लोकसभा चुनाव

चुनावी बांड योजना :  धनपशुओं की देहरी पर नाक रगड़ता लोकतन्त्र – प्रमोद मीणा

 

हिन्द स्‍वराज में गाँधी जी ने पश्चिमी ढंग के लोकतन्त्र को लेकर अपना असंतोष बहुत ही तीखे शब्‍दों में व्‍यक्‍त किया है। यहाँ तक कि उनका असंतोष और आक्रोश भाषा की नैतिक मर्यादा भी लांघ जाता है। वे उस लोकतान्त्रिक व्‍यवस्‍था के लिए ‘बांझ’ और ‘बेसवा’ शब्‍द का इस्‍तेमाल करते हैं। वास्‍तव में हिन्द स्‍वराज का ध्‍यान से अध्‍ययन करने पर हम पाते हैं कि गाँधी जी की आपत्ति लोकतन्त्र से न होकर धनपशुओं की क्रीतदास बन जाने वाली कथित लोकतान्त्रिक व्‍यवस्‍था से थी। और विडम्‍बना देखिए कि गाँधी को कांग्रेस से छीन लेने का दंभ भरने वाली कथित राष्‍ट्रवादी पार्टी की सरकार ने सत्‍ता में आने के बाद चुनावी वित्‍त के लेन-देन में पारदर्शिता के नाम पर जनवरी, 2018 से एक अधिसूचना के साथ जो चुनावी बांड योजना शुरु की, उसने धनपशुओं को परदे के पीछे से गुमनाम रहकर अपने चन्दे की ताकत से लोकतन्त्र को कथपुतली की तरह नचाने का खुला मौका दे दिया। चुनावी बांड एक अधिकृत बैंक (स्‍टेट बैंक ऑफ इंडिया) द्वारा जारी किया जाता है जो अपने खरीदे जाने के 15 दिनों तक वैध रहता है। किसी राजनीतिक पार्टी या एकाधिक पार्टियों को चन्दा देने वाला व्‍यक्ति या कॉरपोरेट अधिकृत बैंक से एक हजार, दस हजार, एक लाख या एक करोड़ मूल्‍य वर्ग में चुनावी बांड खरीद सकता है। चुनावी मौसम में कुछ निश्चित चरणों में ही अधिकृत बैंक चुनावी बांड जारी करती है।

यह योजना लाने के लिए भारतीय संसद द्वारा 2016 और 2017 के वित्‍तीय अधिनियमों द्वारा पूर्व में पारित चार अधिनियमों तक में संशोधन किया गया था – भारतीय रिजर्व बैंक अधिनियम, 1934 ; जन प्रतिनिधित्‍व अधिनियम, 1951 ; आयकर अधिनियम, 1961 और कम्‍पनी अधिनियम, 2013। चुनाव आयोग समेत कानून के विशेषज्ञों को इसप्रकार के संशोधनों से आपत्ति है। मुद्रा विधेयक के रूप में इस योजना को लाने पर भी विवाद है क्‍योंकि मुद्रा विधेयक के रूप में चुनाव से जुड़ी एक योजना का लाया जाना संविधान का उल्‍लंघन बताया गया था।

काले धन और भ्रष्‍टाचार के खिलाफ जुबानी जंग छेड़ने वाली भाजपा ने यू टर्न लेते हुए और चुनाव आयोग और विधि आयोग द्वारा पारदर्शी और निष्‍पक्ष चुनावों के लिए समय-समय अनुशंसित विभिन्‍न सुरक्षा उपायों को ताक पर रखकर चुनावी बांड के चोर रास्‍ते से देशी-विदेशी पूँजीपतियों के काले धन को लोकतन्त्र की चुनावी गंगा में डुबकी लगा पापमुक्ति का अवसर दे दिया। लेकिन इससे भी बड़ी त्रासदी यह है कि गाँधी के नेतृत्‍व में चले स्‍वाधीनता आन्दोलन की विरासत को आगे बढ़ाने का दावा करने वाली मुख्‍य विपक्षी पार्टी कांग्रेस ने भी चुनावी बांड योजना पर मौन सहमति दिखाई। वास्‍तविकता यह है कि चुनावी बांड वाले मसले पर भारतीय कम्‍यूनिस्‍ट पार्टी (मार्क्‍सवादी) को छोड़कर सभी राजनीतिक पार्टियाँ एकमत हैं। स्‍पष्‍ट है कि कहने के लिए हमारे यहाँ इतनी सारी राजनीतिक पार्टियाँ हैं लेकिन पूँजी के शिकंजे में फँसते लोकतन्त्र को बचाने के लिए सिर्फ एक राजनीतिक पार्टी आगे आई और तमाम राजनीतिक दलों में से सिर्फ इसी एकमात्र राजनीतिक पार्टी ने चुनावी बांड के खिलाफ सर्वोच्‍च अदालत का दरवाजा खटखटाया है। वैसे एक स्वयंसेवी संगठन एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (एडीआर) ने भी अदालत में इसके खिलाफ याचिका दायर की थी। लगभग एक साल से दोनों की याचिकाओं पर एक साथ सर्वोच्‍च अदालत में सुनवाई भी चल रही है।

