आर्थिकीदेश

लोकतन्त्र उत्तरपूँजी का नवराष्ट्रवादी चेहरा हो गया है

 

भारत के 2019 के लोकसभा चुनावों ने इस बात को साबित कर दिया है कि हम उत्तरपूँजी के वैश्विक खेल की एक कड़ी बनने की स्थिति में आ गये हैं। हम उस दिशा में जा रहे हैं, जिधर अमेरिका और यूरोप की बहुराष्ट्रीय कार्पोरेट पूँजी उन्हें धकेल कर लिये जा रही थी। फिर भी हमारे यहाँ जो हुआ वह इन विकसित देशों में हो रहे परिवर्तनों से काफी अलग है। वजह यह है कि उत्तरपूँजी की विशाल पशुकाया मे हमारी हैसियत एक पूँछ से अधिक नहीं।

इसलिए उत्तरपूँजी की देह में थोड़े से उछाल को ही अनुभव कर हम उसकी दुम की तरह और  ज़ोर से हिलने लगते है, ताकि हमारी वफादारी दूर से ही पहचानी जा सके।  2019 के लोकसभा के चुनावों में यह आकस्मिक नहीं है कि हम अमेरिकी चुनावों की पैरोडी सी करते दिखायी दिये। जब अमेरिका में पिछले चुनाव हुए, तो ट्रम्प अपने देशवासियों को यह कहकर लुभाते हुए सत्ता में आते हैं कि वे फिर से अमेरिका को महान बनाएँगे जब उन्होंने ‘लेट्स मेक अमेरिका  ग्रेट अगेन’ की बात की, तब बहुत से लोगों ने सवाल उठाए थे कि अमेरिका अतीत में कब इतना महान था और आज वे पिछले  किस दौर में अमेरिका को फिर से ले जाना चाहते हैं?  ज़ाहिर है यह कोई तथ्य आधारित बात नहीं है, चुनावी नारा है, जिसे अतिप्रचार के द्वारा लोगों के गले से नीचे उतार दिया गया। यह एक मनोवैज्ञानिक धारणा को प्रचार के ज़रिये इतिहास को सच में बदल देने की बात है। चूँकि भारत में भी हमारे चुनावों में इससे कुछ मिलती जुलती बात घटी है, इसलिये इसे समझना ज़रूरी लगता है।

अतीत का मानव जाति के द्वारा सदा आदर्शीकरण कर लिया जाता है। मानवजाति, पीछे जो छूट गया है उसमें अपनी महानता के तत्वों को खोजती रहती हैं। हालाँकि यह खोज वर्तमान के दबावों और भविष्य को गढ़ने की ज़रूरतों से जुड़ी होती है, परन्तु उसे इतिहास की खूंटी पर टांग दिया जाता है। लोगों की अतीत के आदर्श रूपों में आस्था होती है। ऐसा करने से लोगों को वर्तमान और भविष्य के बारे में गढ़ी गयी योजनाओं पर भी आस्था होने लगती है। अमेरिका में ट्रम्प को ईश्वर के द्वारा भेजा गया मसीहा तक कहा गया, जो अब वहाँ के अर्थतन्त्र को मंदी से उबारने के लिये वहाँ उठ खड़ा हुआ था। हमारे यहाँ भी मोदी की छवि गढ़ने वाले उसे वाम या छद्म धर्मनिरपेक्ष चेहरे वाले अन्यदलीय असुरों का राजनीतिक संहार करने वाले की तरह पेश करते देखे गये हैं। सतत जप वाली परम्परा का इस्तेमाल भी ‘मोदी मोदी’ के उद्घोष की तरह उनकी राजनीतिक रैलियों में होता रहा है।

