व्यंग्य

पचहत्तर वाली भिन्डी का ज्ञान

 

उम्र तो सिर्फ एक संख्या मात्र है| ऐसा लोग कहते हैं| यकीन मानिये, ये कहने वाली बातें सिर्फ कहने के लिए ही होती हैं| वरना असली जीवन सिर्फ संख्या पर ही निर्भर है| स्कूल का एडमिशन हो या नौकरी की योग्यता, पहले उम्र पूछी जाती है फिर कुछ| हमने सुना था – ‘जाती न पूछो साध की, पूछ लीजिये ज्ञान’| अब इसका रिमिक्स कुछ ऐसा है – ‘बाकी पूछो बाद में , पहले पूछ लीजिये उम्र’|

अगर आप सोच रहे हैं कि यह तो तीन साल वाले बच्चों की और 25 साल वाले युवाओं की समस्या है तो आप भी उन लोगों में से हैं जो जवानी से अभिभूत यानी यूथ ऑब्सेस्ड हैं| बड़ा शब्द है, पर अंग्रेजी में लोगों को जल्दी समझ में आता है| यूथ शब्द से ही उनमें एक नवीन ऊर्जा का संचार होने लगता है| चालीस साल पार कर चुके लोग भी काली टाईट टी शर्ट पहन कर यूथ में शामिल होना चाहते हैं| पर ‘जवानी’ कहते ही लोगों को किसी सस्ते उपन्यास की याद आने लगती है| खैर जो भी हो, उम्र सिर्फ जवानों की समस्या नहीं रह गयी| बुढ़ापे में भी लोग इसके शिकार हैं|

इस बार चुनाव में देखा आपने, पचहत्तर से ज़्यादा वालों की छुट्टी हो गयी| चुनाव में तो अभी हुआ, जीवन में हर दिन होता है| सब्जी बाज़ार में देखा नहीं आपने? पकी हुई भिन्डी भी आप छाँट के निकाल देते हैं| क्या फायदा उसे लाने का? न तो कटे, न तो गले| हमारे तेल-मसाले और बर्बाद करे| जबरदस्ती बना डालें तो चबाना मुश्किल| तो भैया ये पचहत्तर साल वालों को कौन झेले? इन्हें तो बस आप चबाते रहिये, चुंईंगम की तरह| कुछ होने जाने का नहीं है| दरअसल पकी हुई भिन्डी को बाज़ार में आना ही नहीं चाहिए| वह वहीं खेत में रहे, बीज तैयार करे, वही बीज उसे नया जीवन, नव यौवन देगा| ऐसा ही कहा है न धर्म ग्रंथों में? जातस्य हि ध्रुवो मृत्यु? ये सब खुद पढने और समझने के लिए है या सिर्फ चुनाव का मुद्दा बनाने के लिए? खैर जो भी हो, कुछ ऐसे हठी तो टिकट न मिलने पर खुद ही मैदान में कूद गए| उस पकी हुई भिन्डी की तरह जो किसी न किसी ग्राहक के झोले में जाने की ताक में रहती है| हालाँकि उसकी यह उपलब्धि क्षणभंगुर ही होती है| भले ही उसके बाद वह किसी न किसी स्तर पर फेंक दी जाये पर उसकी बाज़ार में आने की महत्वाकांक्षा का क्या करें |

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ये तो राजनीति की महिमा है कि पचहत्तर पर जाकर आउट हुए, सरकारी नौकरी में तो साठ पर ही बोरिया-बिस्तर बन्ध जाता है| उनसठ साल तीन सौ चौंसठ दिन तक महाराजा की तरह राज करने वाले चक्रवर्ती सम्राट अगले ही दिन दीनहीन अवस्था में पहुँच जाते हैं| सरकारी फ़्लैट, गाड़ी, ड्राइवर, टेलीफोन सब मायावी छलावे की तरह गायब हो जाते हैं| और तो और, लोगों के तेवर भी बदल जाते हैं| मज़े की बात ये है कि सब कुछ बदल जाता है पर महाराजाधिराज के तेवर नहीं बदलते| ये तेवर जाकर उनकी नेमप्लेट पर चिपक जाता है – रिटायर्ड फलाँ फलाँ | ऐसे नेम प्लेट पुराने कैलेण्डर की तरह लगते हैं, मानो कह रहे हों – “कल इतवार था|” था तो था, आज तो सोमवार है !! कल से ही चिपके रहेंगे कि आज का भी कुछ करेंगे?