सरकार का दावा था कि बैंक के माध्‍यम से चुनावी बांड खरीदकर राजनीतिक दलों के खातों में चन्दा जमा करने की इस व्‍यवस्‍था में बैंक के बीच में रहने से राजनीतिक दलों को मिलने वाले गुमनाम चंदों पर विराम लगेगा और चुनावी राजनीति में काले धन पर अंकुश लगेगा। लेकिन चुनावी बांड खरीदने वाले की पहचान गुप्‍त रखने का जो प्रावधान इस योजना में रखा गया, उसने सरकार की मंशा की कलई खोल दी। जब हर चुनाव में विभिन्‍न राजनीतिक दलों और उम्‍मीदवारों का चुनावी खर्च बेतहाशा बढ़ता जा रहा हो और नख-दंत विहीन चुनाव आयोग भी बढ़ते चुनावी खर्च पर अंकुश लगाने की स्थिति में न हो तो ऐसे में चुनावी बांड योजना काढ़ में खाज का ही काम करेगी। कॉरपोरेट से प्राप्‍त वित्‍तीय सहायता (चन्दा) इस चुनाव में प्रभावी भूमिका निभा रही है। सात चरणों तक चुनाव को खींचा जाना सत्‍ताधारी पार्टी के पक्ष में जा सकता है क्‍योंकि चुनावी बांड से प्राप्‍त अनाप-शनाप पैसा वह चुनाव प्रचार में झोंक रही है। प्रधानमन्त्री के नामांकन से पूर्व वाराणसी के रोड शो में पानी की तरह बहाया गया पैसा इसका उदाहरण है। एक-दूसरे के ऊपर आरोप-प्रत्‍यारोप लगाने वाले राजनीतिक दलों में भी चुनावी खर्च के स्रोतों पर बहस न करने को लेकर गजब का तालमेल दिखाई देता है। चुनावी बांड पर भी एक सुर में सुर मिलाती ये राजनीतिक पार्टियाँ चुनावी राजनीतिक में घर करते भ्रष्‍टाचार पर अपनी स्‍वीकृति की मुहर ही लगा रही हैं।

चुनावी बांड योजना चन्दा देने वाले की पहचान गुप्‍त रखकर चुनावी वित्‍त प्रबंधन की मायावी दुनिया के मायाजाल में और इजाफा करती है। इस योजना अन्तर्गत राजनीतिक दलों के लिए यह अनिवार्य नहीं है कि वे चुनावी बांड खरीदकर चन्दा देने वाले चन्दादाताओं की पहचान का विवरण दस्‍तावेज के रूप में दर्ज़ रखें और इस विवरण को सार्वजनिक करें। पहले आयकर में छूट के साथ-साथ पारदर्शिता हेतु पहले बीस हजार से ज्‍यादा चन्दा देने वाले दानदाताओं की पहचान का खुलासा सार्वजनिक करना अनिवार्य होता था। विधि आयोग ने तो अपनी 255वीं रपट में बीस हजार के नीचे के राजनीतिक चंदों को भी राजनीतिक पार्टी द्वारा सार्वजनिक किये जाने की अनुशंसा की थी बशर्ते ये सब मिलकर बीस करोड़ से ज्‍यादा हो जाते हैं या किसी राजनीतिक पार्टी विशेष को मिलने वाले कुल चन्दे का 20 प्रतिशत तक इस प्रकार के चंदों से प्राप्‍त होता है। विधि आयोग के इस सुझाव को बाद में कानून का हिस्‍सा भी बना लिया गया था।