इस बात को एक और तरीके से भी समझा जा सकता है। हम जब बड़े होते हैं तो आमतौर पर बचपन को अपनी रूमानी चेतना के द्वारा एक खोए हुए स्वर्ग में बदल लेते हैं।  हमारी संस्कृति इस शिशुता को भोलेनाथ या बालनाथ बना लेती है और वहाँ सहज विश्वास और प्रेम के महान सत्य की खोज करने लगती है। अक्सर बचपन के भोलेपन में सत्य, निष्ठा, ईमानदारी और आस्था जैसी बातों के तत्व खोज लिये जाते हैं और उन्हें  बड़े होने के साथ जुड़ी जटिलताओं के विकल्प की तरह पेश कर लिया जाता है।  इसे दूसरों की आलोचना करने की वजह भी बनाया जाता है। इसी तर्ज पर बार-बार अतीत का पुनः उद्बोधन या पुनरुत्थान किया जाता है। इसका इस्तेमाल उत्तर पूँजी ने इसी तरह के मनोवैज्ञानिक आधार पर करना शुरू कर दिया है। तो जब ज़रूरत पड़ती है,  राजनीति भी अतीत का अपनी निर्मल छवि गढ़ने के लिये इस्तेमाल  करना आरम्भ कर देती है। भारत के हाल के  चुनावों में बार-बार इस तरह की बातें प्रचार की वस्तु बनती है कि भारत को अपनी अतीत की उस महानता को पुनः पाना है, जिसे उसने खो दिया है। उसे एक बार फिर से विश्व गुरु बनाना है। दूसरी बात यह दोहराई गयी कि भारत को आर्थिक महाशक्ति बनाने का समय आ गया है। 2014 के चुनावों को देखिए। तब से एक नारा चल रहा है,  ‘इंडिया शाइनिंग’ का।  फिर इस बात का आधार लेकर ‘मेक इन इंडिया’ की बातें की जाने लगीं। इन नारों की भाषा देखिये। हिन्दी और संस्कृत को अपना भाषागत धर्म मानने वाली भाजपा के मुख्य नारे अंग्रेज़ी में हैं। वे करपोरेट पूँजी वाली दुनिया से आये हैं, जिनका हिन्दूकरण कर लिया गया है।

यहाँ राष्ट्र को केन्द्र में रखने की बात मुख्य है। उन सभी देशों में, जहाँ कार्पोरेट पूँजी की भूमिका दिखायी देती है, यही हो रहा है। उत्तर पूँजी का मूल एजेंडा यह है कि अब जैसे भी हो, पूँजी को नव राष्ट्रवाद का संरक्षण देकर  समेटा जाए। इसलिए यह प्रयास होने लग पड़ा है कि पूरी दुनिया में राष्ट्रवाद और देशभक्ति के एक नए उभार को लाया जाए। इसी आग्रह के ज़ोर पकड़ने से  यूरोप में इंग्लैंड ब्रेक्सिट की ओर चला गया। यही नहीं, अनेक दूसरे देशों में भी दक्षिणपन्थी सरकारें वहाँ के अपने अपने तरीके से राष्ट्रवादी होती हुईं स्थापित होती दिखाई देती है। इसलिए इस बात को केवल एक संयोग नहीं कहा जा सकता कि भारत में  अचानक देशभक्ति और राष्ट्रवाद की आँधी कैसे आ गयी। सच्चाई यह है कि वह खुद ब खुद नही आयी, यह लायी गयी है।

