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साँच कहो तो मारन धावै: गाँधी विरासत की विडंबना

स्वतंत्र भारत में महात्मा गाँधी की राजकीय पूजा शुरू की गई। इसमें परिस्थितियों का भी साथ मिला। पर विडंबना यह हुई कि गाँधी के जीवन और कार्य का जीवन्त पक्ष ही उपेक्षित हो गया, जबकि उन के काल्पनिक, निष्फल यहाँ तक कि हानिकारक कार्यों, विचारों को प्रचारित किया गया। यह सत्ता बल से पूरे आडंबर से होता रहा है। इस से जो हानियाँ हुई, उस का कोई हिसाब नहीं किया जा सकता।

उदाहरणार्थ, गाँधी के कुछ उपेक्षित विचार याद करें। उन्होंने साफ कहा था कि यदि उन्हें कानून बनाने का अधिकार मिले तो वह ‘सारा धर्मांतरण बंद करवा देंगे जो अनावश्यक अशांति की जड़ है।’ गाँधी स्वयं को सनातनी हिन्दू कहते थे। आदर-पूर्वक भगवदगीता को ‘गीता माता’ कहते थे, जिस से हरेक परिस्थिति में सही व्यवहार का मार्ग मिलता है। वे गोरक्षा को अपना ही नहीं, पूरे देश का कर्तव्य मानते थे। मुसलमानों के खलीफत आंदोलन (1919-24) में शामिल होने की एक विचित्र कैफियत गाँधी ने यह भी दी थी कि इस से गोरक्षा को मदद मिलेगी! इसी तरह, उन्होंने देश की एकता व उन्नति के लिए सार्वजनिक काम हिन्दी भाषा में करना अनिवार्य बताया था। यहाँ अंग्रेजी को गुलाम मानसिकता के पोषण का साधन माना था। आदि।

अब स्वयं देखें कि उपर्युक्त बातों में किसी का राजकीय या गाँधीवादी संस्थाएं कभी उल्लेख भी करती हैं? तदनुरूप नीति बनाने के लिए कोई अभियान चलाना तो दूर रहा! गाँधी के उत्तराधिकारी नेताओं, संस्थाओं ने उक्त सभी बातों को तहखाने में डाल कर दफन ही कर दिया। जबकि कायदे से गाँधी-भक्तों को गर्व-पूर्वक भारत में सारा धर्मांतरण बंद करा देना था। भगवदगीता जैसी महान ज्ञान-पुस्तकों को औपचारिक शिक्षा में अनिवार्यतः जोड़ना था, चाहे उसे पढ़ना-पढ़ाना स्वैच्छिक रहता (जैसा भारत में सदैव रहा था)। इसी तरह, अंग्रेजी को शासन व नीति-निर्माण से पूरी तरह बाहर कर देना था, आदि।

लेकिन यहाँ गाँधी का नाम जपने वाले शासकों और संगठनों ने भी न केवल वे काम नहीं किए, बल्कि उन्हीं बातों का आग्रह रखने वाले दूसरे लोगों को सदैव लांछित, अपमानित किया। यही नहीं, कुछ चतुर बौद्धिकों ने मनमाने रूप से गाँधीवाद को एक प्रकार का सेक्यूलर-वामपंथी मतवाद बना डाला। फिर सब कुछ राजनीति-केंद्रित कर गाँधी जी के गैर-राजनीतिक पहलुओं को भुला दिया गया। जबकि वही अधिक मूल्यवान हैं। यानी, गाँधी के उन कार्यों का जो समाज-सेवा श्रेणी में आती है।

भारत में राजनेता रूप में तो गाँधी निपट विफल रहे थे। यह कहना गाँधी की महानता से इंकार नहीं है। पर उन की महानता गैर-राजनीतिक सेवाओं तथा उन विचारों में है, जिन का महत्व कम आँका गया या भुला दिया गया। वह सेवाएं गाँधीजी के दक्षिण अफ्रीका काल की हैं। उसे पूर्वाद्ध गाँधी कह सकते हैं। मोटे तौर पर सन् 1915 को विभाजक रेखा मान सकते हैं, जिस से पहले वे राजनीतिकर्मी नहीं, केवल निःस्वार्थ समाजसेवी थे।

