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सावित्रीबाई फुले कैसे बनीं प्रथम महि‍ला शिक्षिका

 

आपने सुना होगा कि पुरुष की सफलता के पीछे स्त्री का हाथ होता है, लेकिन क्या आप जानते हैं कि सावित्री बाई फूले की सफलता और समाजसेवा के पीछे महात्मा ज्योतिबा फुले का अमूल्य योगदान रहा। आज जब देश सावित्री बाई फुले को याद कर रहा है, तो ऐसे में महात्मा ज्योतिबा फुले के जिक्र के बिना उनकी उपलब्धि की चर्चा अधूरी रह जाएगी।

लड़कियों और महिलाओं के उत्थान के लिए ज्योतिबा फुले ने करीब डेढ़ सौ साल पहले ही काम शुरू कर दिया था। उनके काम इतिहास के पन्नों में दर्ज हैं। वे जितने बड़े विचारक थे, उतने बड़े ही समाजसेवी, लेखक, दार्शनिक और क्रांतिकारी भी थे। ज्योतिबा फुले समाज के सभी वर्गो को शिक्षा प्रदान करने के बहुत बड़े हिमायती थे। खुद वे ज्यादा नहीं लिख पढ़ पाए, लेकिन उनका दृष्टिकोण, उनकी सोच, उनके विचार समाजहित के लिए थे। उन्होंने दलित समाज के लिए, खासकर महिलाओं के लिए खूब काम किया।  उस समय समाज में कितनी ही बुराइयां थीं। छुआछूत का भाव, अस्पृश्यता, मंदिरों में महिलाओं और पिछड़ी जाति के लोगों के प्रवेश पर पाबंदी। महात्मा ज्योतिबा फुले ने जाति आधारित विभाजन और भेदभाव के खिलाफ जमकर आवाज उठाई।

तब का समय और आज के समय में जमीन और आसमान का अंतर है। तब समाज में महिलाओं का जीवन बहुत ही मुश्किल भरा होता था, खासकर विधवाओं की स्थिति तो और भी दयनीय थी। महात्मा फुले ने उनके कल्याण के लिए काफी काम किया। जब समाज में कोई लड़की को पढ़ाना नहीं चाहता था, तब उन्होंने स्त्रियों की दशा सुधारने और उनकी शिक्षा के लिए 1848 में एक स्कूल खोला। ये स्त्रियों की शिक्षा के लिए खोला गया देश का पहला स्कूल था। उनकी जीवटता ऐसी थी कि जब लड़कियों को पढ़ाने के लिए कोई टीचर नहीं मिली तो अपनी पत्नी सावित्री जी को ही पढ़ा-लिखा कर इतना योग्य बना दिया कि वे स्त्रियों को पढ़ा सकें। कुछ लोगों ने उनके इस नेक काम में बाधा डालने की कोशिश की, लेकिन संघर्ष करने वालों की हार नहीं होती। पुणे के भिडेवाडा में पहले स्कूल की कामयाबी के बाद फुले दंपत्ति ने एक के बाद एक, लड़कियों के लिए तीन स्कूल खोल दिये।

दकियानूसी, रूढ़िवादी और पुरोगामी ब्राह्मणवादी ताकतों से उन दोनों ने सीधा वैर मोल ले लिया था। उन दिनों देश में दलित और स्त्रियों को शिक्षा का हक नहीं था. वे वंचित रखे जाते थे. ज्योतिबा-सावित्रीबाई ने इसी कारण वंचितों की शिक्षा के लिए गम्भीर प्रयास शुरू किये।

मनुस्मृति के अघोषित शिक्षाबन्दी कानून के विरूद्ध ये जोरदार विद्रोह था। इस संघर्ष के दौरान उन पर पत्थर, गोबर, मिट्टी तक फेंके गये पर सावित्रीबाई ने शिक्षा का महत्वपूर्ण कार्य बिना रुके निरन्तर जारी रखा। फ़ातिमा शेख़ और उनके परिवार ने इस काम में फुले दम्पत्ति का पूरा साथ और सक्रिय सहयोग दिया।