उत्तरपूँजी  के बड़े मुनाफे के तन्त्र का आधार सूचना प्रौद्योगिकी में है। इसलिए उसका अधिक दारोमदार सूचनाओं के उत्पादन और पुनरुत्पादन पर टिका रहता है। मानव जाति ने इस क्षेत्र में अभूतपूर्व तरक्की की है। पूरे समाज के चित्त को प्रभावित करने के लिए सूचनाओं के महातन्त्र का निर्माण किया जा चुका है। उत्तर पूँजी का आरंभिक दौर मुक्त बाजार का था। इसलिए 1990 के बाद से अचानक पूरी दुनिया में ऐसी सरकारें लायी जाने लगी, जो अपने बाजार को खोलने की दिशा में आगे बढ़ीं। तब यह कहा और माना जाता था  कि वे देश ही अब तरक्की करेंगे, जो अपने देशों में आर्थिक सुधार लाएँगे। आर्थिक सुधारों का अर्थ यह था कि उन्हें अपने बाजारों को दूसरे देशों के लिए खोलना था। निजीकरण को प्रोत्साहित करना था और बहुराष्ट्रीय कंपनियों के लिए अपने देशों में प्रवेश के लिए हालात को और अधिक सुविधा जनक बनाना था। उसी आधार पर विश्व बैंक के कर्ज  दिए जाते थे और उसी आधार पर अन्य वैश्विक संस्थाएँ जैसे आयीएमएफ आदि अपना कार्य करती दिखाई दे रही थीं। परन्तु पिछले 10-15 वर्षों से यह लगने लगा था कि उत्तर पूँजी का वह जो बहुराष्ट्रीय तन्त्र था, उसमें अब विकासशील देशों के शिक्षित नौजवानों की मौजूदगी का अनुपात बढ़ रहा था। इस कारण नौकरियों के मामले में एक तरह का समाजवाद आना आरम्भ हो गया था। परम्परागत श्रमिक वाली दुनिया पहले से ही बहुत सीमित हो गयी थी। परम्परागत श्रमिकों के लिए जो रोजगार उपलब्ध हो सकते थे, उनका अब एक ऐसा स्तर आ गया था जिसका आगे विकास संभव नहीं था। अब आगे विकास उच्च तकनीकी की दुनिया में ही मुमकिन था। वहाँ उच्च तकनीकी की शिक्षा पाने वाले दक्ष श्रमिकों या स्किल्ड लेबर के लिए अधिक जगह बन रही थी। इस क्षेत्र में अब यूरोप और अमेरिका के अपने नौजवानों के लिए उपलब्ध ऐसे रोजगार कम हो रहे थे जिनमें अधिक वेतन उपलब्ध थे। दूसरी बात यह है कि अब सूचना प्रौद्योगिकी के कारण बहुराष्ट्रीयकरण की स्थिति बदल गयी थी। हो यह रहा था कि चीन और भारत में सूचना प्रौद्योगिकी के अपने ऐसे विकसित केन्द्र बन गए थे जो अमेरिका की सिलीकान वैली का मुकाबला करने के लिए अपनी दावेदारी पेश करने लगे थे। इसलिए पश्चिम में  सारी बात अब अर्थतन्त्र के संकोच की हो गयी। राष्ट्रवाद की ओर मुड़ने के ये मुख्य कारण हैं। इसे पश्चिम अपने हितों के मद्देनज़र बाकी दुनिया में प्रयास पूर्वक ला रहा है। इसका मतलब यह है कि हम यह जो 2019 के चुनावों के कुछ पहले से अचानक इतने देशभक्त और राष्ट्रवादी हो गये हैं, वह इसलिये की हम जाने अनजाने पश्चिम के हाथों मे नाचने वाली कठपुतली हो गये हैं। इस का फायदा उन्हें होता है, हमें नहीं।

यह राष्ट्रवाद, साम्राज्यवादी दौर को जन्म देने वाले औद्योगिक पूँजी से पैदा हुए राष्ट्रवाद जैसा नहीं है। साम्राज्यवाद अब बाज़ारवादी विश्ववाद में बदल गया है। यह विश्ववाद की  विस्तारवादी दौर की संभावनाएँ चुक गयी हैं। अतः वह नवराष्ट्रवादी संकोच और अंतःसीमन की ओर आ रहा है। इसलिए इसमें उस तरह का युद्धोन्माद और पूरी दुनिया को अपना उपनिवेश बनाने की बात नहीं है। यहाँ तो उत्तर पूँजी के मुनाफे को ब्रैंड या बौद्धिक संपदा  बनाकर अपने ही देशों में सीमित रखने का सवाल केन्द्र में आ गया है। इसीलिये अब यूरोप और अमेरिका की अतिरिक्त उत्तर पूँजी की दुनियाँ यह कोशिश कर रही है कि पूरी दुनिया में ऐसी सरकारें बना दी जाए, जो अपने अपने देश को मजबूत करने का प्रयास करें तथा इनकी ओर करज़े के लिए या और दूसरी तरह की जरूरतों की पूर्ति के लिए ना देखें। वह इन देशों से मुनाफा तो कमाना चाहते हैं, परन्तु इन देशों के इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में अपना योगदान नहीं देना चाहती है। यह जो नया मोड़ आया है उसके पीछे कारण यह है कि जिन देशों में बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने अपने उपकेन्द्र खोले थे, उनकी सरकारों ने उन पर इस तरह की  पाबंदियाँ लगाने शुरू कर दी थी कि वे अपनी कमाई के एक हिस्से को उन देशों के इन्फ्रास्ट्रक्चर के विकास में लगाएँगी। अब यह उत्तर पूँजी वाली दुनिया अपनी इस जिम्मेदारी से भाग रही है। इसलिए वह सभी देशों को देश भक्ति और राष्ट्रवाद की ओर मोड़ने में अपनी सूचना प्रौद्योगिकी को झोंक रही है। ऐसा करने से उनकी उन देशों के प्रति जिम्मेदारियाँ कम हो जाती हैं, जिन देशों में अपने उप केन्द्र खोलकर वे मुनाफा कमा रही होती हैं। इसलिए उन देशों को  अब राष्ट्रवाद और देशभक्ति की राह पर चलाने के लिए पूँजी की शक्ति का परोक्ष इस्तेमाल किया जाने लग पड़ा है।