भाकपा (मर्क्‍सवादी) का मानना है कि इस चुनावी बांड योजना से राजनीतिक पार्टियों को काला धन चन्दे के रूप में मिलेगा। इससे भष्‍टाचार को बढ़ावा मिलने के साथ-साथ आम जनता के प्रति राजनीतिक पार्टियों की जबावदेही में कमी आयेगी। इस योजना के खिलाफ भाकपा (मर्क्‍सवादी) द्वारा दाखिल याचिका के संदर्भ में अपना पक्ष रखते हुए केन्द्र सरकार ने राजनीतिक दलों की वित्‍तीय स्थिति में पारदर्शिता लाने का उल्‍लेख करते हुए निजता का जो तर्क दिया, वह चुनावी वित्‍तीय प्रबंधन के आंकड़ों को मतदाताओं की पहुँच से दूर रखने का कुतर्क ही कहा जाएगा। निजता के जिस अधिकार की दुहाई केन्द्र सरकार ने चन्दा देने वालों की पहचान गुप्‍त रखने के पक्ष में दी, वह आम जन के, मतदाताओं के सूचना के अधिकार का खुला उल्‍लंघन है। और फिर आधार कार्ड के संदर्भ में तो यही केन्द्र सरकार नागरिकों के निजता के अधिकार की जमकर अवहेलना करती दिखाई देती है। क्‍या पूँजीपतियों और कॉरपोरेट के लिए निजता की परिभाषा अलग होती है और आम नागरिक के लिए कुछ और होती है ॽ सार्वजनिक हित की कीमत पर विशेषाधिकारप्राप्‍त धनपशुओं की निजता को वरियता नहीं दी जा सकती। व्‍यक्ति की स्‍वायत्‍ता और निजा के अधिकार का सम्‍मान करते हुए भी भारतीय संविधान लोकहित को सर्वोपरी मानता है।

इस मामले में चुनाव आयोग ने चुनावी बांड योजना के खिलाफ अपने बचाव में दो हलफनामे प्रस्‍तुत किये थे। अपने हलफनामों में चुनाव आयोग ने विधि और न्‍याय मन्त्रालयों के साथ हुये अपने पत्राचारों के हवाले से बताया कि उसने तो चुनावी बांड योजना के लिए विभिन्‍न अधिनियमों में की जाने वाली छेड़छाड़ को लेकर अपनी विभिन्‍न आपत्तियाँ पहले ही दर्ज़ कर दी थीं। 26 मई, 2017 को भेजी गई अपनी आपत्तियों की चर्चा चुनाव आयोग ने इस संदर्भ में की थी। जन प्रतिनिधित्‍व अधिनियम में संशोधन करके चुनावी बांड की सूचना को उजागर न करने की छूट देने को चुनाव आयोग ने चुनावी चन्दे की पारदर्शिता के संदर्भ में एक पश्‍चगामी कदम बताया था। आयोग ने अदालत में जमा किये गये अपने शपथपत्रों में चुनावी बांड योजना अन्तर्गत चन्दा देने वाले की पहचान छिपाया जाना जन प्रतिनिधित्‍व अधिनियम, 1951 का उल्‍लंघन माना था।

पहले विदेशी स्रोतों से राजनीतिक दलों को चन्दा लेने की छूट नहीं थी लेकिन चुनावी बांड में वह रोक हटा ली गई। चुनावी चन्दे में विदेशी स्रोतों से चन्दा प्राप्‍त करने को वैध बनाना और इसे लेकर किसी प्रकार की ऊपरी सीमा भी न रखना हमारे राष्‍ट्र की सम्‍प्रभुता के लिए भी गम्भीर खतरा है। वित्‍तीय अधिनियम, 2016 की धारा 236 के द्वारा विदेशी स्रोत की परिभाषा तक सरकार ने इस हेतु बदल डाली। राष्‍ट्रवादी सरकार की यह कैसी राष्‍ट्र के प्रति निष्‍ठा हैॽ हर बात में पूँजीवादी देशों की नज़ीर पेश करने वाली भारतीय पूँजीवादी व्‍यवस्‍था और केन्द्र सरकार चुनावी बांड के संदर्भ में इस बात को अनदेखा कर देती है कि अमेरिका, ब्रिटेन और फ्रांस आदि देशों में राजनीतिक चंदों का सार्वजनीकरण करना अनिवार्य है और विदेशी पूँजी से राजनीतिक पार्टियों को चन्दा दिये जाने पर भी रोक है। फ्रांस और कनाडा आदि में चन्दे की ऊपरी सीमा भी तय हैं।