बल्कि राजनीति में तो गाँधी 1920 के कुछ बाद तक भी अंग्रेजों के सहयोगी ही थे – स्वयं अपने शब्दों में ‘राज-भक्त’!  इस के लिए ब्रिटिश साम्राज्य ने उन्हें दो बार मेडल भी दिया था। गाँधी ने ‘हिन्द स्वराज’ में सुविचारित रूप से लिखा भी था कि अंग्रेजों को यहाँ शासन से भगाने की जरूरत नहीं। नोट करें, उन की यह टेक 52-54 वर्ष की परिपक्व आयु तक थी! तब की औसत आयु देखते हुए कहें कि गाँधी आजीवन अंग्रेज-भक्त ही रहे। केवल यही तथ्य उन की राजनीतिक अयोग्यता प्रमाणित कर देता है। विशेषकर, जब देखें कि उन के राजनीति में पदार्पण से दस वर्ष पहले ही भारत में स्वदेशी राज की भावना फैल चुकी थी।

इस राजनीति से बिलकुल भिन्न, दक्षिण अफ्रीका वाले गाँधी में अप्रतिम सेवा भाव, दुर्बलों की प्रत्यक्ष सहायता का सतत प्रयत्न और प्राकृतिक जीवन की प्रवृत्ति भरी है। यह सब राजनीतिक या दार्शनिक गुण भी नहीं हैं। किन्तु इन्हीं गुणों ने, एक विशेष परिस्थिति में, गाँधी को प्रसिद्ध व्यक्ति बना दिया। वह सब दक्षिण अफ्रीका में 1915 तक हो चुका था।

उस के बाद गाँधी भारत आए और राजनीति को प्राप्त हुए। यहाँ से गाँधी का नया दौर शुरू होता है, जब जरूरतमंदों की प्रत्यक्ष सेवा का कार्य छूट गया। शुरुआती चंपारण के बाद गाँधी पूर्णतः कांग्रेस की सर्वोच्च राजनीति के संचालन में लग गए। वह भी मनमाने तानाशाह रूप में! बल्कि इसे उन्होंने शर्त जैसा रखा कि यदि कांग्रेस को उन का सहयोग चाहिए तो वे जैसा कहें वैसा ही करना होगा

जबकि ध्यान दें, यहाँ एकदम नई परिस्थिति और हर तरह से नया काम था। जिस का गाँधी को कोई अनुभव न था। उन्हें राजनीति व इतिहास का कोई ज्ञान भी नहीं था, यह स्वयं उन की आत्मकथा में दर्ज है। पर दक्षिण अफ्रीका से मिली प्रसिद्धि की पूँजी ने यहाँ गाँधी का भारी दबदबा बनाया। यद्यपि अंततः इस से हमारे राष्ट्रीय हितों की भारी हानि हुई।

सन् 1915 से पहले जानकार और अनुभवी नेताओं के साथ राजनीति करना गाँधीजी का कार्यक्षेत्र नहीं था। वे तो उस दुर्बल प्रवासी समुदाय की प्रत्यक्ष सेवा के अनुभवी थे जहाँ कोई आवेदन लिखने की योग्यता वाला भारतीय भी नहीं था। जबकि यहाँ वे राजनीतिक दाँव-पेच में कूद पड़े। इस में भी वे दुखियों की प्रत्यक्ष सेवा जैसे निर्विरोध, सुंदर परिणामों की आशा करते थे! उन के बयानों तथा लेखन में यह आशा बार-बार झलकती है। इस भोलेपन की विफलता तय थी! राजनीति में राक्षसी शक्तियाँ काम करती हैं। उन्हें उदारता से जीतने का गाँधी का दावा बुरी तरह चूर-चूर होता रहा। इस का भीषण परिणाम लाखों सामान्य, निर्दोष भारतवासियों को उठाना पड़ा।

यहाँ गाँधी के जो कार्य गिनाकर उन्हें महान बताया जाता है, वैसे कार्य अनेक महान भारतीयों ने किए थे। कई तो गाँधी से बहुत बड़े साबित हुए हैं। यह डॉ. लोहिया ने अपने लेख ‘गाँधीजी के दोष’ में नोट भी किया है। जबकि यहाँ राजनीति प्रवेश से अंत तक गाँधी के सभी कार्यों, विचारों की परख करें, तो अधिकांश विफल या हानिकारक रहे।