यहाँ जो बात समझने की है वह यह है कि जिसे हमारे जैसे देश राष्ट्रवाद और देशभक्ति के रूप में देखते हैं वह बहुराष्ट्रीय कंपनियों को उनकी बहुराष्ट्रीय जिम्मेदारियों से मुक्त करने के लिए खड़ा किया गया राजनीतिक षडयंत्र है। इसमें हम सब लोग जाने अनजाने फंसते चले जा रहे हैं।

पता भी हो तब भी उनकी तरफ से आने वाली पूँजी की इतनी बड़ी भूमिका हमारे लोकतांत्रिक चुनावों में होने लगी है कि उसके बिना कोई राजनीतिक दल अपनी जीत के लिए मार्ग खुलता हुआ नहीं पाते हैं। इसका फायदा उन कंपनियों को  यह होता है कि चुनावों में उनकी ओर से आने वाली अकूत संपदा के बल पर वे  अपने एजेंडे के मुताबिक कुछ देशों में देशभक्त सरकारें बना पाने में कामयाब हो जाती हैं।  वे अपने पसंदीदा राजनीतिक दलों को सूचना प्रौद्योगिकी के माध्यम से भी बहुत मदद पहुँचाती है। इनके द्वारा किन्ही राजनीतिक दलों एवं उनके नेताओं की छवि को गढ़ कर खड़ा किया या गिराया जाता है। सोशल मीडिया के विभिन्न मंचों के द्वारा उस छवि का जन-जन तक विस्तार करने के लिए आधार निर्मित किया जाता है। इसके अलावा ऐसे दलों और राजनेताओं को राष्ट्रवादी एवं देश भक्त सिद्ध करने के लिए  पूरे इतिहास और वर्तमान की विभिन्न घटनाओं की मनमानी व्याख्याएँ तक करवाई या उपलब्ध कराई जाती है। फिर उन  का लगातार प्रचार होता रहता है। इसे लोगों के भीतर विचारों के उत्पादन के रूप में देखा जाता है। उपलब्ध करा  दी गयी सूचनाएँ धीरे-धीरे लोगों के अपने विचारों में बदलती चली जाती हैं। इनकी मदद से ऐसे राजनीतिक दल अपनी सफलता के लिए अपनी राह को अधिक आसान हुआ पाते हैं। इस सूचना प्रौद्योगिकी के सहारे झूठ को सच बनाने की बहुत सी नई तकनीकें आ गयी है। स्टूडियो में झूठी वीडियोस का निर्माण या चित्रों के हेरफेर के द्वारा झूठी सूचनाओं को सच बनाने के लिए, तथ्यपरक रूप देना अब बेहद आसान हो गया है।

इन सारी उत्तर आधुनिक सूचना तकनीकों का पूरी दुनिया के राजनीतिक तन्त्र के द्वारा अपने चुनावों में बेशर्मी से इस्तेमाल किया जाने लगा है। भारत के हाल के चुनाव में भी इसकी एक बड़ी भूमिका दिखाई देती रही है।