चुनावी बांड योजना के तहत उन सुरक्षा प्रतिबंधों को भी उठा लिया गया जो चुनावों को कॉरपोरेट से प्रायोजित होने से रोकने के लिए रखे गये थे, जैसे कॉरपोरेट से मिलने वाले चुनावी चन्दे की ऊपरी सीमा हटाया जाना जबकि चुनाव आयोग ने भी वित्‍तीय अधिनियम, 2017 के माध्‍यम से राजनीतिक दलों को मिलने वाले कॉरपोरेट चन्दे की ऊपरी सीमा हटाया जाना गलत माना था। कम्‍पनी अधिनियम की धारा 182 (3) को हटाया जाना भी राजनीतिक चन्दे में काले धन के प्रवाह को बढ़ावा देगा क्‍योंकि यह धारा किसी भी कम्‍पनी के लिए यह अनिवार्य करती थी कि वह राजनीतिक चन्दे को अपनी आय और व्‍यय के विवरण में स्‍पष्‍ट रूप से दिखाए। कम्‍पनी अधिनियम में पहले यह प्रावधान रखा गया था कि सिर्फ वही कम्‍पनी राजनीतिक चन्दा दे सकती थी जो मुनाफा कमा रही हो। राजनीतिक चन्दा देने के लिए किसी कम्पनी के लिए कम से कम तीन सालों तक अस्तित्‍व में रहने की शर्त भी हुआ करती थी। साथ उसके खातों का विवरण भी साफ-सुथरे रिकॉर्ड वाला होना चाहिए था। ये तमाम प्रावधान काले धन को चुनावी तन्त्र से बाहर रखने के लिए किये गये थे। लेकिन इन सबको अब हटा दिया गया है। लगता है कि भ्रष्‍टाचार मुक्‍त सरकार देने का दावा करने वाली भाजपा को उन फर्जी कम्पनियों की कोई परवाह ही नहीं है जो सिर्फ राजनीतिक दलों को चुनावी चन्दा देने के लिए रातों-रात खड़ी की जाती हैं। वास्‍तव में कम्पनी अधिनियम में बदलाव करने से फर्जी कम्पनियों की बाढ़ आ जाएगी। चुनावी चन्दा देने के लिए ही इस प्रकार की फर्जी कंपनियाँ खोली जायेंगी और इन कम्पनियों के रास्‍ते काला धन राजनीति में वैधता प्राप्‍त कर जाएगा।

चुनावी बांड के लेन-देन की पूरी जानकारी सिर्फ अधिकृत सार्वजनिक क्षेत्र के बैंक को ही होती है जिसे चुनावी बांड जारी करने के लिए अधिकृत किया जाता है। और बैंक चुनावी बांड खरीदने वालों का विवरण सार्वजनिक नहीं करता है। किन्तु यह स्‍पष्‍ट है कि चुनावी बांड से जुड़े तमाम आंकड़े और सूचनायें रिजर्व बैंक के मार्फत केन्द्र सरकार की पहुँच के दायरे में रहते हैं। और इस बात की क्‍या गारंटी है कि सत्‍तारूढ़ पार्टी इन आंकड़ों का इस्‍तेमाल दलों की आर्थिक नाकेबन्दी के लिए नहीं करेगी ॽ