जैसे, ‘अहिंसा’ की भरपूर विरुदावली गाने के बाद प्रथम विश्व-युद्ध में ब्रिटिश साम्राज्य के लिए सैनिकों की भर्ती कराना (1917-18);  इस्लामी मुद्दे के लिए ‘गाँधी-खलीफत एक्सप्रेस’ चलाना (1920-22) ; जिस की विफलता पर देश भर में हिन्दुओं पर मुस्लिम हिंसा; 1931 का खोखला गाँधी-इरविन पैक्ट; मुस्लिम लीग के अलगाववाद के समक्ष वैचारिक-राजनीतिक खालीपन; 1942 का कुसमय आंदोलन; संयुक्त भारत का  क्रिप्स प्रस्ताव (1946) ठुकराना; ‘विभाजन मेरी लाश पर होगा’ की घोषणा से पलटने का विश्वासघात जिस से लाखों पंजाबी, बंगाली हिन्दू-सिख बेमौत मारे गए; कांग्रेस को भंग करने की निष्फल सलाह; तथा ‘जब मैं नहीं रहूँगा तब जवाहर मेरी भाषा बोलेगा’; आदि जैसे वक्तव्य, जिन की सचाई देते समय ही संदिग्ध थी।

यह कुछ बड़े उदाहरण हैं जो भारत में गाँधीजी का कैरियर राजनीतिक विफलताओं की अटूट श्रृंखला दिखाते हैं। कुछ तो ऐसी जिन से लाखों निरीह भारतवासियों की बलि चढ़ गई। साथ ही, देश-विभाजन कर अपनी ही भूमि से दो-तरफा स्थाई शत्रु-देश बनाने, तथा गाँधी द्वारा घोषित ‘उत्तराधिकारी’ नेहरू द्वारा तिब्बत रूपी मध्यवर्ती देश कम्युनिस्ट चीन को दे देने से भारत की पश्चिमी, उत्तरी और पूर्वी तीनों सीमाएं शत्रुओं से घिर गईं। ऐसे बचकाने, भयावह निर्णयों का विश्व-राजनीति मे उदाहरण खोजना कठिन है!

फिर, गाँधी के सांगठिनक मॉडल ने कांग्रेस को स्थायी तौर पर उत्तरदायित्व-हीन बना डाला। कांग्रेस को दोहरी सत्ता या ‘बैक-सीट ड्राइविंग’ का बोझ गाँधी की ही देन है! कांग्रेस का निर्वाचित नेतृत्व एक सत्ता थी, मगर उसे गाँधी रूपी अघोषित सत्ता के अनुसार चलना पड़ता था। उत्तरदायित्व लेकर प्रत्यक्ष नेतृत्व करने का रूप ठुकरा कर, गाँधी ने परोक्ष, किन्तु तानाशाही सत्ता चलाई। गाँधी की इसी आदत ने कांग्रेस में अनुत्तरदायी सत्ता परंपरा बनाई। बिना पद लिए सभी पदों पर नियंत्रण। जिस की नकल कई दलों में वही बीमारी फैल गई। फलतः हमारे अधिकांश नेता वैसी ही अनुत्तरदायी तानाशाह और उन के संगठन विचारहीन अनुयायियों के झुंड दिखते हैं।

इसी तरह, देश भर की कांग्रेस कमिटियों की इच्छा के विरुद्ध ‘जवाहर मेरा उत्तराधिकारी होगा’ जैसे बयान देकर गाँधी ने एक अयोग्य, किन्तु निजी प्रेम-पात्र को देश पर थोपा। ऐसी दोहरी सत्ता तथा उत्तरदायित्व-हीनता वाले गाँधी-मॉडल ने कांग्रेस को विचारहीन, पाखंडी बनाया।

वस्तुतः राजनीतिक गाँधी की विरासत में कुछ भी अनुकरणीय नहीं है। उन के जीवन से केवल प्रत्यक्ष जन-सेवा की सीख लेनी चाहिए। उन का जीवन दिखाता है कि अपनी माता से मिली कुछ प्राथमिक हिन्दू शिक्षाओं पर निष्ठा रखकर तथा किसी भी जरूरतमंद की सहज, निःस्वार्थ सेवा करके ही गाँधी महान बने। यही और इतना ही उन की विरासत का जीवन्त पक्ष है। शेष को भुला देना ही अपने लिए और देश के लिए श्रेयस्कर है। याद रहे, स्वयं गाँधीजी के जीवनकाल में भारत के सभी मनीषियों, ज्ञानियों ने उन की अन्य किसी बात को उचित नहीं माना था।

शंकर शरण

लेखक राजनीतिशास्त्र के प्रोफेसर हैं.

bauraha@gmail.com

+919911035650

 

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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