हाल के चुनावों के संदर्भ में एक अन्य बात है, सभी तरह की  वाम परक विचारधाराओं से छुटकारा पाने का प्रयास। पिछले समयों  की औद्योगिक पूँजी का जो तन्त्र विकसित हुआ था, उसके सामने वाम की एक बड़ी चुनौती थी। उसके कारण ऐसे राजनीतिक तन्त्र की जरूरत पड़ रही थी जो मुनाफों का न्यायपूर्ण वितरण करके अपने राज्यों में कल्याणकारी योजनाओं को लुभावने वादों की तरह लाने के लिये काम करता था और उसके आधार पर वोट बटोरने का प्रयास करता रहा था।  कल्याणकारी राज्य की सारी अवधारणा औद्योगिक पूँजी के मुनाफावादी तन्त्र की लूट को बनाए रखने और उसे एक मानवीय चेहरा प्रदान करने से जुड़ी थी। अब दुनिया उस से एक कदम आगे निकल आयी है। अब मामला कल्याणकारी योजनाओं को लाने का भी नहीं रहा। हाल के चुनावों में कांग्रेस की न्याय योजना उसी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा से निकली थी, परन्तु वह पिछड़ गयी। मनमोहन सिंह से लेकर अमर्त्य सेन और रघुराम राजन तक अभी उसी को संभावनापूर्ण मान कर चल रहे हैं। न्याय योजना में रघुराम राजन की भूमिका थी, यह बात किसी से छिपी नहीं है। परन्तु वह इच्छित परिणाम नहीं ला सकी। उसके मुकाबले नवराष्ट्रवादी सोच खड़ी  थी, जो उस पर भारी पड़ी।

नवराष्ट्रवादी सोच अब विकास के अलग तरह के आख्यान के रूप में प्रचारित होने लग पड़ी है। विकास का यह नया आख्यान अब बेहद हवाई हो गया है। वह भविष्य के आख्यान की तरह प्रस्तुत हो रहा है।  उसमें बीमा कंपनियों की बड़ी भागीदारी है। कहा जा रहा है कि निजी और बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ अब  सामाजिक कल्याण की योजनाओं को लोगों का सार्वजनिक किस्म का बीमा करके ज़मीन पर उतारेंगीं। इसलिये देशभक्त सरकारें अब लोगों को व्यापक रूप में अपना बीमा कराने के लिए प्रोत्साहित करने लग पड़ी  हैं। इसके पीछे सोच यह है कि अब लोग अपने कल्याण के लिये खुद अपनी ज़िम्मेवारी लें। वे अंशदान करें, ताकि इकट्ठे किये गये धन का एक हिस्सा संकट के क्षणों में उन तक पहुँच सके। इसलिए अब सीधी विकास योजनाओं की जगह बीमा आधारित योजनाएँ अधिक लुभावनी बना दी गयी है। इसका परोक्ष फायदा बीमा कंपनियों को होता है। वजह यह है कि बीमा केवल उन्हीं को लाभ पहुँचाता है जिनके सामने कोई वास्तविक संकट होता है। इस तरह पूरे समाज को अतिरिक्त पूँजी में हिस्सेदार बनाने की जरूरत से बचा जा सकता है।

इस प्रकार नवराष्ट्रवादी अर्थतन्त्र  के विजय अभियान की कड़ी के रूप में  अब भाजपा जैसी जो नई सरकारें आ रही हैं, वे अपनी विकास योजनाओं का बीमाकरण और  निजीकरण करती हुई अपनी जिम्मेदारियों से हाथ धोने लग पड़ी है। लोगों को देशभक्त बनाये रखने और वास्तविकता से भ्रमित करने के लिये नारा यह दिया जाता है कि हम सब मिलजुल कर देश के लिये कष्ट सह कर भी अपने अर्थतन्त्र को स्वावलम्बी बनाएँगे। यानी सरकारी, सार्वजनिक और निजी क्षेत्र सब अब एक ही तरह से अपना मुनाफा कमाएँगे। वे अपने विकास के लिए सरकार की ओर देखने की बजाय अपने ही संसाधनों से मुनाफे का आयोजन एवं प्रबन्धन करेंगे। इसी तर्ज पर सरकारी स्कूलों, अस्पतालों, रेलवे प्लेटफार्म आदि से लेकर तमाम जन सुविधा केंद्रों को यह कहा जा रहा है कि वह स्वावलम्बी होने का प्रयास करें। यानी आपने आन्तरिक प्रबन्धन के द्वारा लोगों से वसूल पाए धन के द्वारा अपने सारे कार्यों को चलाएँगे। इसे अर्थतन्त्र के स्वावलम्बी होने के एक सूचक के रूप में देखा और दिखाया जाता है। इसी तर्ज पर एयरपोर्ट्स से लेकर ऐतिहासिक स्थलों और रेलवे प्लेटफार्म तक बहुत से सार्वजनिक क्षेत्रों को निजी कंपनियों के ठेकेदारों के हवाले करने की योजनाएँ बन रही है। इनका प्रचार अलग शक्ल देकर किया जाता है। कहा जाता है कि सरकार लोगों को अधिक सुविधाएँ देने के लिये काम कर रही है। इस तरह हमारे दौर के यह चुनाव प्रचार तन्त्र  उस धोखे के ऊपर आधारित है जो वास्तविकता को छिपाकर उसे जन हितैषी रुप प्रदान करते हैं और वोट बटोर कर आगे बढ़ने का प्रयास करते हैं।