चुनावी बांड योजना अन्तर्गत चुनावी बांडों की खरीद-फरोख्‍त में बैंक को मध्‍यस्‍थ बनाने के पीछे केन्द्र सरकार का यह भोला-भाला तर्क था कि बैंकों के माध्‍यम से वित्‍तीय लेन-देन होने पर भ्रष्‍टाचार और काला धन रुकता है लेकिन हम सब जानते हैं कि पूँजीवादी तन्त्र में बैंक स्‍वयं गैर कानूनी लेन-देन को वैध रूप देते आये हैं। वर्तमान केन्द्र सरकार के पाँच सालों के कार्यकाल में जिस प्रकार के बड़े-बड़े बैंक घोटाले सामने आये हैं, वे अपने आप में काफी-कुछ बयाँ कर देते हैं।

चुनावी बांड की गोपनीयता के मायने यह भी है कि आम नागरिक इस योजना की सोशल ऑडिट भी नहीं कर सकते क्‍योंकि चुनावी बांडों के खरीददारों और उनसे लाभान्वित राजनीतिक दलों की पहचान इस योजना में गुप्‍त रखी गई है। ऐसे में नीतिगत निर्णयों के पीछे काम करते चुनावी बांडों से प्राप्‍त चन्दे के दबाव को भी नहीं पहचाना जा सकता जबकि सार्वजनिक पदों पर काबिज शीर्ष नेतृत्‍व द्वारा लिये गये तमाम नीतिगत निर्णयों को लोक की आलोचना और सोशल ऑडिट से गुजरना ही चाहिए। नीतिगत निर्णयों में होने वाले पक्षपात को रोकने के लिए चुनावी बांड की गोपनीयता समाप्‍त करने और इनकी सोशल ऑडिट सुनिश्चित करना जरूरी है।

चुनाव आयोग जैसी प्रतिष्ठित और स्‍वायत्‍त संवैधानिक संस्था की आपत्तियों और शपथपत्रों (दो शपथपत्रों) के विरुद्ध जाकर केन्द्र सरकार ने आर्थिक मामलातों के अपने विभाग की तरफ से सर्वोच्‍च अदालत में चल रहे इस मामले के अन्तर्गत चुनावी बांड योजना के बचाव में 2 अप्रैल 2019 को एक जबावी शपथपत्र प्रस्‍तुत किया। केन्द्र सरकार ने चुनाव आयोग की आशंकाओं और आपत्तियों को सिरे से खारिज करते हुए राजनीतिक चन्दे में पारदर्शिता और जबावदेही की दृष्टि से चुनावी बांड को उल्‍टे अभूतपूर्व कदम बताया। चुनाव आयोग की स्‍वायत्‍तता और विवेक को ठेंगा दिखाती इस सरकार से इतर चुनाव आयोग ने तो अपने शपथपत्रों में चुनावी बांड के खिलाफ जाकर यह तक अदालत को बताया था कि उसने समय-समय पर उम्‍मीदवारों और राजनीतिक दलों को दिशा निर्देश दिये कि वे अपने चुनावी चन्दे और चुनावी खर्च का ब्‍यौरा सार्वजनिक करे। एक तरफ चुनाव आयोग द्वारा दिये जाने वाले ये दिशा निर्देश हैं तो दूसरी तरफ इन दिशा निर्देशों पर पानी फेर देने वाली चुनावी बांड योजना है। वास्‍तव में चाहे यूपीए सरकार हो या एनडीए सरकार हो, चुनाव आयोग ने बारम्बार राजनीतिक दलों की आय-व्‍यय में पारदर्शिता लाये जाने की माँग की है। उसने राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों को सार्वजनिक करने और चुनाव खर्च को सीमित करने पर बल दिया है। राजनीतिक दलों की आय और उनके व्‍यय का नियमित हिसाब-किताब रखे जाने पर भी उसका जोर रहा है।

