखाई पड़ रहा है|

साधारण की शक्ति की खोज में लगा एक यायावर, जिसे नेपथ्य के नायकों को उजागर करने में ही आनन्द आता है|

सम्पर्क- +919922962503, atsauk@gmail.com

कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।
Show More

सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

1 Comment
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
1
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x