भारत के लोकसभा चुनावों में 2014 और 2019 के दौरान इन तमाम नवराष्ट्रवादी प्रवृत्तियों का बोलबाला स्पष्ट दिखाई देता है। पर्दे के पीछे सत्य क्या है उसे लोगों के बीच ले जाने की जरूरत अब पहले से कहीं अधिक बढ़ गयी है। लोगों के बीच असल बात की बजाय उसके लोक लुभावने रूप  ही  प्रचारित हो रहे हैं। असल या मूल बातों को छिपाने के लिए लोगों को देश भक्ति एवं राष्ट्रवाद से जुड़े साम्प्रदायिक विभेद वाले सवालों में उलझा दिया जाता है। या उनके हिन्दूवादी उभार को हवा देकर पुनरुत्थानवादी प्रवृत्तियों को, विश्व गुरु बनने की दिशा में उठाए कदम की तरह प्रचारित किया जाता है। ये सारी प्रवृतियाँ सूचना प्रौद्योगिकी के द्वारा पैदा किए गए अर्ध सत्य की तरह हैं। ये वास्तविकता को छिपाती हैं और लोगों को मूलवाद में  भटका कर अन्य जगह केंद्रित करती है।

इन तमाम बातों के परिणाम समय रहते आएँगे अवश्य। धीरे-धीरे समझ में आएगा कि इनके पीछे की साजिश क्या है। सवाल उठेंगे कि  ये चीजें भारत को कितना आगे ले जा सकती हैं ? इनमें कितना दम है,  यह भी बहुत जल्द हमारे सामने प्रकट हो जाएगा। यदि भारत विश्व गुरु होने की दिशा में इन बातों के आधार पर सफल या असफल होता है, तो उसके कारण भी हमारे सामने स्पष्ट हो जाएँगे।  अगर बात यह है कि भाजपा भारत को विश्व गुरु बनाना चाहती है, तो उसका पूरा ध्यान भारत में ज्ञान विज्ञान के विकास को और अधिक गति देने से जुड़ा होना चाहिये।  जबकि हकीकत यह है कि  उसकी जगह हम शिक्षा के निजीकरण के अलावा शिक्षा के बजट में जबरदस्त कटौती भी देख रहे हैं। इससे कही गयी बात और उसकी अंतर्वस्तु के बीच के फर्क को साफ देखा जा सकता है।

इसे हम सत्तापक्ष की आलोचना के रूप में ग्रहण न करते हुए वास्तविकता को समझने के प्रयास की तरह देखेंगे तो भारत के विकास और रूपांतर की दिशाओं को समझ कर अपना विकल्प खोजने की ओर एक कदम अवश्य बढ़ा सकेंगे। हमारा समय एक दूसरे को आरोप-प्रत्यारोप में उलझा कर मूल बातों को हाशिए पर डालने का समय है। इससे भारत जितनी जल्दी उबर सकेगा, उतना ही हमारा लोकतन्त्र मज़बूत होगा और हम भारत के विकास और प्रगति के लिए सकारात्मक एवं सृजनात्मक ऊर्जा से भरे प्रयास करने की दिशा में आगे बढ़ सकेंगे। हमारे चुनाव अगर हमें आत्मावलोकन की दृष्टि और सामर्थ्य  ही दे जाए, तो उसे हम फिलहाल पर्याप्त कह सकेंगे।

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विनोद शाही

लेखक हिन्दी के वरिष्ठ आलोचक हैं। सम्पर्क +919814658098, drvinodshahi@gmail.com
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