सर्वोच्‍च अदालत में दिये गये अपने जबावी शपथ पत्र में केन्द्र सरकार चन्दा दाता की पहचान गुप्‍त रखने के बचाव में निजता के अधिकार का हवाला देते हुए यह छोटी सी बात भूल गयी कि वाचन और अभिव्‍यक्ति की स्‍वतन्त्रता के लिए, मतदान की स्‍वतन्त्रता के अधिकार के लिए सूचना का अधिकार बहुत जरूरी है। चन्दादाता की पहचान छिपाकर केन्द्र सरकार नागरिक के मत देने की आजादी के साथ परोक्ष रूप से खिलवाड़ कर रही है। हमें यह याद रखना चाहिए कि एक सूचना सम्‍पन्‍न मतदाता के हाथों ही हमारे लोकतन्त्र का भविष्‍य सुरक्षित रह सकता है। मतदाता के लिए मतदान से पहले यह जानना बेहद अहमीयत रखता है कि जीतने के बाद किसी उम्‍मीदवार या राजनीतिक पार्टी की जबावदेही किसके प्रति होगीॽ सब जानते हैं कि गोपनीयता और पारदर्शिता एक-दूसरे के विलोम सदृश्‍य हैं किन्तु सरकार दोनों में कोई सम्बन्ध नहीं इस योजना के संदर्भ में नहीं देख पाई !

चुनावी बांड का अन्ध समर्थन करने वाली वर्तमान केन्द्र सरकार की हठधर्मिता का रहस्‍य इस तथ्‍य में निहित है कि चुनावी बांडों से मुख्‍य सत्‍तारूढ़ पार्टी – भाजपा को अभूतपूर्व फायदा हुआ है। कॉरपोरेट ताकतों ने बड़े पैमाने पर भाजपा को चुनावी बांडों से चन्दा मुहैया कराया है। मुख्‍य पार्टी कांग्रेस के अध्‍यक्ष यदि इस आम चुनाव को अमीर बनाम गरीब की लड़ाई बता रहे हैं, तो वे कुछ गलत नहीं कर रहे हैं। अभी भी वर्तमान में नब्‍बे फीसदी चुनावी बांड सत्‍ताधारी पार्टी अर्थात भाजपा के खाते में गये हैं। यूपीए सरकार द्वारा भी चुनावी ट्रस्‍ट की जो योजना राजनीतिक चन्दे की पारदर्शिता तय करने के लिए लाई गई थी, उससे भी सर्वाधिक फायदा भाजपा को ही हुआ था। कारण साफ है कि पूँजीवादी शक्तियाँ अपनी मित्र राजनीतिक पार्टियों को ही चन्दा आदि देती हैं। भारतीय लोकतन्त्र को धनपशुओं का चारागाह बनने से रोकन की जगह चुनावी बांड लाकर तो सरकार ने लोकतन्त्र की सम्‍प्रभुता को ही थाली में सजाकर उनके भक्षण के लिए उनके सामने प्रस्‍तुत कर दिया है।

राजनीतिक पार्टियों को दिये जाने वाले वित्‍तीय चन्दे के संदर्भ में विगत अनुभवों को देखते हुए इस बात की आशंकाओं से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी राजनीतिक पार्टीविशेष को चन्दा देने वाला पूँजीपति या उद्योगपति उस पार्टी के सत्‍ता में आने पर सरकार की आर्थिक-सामाजिक-सैन्‍य आदि नीतियों और अन्तर्राष्‍ट्रीय सम्बन्धों को प्रभावित नहीं करेगा। हितों का साफ-साफ टकराव हम राफेल सौदे में देख ही रहे हैं। अत: जनता को यह जानने का अधिकार होना ही चाहिए कि नीतिगत पक्षपात और चुनावी चन्दे के बीच का रिश्‍ता कैसे काम करता है। मतदाताओं को यह जानने का हक है कि जिस राजनीतिक पार्टी और जिस उम्‍मीदवार को वह मत दे रहा है, उसके चुनाव प्रचार में किस-किस कम्पनी की और किस-किस कॉरपोरेट की पूँजी लगी हुई है। हमें इस कटु यथार्थ को समझना होगा कि लोकतन्त्र अब कोई मंदिर नहीं रह गया है जहाँ गुप्‍त दान की अनुमति दी जाए। और हमें यह भी ध्‍यान रखना होगा कि बापू के इस देश में चुनाव जीतने के लिए इस्‍तेमाल होने वाले तमाम साधनों की शुचिता को बिना सुनिश्चित किये हम बापू के वारिस होने का दावा नहीं कर सकते।