चिपकने की इनकी आदत ऐसी होती है कि बस चलता तो अपनी ऑफिस वाली कुर्सी से ही चिपके रहते| चूँकि वह तो छिन  गयी तो घर में एक ऐसी कुर्सी फतह कर लेते हैं जिस पर उनका एकाधिकार होता है| फिर क्या मजाल कि कोई और उस कुर्सी की ओर आँख उठा कर भी देखे| वह बस उन्हीं साहब की है|

चलिए, कुर्सी से चिपके तो चिपके, पर इस बीमारी का अन्त यहाँ नहीं होता| जो भी मजबूर इंसान इन्हें मिल जाये ये उसी से चिपक जाते हैं| और जो तमाम ज्ञान उन्होंने ताउम्र अर्जित किया है, उससे उस बेचारे इंसान को नहला देते हैं| उनके ज्ञान की बारिश से भीग कर ठिठुरता हुआ वह प्राणी जैसे ही मौक़ा पाता है, इस तरह भागता है जैसे किसी ने दुम में पटाखे बाँध दिए हों और फिर सालों उस रास्ते पर वापस कदम नहीं रखता|

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अपने देश में लोगों की कमी तो है नहीं, इसलिए हर दिन एक न एक शिकार इनको मिल ही जाता है चबाने के लिए| परन्तु कुछ बुद्धिमान बुढ़ऊ, माफ़ कीजिएगा, सीनियर सिटीजन भी होते हैं जो समय रहते अपनी नयी जागीर बना लेते हैं – फ़्लैट ओनर्स असोसियेशन के प्रेसिडेंट, महल्ला बचाओ समिति के अध्यक्ष, सीनियर सिटिजन फोरम के महामन्त्री, जिसकी जैसी क्षमता वैसा जुगाड़ कर लेते हैं| बाकी उनकी जनता पर निर्भर करता है कि उनका सदुपयोग कैसे करे|

यदि उनकी (जनता की) किस्मत अच्छी हुई तो उन्हें किसी अनुभवी महिला का संरक्षण मिल जाता है जिन्हें पुराने अखबारों का इस्तेमाल करना भी बखूबी आता है| ये महिलाएँ पुराने अख़बारों को पाँच रुपये में रद्दी में बेचने की बजाय अलमारियों में बिछा कर पेस्ट कंट्रोल का खर्चा बचा लेती हैं| ऐसी ही पारखी महिलायें इन्हें ‘सर-सर’ कह कर पूरे असोसिएशन का काम तो करवाती ही हैं, अपने बैंक की पासबुक भी अपडेट करवा लेती हैं, अपने बच्चे का होमवर्क भी करवा लेती हैं और अपने घर की सब्जी भी मंगवा लेती हैं| और हाँ, साथ ही हिदायत भी दे देती हैं – “भिन्डी चुन-चुन कर लाइयेगा, पकी हुई मत ले आइयेगा”|

साहब थैला लेकर जाते हैं, पकी हुई भिन्डियों को खुद ही नफ़रत भरी निगाहों से छाँटते हैं| अपने व्यस्त जीवन पर आत्ममुग्ध होते हैं| अपनी बी.पी. की दवाइयों को जस्टीफाई करते है और सन्तोषपूर्वक जीवनयापन करते हैं| इति श्री सीनियर सिटीजन कथा|

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नुपुर अशोक

लेखिका कवयित्री, चित्रकार एवं सॉफ्ट स्किल ट्रेनर हैं। सम्पर्क +919831171151, dr.nupurjaiswal@gmail.com
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