सावित्रीबाई फुले का जन्म 3 जनवरी 1831 को हुआ था। शिक्षा के क्षेत्र में इतना क्रान्तिकारी काम करने वाली सावित्रीबाई का जन्मदिवस ही शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाना चाहिए. अंग्रेजों के समय में जैसी औपचारिक शिक्षा थी, उसका मकसद “शरीर से भारतीय पर मन से अंग्रेज” क्लर्क बनाना था। इसलिए उन लोगों ने ना तो शिक्षा का व्यापक प्रसार किया और ना ही तार्किक और वैज्ञानिक शिक्षा पर जोर दिया।आज सावित्रीबाई फुले का स्मृति दिवस - Maharashtra Today

ज्योतिबा-सावित्रीबाई ने सिर्फ़ शिक्षा के प्रसार पर ही नहीं बल्कि प्राइमरी लेवल पर ही शिक्षा में तर्क और वैज्ञानिक शिक्षा पर जोर दिया. दोनों ने अन्धविश्वासों के विरुद्ध जनता को जागरूक किया। आज जब ज्योतिषशास्त्र जैसे विषयों को शिक्षा का अंग बनाने के प्रयास हो रहे हैं, तमाम सारी अतार्किक चीज़ें पाठ्यक्रमों में घोली जा रही हैं तो ऐसे में ज्योतिबा-सावित्री के संघर्ष को याद करना बेहद जरूरी है।

उन्होंने शिक्षा का अपना ‘प्रोजेक्ट’, चाहे वो लड़कियों की पाठशाला हो या प्रौढ़ साक्षरता पाठशाला, सिर्फ़ जनबल के दम पर खड़ा किया और आगे बढ़ाया। अड़चनों और तमाम संकटों का सामना बहुत ही बहादुरी से किया।

सावित्रीबाई के समय भी ज़्यादातर ग़रीबों को शिक्षा नहीं मिलती थी. दलितों को भी पढ़ाई लिखाई से दूर रखा गया था. आज शिक्षा का पहले के ज़्यादा प्रसार है। फ़िर भी बड़ी संख्या में ग़रीब आबादी इससे वंचित है. दलितों के लिए पढ़ना अब भी आसान नहीं हैं।

आजादी के बाद सत्ता ने धीरे-धीरे शिक्षा क्षेत्र से हाथ खींच लिए. 1991 की निजीकरण, उदारीकरण की नीतियों के बाद तो शिक्षा पूरी तरह बाज़ार के हवाले कर दी गई। सरकारी स्कूलों की दुर्गति,  प्राइवेट स्कूलों और यूनिवर्सिटी के मनमाने नियमों और खर्चीली शिक्षा की वजह से दलितों, पिछड़ों और गरीबों की पहुंच से शिक्षा और दूर होती जा रही है. आज एक आम इंसान बच्चों को डॉक्टर-इंजीनियर बनाने के सपने भी नहीं देख सकता।

 

अनिवार्य शिक्षा, छात्रवृत्तियाँ और आरक्षण ‘खेत में खड़े (बिजूके)’ की तरह हो गये हैं जिसका फ़ायदा मेहनतकश तबके को नहीं या बहुत ही कम मिल पाता है।

सावित्रीबाई को याद करते हुए विचार करने की जरूरत है कि उनके शुरू किये संघर्ष की आज क्या प्रासंगिकता है? नयी शिक्षाबन्दी तोड़ने के लिए गरीब-मेहनतकशों की एकजुटता का आह्वान करें और सबके लिए मुफ्त शिक्षा का संघर्ष आगे बढ़ाने की जरूरत है। सावित्रीबाई की मृत्यु प्लेगग्रस्त लोगों की सेवा करते हुए 10 मार्च 1897 हुई थी। अपना सम्पूर्ण जीवन मेहनतकशों, दलितों और महिलाओं के लिए कुर्बान करने वाली ऐसी जुझारू महिला को नमन। (03 जनवरी 1831 – 10 मार्च 1897)

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नीरू रानी

लेखिका हिंदी पढ़ाती हैं। सम्पर्क +917011867796, agrawalneeru4@gmail.com
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