भ्रष्‍टाचार मिटाने और काला धन खत्‍म वापस लाने का वादा करके 2014 में प्रचण्ड बहुमत से सत्‍ता में आई मोदी सरकार ने जिस प्रकार विमुद्रीकरण जैसी वाहियात योजनाओं से अपने मानसिक दिवालियेपन का परिचय दिया, उसी प्रकार चुनावी वित्‍त में पारदर्शिता के नाम पर 2017 में चुनावी बांड योजना लाकर उल्‍टे राजनीतिक दलों के खातों में काले धन की वैध जमाबन्दी का रास्‍ता खोल दिया क्‍योंकि यह योजना फर्जी कम्पनियों के माध्‍यम से काले धन को चुनावी चन्दे के रूप में सफेद करने का सुनहरा मौका मुहैया कराती है।

चुनाव आयोग ने तो अपने शपथपत्रों में चुनावी बांड के खिलाफ जाकर यह तक अदालत को बताया कि उसने समय-समय पर उम्‍मीदवारों और राजनीतिक दलों को दिशा निर्देश दिये हैं कि वे अपने चुनावी चन्दे और चुनावी खर्च का ब्‍यौरा सार्वजनिक करे। एक तरफ चुनाव आयोग द्वारा दिये जाने वाले ये दिशा निर्देश हैं तो दूसरी तरफ इन दिशा निर्देशों पर पानी फेर देने वाली चुनावी बांड योजना है। वास्‍तव में चाहे यूपीए सरकार हो या एनडीए सरकार हो, चुनाव आयोग ने बारम्बार राजनीतिक दलों की आय-व्‍यय में पारदर्शिता लाये जाने की माँग की है। उसने राजनीतिक दलों को मिलने वाले चंदों को सार्वजनिक करने और चुनाव खर्च को सीमित करने पर बल दिया है। राजनीतिक दलों की आय और उनके व्‍यय का नियमित हिसाब-किताब रखे जाने पर भी उसका जोर रहा है।

इस पूरे मामले की सुनवाई करते हुए सर्वोच्‍च अदालत ने गत अप्रैल माह में अपना अन्तरिम आदेश सुनाते हुए राजनीतिक दलों को निर्देश दिया कि वे चुनावी बांड योजना के तहत प्राप्‍त चन्दे का पूरा विवरण सीलबन्द लिफाफे में चुनाव आयोग को सौंप दें। सर्वोच्‍च अदालत का यह अन्तरिम आदेश मामले की गम्भीरता को देखते हुए अपर्याप्‍त और यथास्थितिवादी है। एक साल पहले जब इस योजना को अदालत में चुनौती दे दी गई थी, तो सर्वोच्‍च अदालत को आम चुनावों को देखते हुए समय रहते इस मुद्दे के तमाम पहलुओं पर गम्भीरता से विचार करते हुए चुनावी बांडों की अंधेरी काली दुनिया को बेनकाब करना चाहिए था ताकि इन आम चुनावों में काले-सफेद धन की लीला का खेला रोका जा सकता। चुनावी बांडों के खरीददारों और उनसे लाभ प्राप्‍त राजनीतिक दलों का विवरण लिाफाफों में सीलबन्द करवानेमात्र से आम चुनावों में कॉरपोरेट निधि के कुप्रभाव पर अंकुश नहीं लग सकता था। और अगर आम चुनाव गुजर जाने के बाद चन्दादाताओं और चन्दाप्राप्‍तकर्ताओं का विवरण सार्वजनिक करने का निर्णय अदालत द्वारा सुना भी दिया जाता है तो भी आम चुनाव के परिणामों को तो फिर संशोधित नहीं किया जा सकेगा। सर्वोच्‍च अदालत का यह निर्णय मतदाताओं के सशक्तिकरण और चुनावी राजनीति में शुचिता लाने के लिए सक्रिय रही सर्वोच्‍च अदालत की अपनी खुद की परम्परा से सर्वोच्‍च अदालत का विचलन है। बहरहाल यही उम्‍मीद की जा सकती है कि देश की सबसे बड़ी पंचायत देश के लोकतान्त्रिक ताने-बाने को बचाने के लिए जल्‍द से जल्‍द चुनावी बांड की वैधता पर अन्तिम निर्णय दे पाएगी।

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प्रमोद मीणा

लेखक भाषा एवं सामाजिक विज्ञान संकाय, तेजपुर विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर हैं। सम्पर्क +917320920958, pramod.pu.raj@gmail.com
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