समाजसाहित्य

साहित्य अकादमी का सवर्णवाद

आजाद भारत की साहित्य अकादमी का 1955 से 2018 तक का लम्बासफर दागदार रहा है। यह दाग, जातिवादी पक्षधरता का है और भाई भतीजावाद का। यह दाग गिरोहबंदी और अपनों को उपकृत करने का रहा है। इसकी सम्पूर्ण गतिविधियों में पारदर्शिता नहीं है। अब तक अकादमी के पदाधिकारी, निर्णायक और पुरस्कृत लेखक कतई उस समाज के नहीं रहे, जो वंचित या अल्पसंख्यक समाज कहा जाता है। साहित्य की दिशा और दशा को रेखांकित करने वाली इस संस्था और उसके निर्णायकों के चाल-चरित्र की कहानी बयां करने को कुछ ठोस साक्ष्य हैं, जिनका उल्लेख किया जाना जरूरी हो गया है।

साहित्य अकादमी के इस पक्षधर रास्ते की पृष्ठभूमि आजादी पूर्व की कुछ साहित्यिक पत्रिकाओं और रामचन्द्र शुक्ल जैसे कुछ लेखकों के विचारों में देखा, समझा जा सकता है। बाद में, साहित्य में भिन्न परिवेश, ऊर्जा और समझ से दाखिल हुए दलित, पिछड़े, आदिवासी और अल्पसंयख्क वर्ग के लेखकों को यह बात बहुत साफ-साफ दिखने लगी कि यह अकादमी, उनके लिए नहीं है। उन्हें याद आये कबीर, जिन्हें रामचंन्द्र शुक्ल कवि ही नहीं मानते। उन्हें याद आयीं आजादी पूर्व की साहित्यिक पत्रिकाएं, जिनमें छपी अधिकांश कहानियों और कविताओं में कहीं जातिदंश या भूख देखने को नहीं मिला, गोया वर्णवादी समाज में जातिदंश या भूख कोई समस्या न हो। उन्हें याद आया अवध में 1920 से 22 तक चला भीषण किसान विद्रोह, जिनमें हजारों गरीब किसान मारे गये मगर तत्कालीन कहानियों में उनका जिक्र नहींहुआ क्योंकि जुल्म करने वाले ज्यादातर जमींदार और तालुकेदार उन्हीं की जाति-बिरादरी के थे। तो फिर यह हिन्दी साहित्य, देश के बहुसंख्यक दलित, आदिवासी, पिछड़े, अति पिछड़े और अल्पसंख्यकों का कैसे हुआ, जिन्हें हम हाशिये का समाज कहते हैं। भला हो मुंशी प्रेमचंद का, जिनके आगमन के बाद हिन्दी साहित्य के वर्णवादी चरित्र को तोड़ने का आंशिक प्रयास हुआ। फिर भी दलित, आदिवासी और स्त्री विमर्शों की शुरुआत होते-होते कई दशक बीत गये। कथादेश वह पहली पत्रिका बनी, जिसने पहली बार किसान विशेषांक निकाला।

हिन्दी साहित्य का बुनियादी चरित्र वर्णवादी रहा है। यहां दलित, पिछड़ों, आदिवासियों और अल्पसंख्यकों को कभी कोई मुकम्मल स्थान नहीं मिला। जिस देश के समाज को हजारों जातियों में बांट दिया गया हो, जहां सुबह से शाम तक जाति के बिना किसी व्यक्ति की कोई पहचान न हो,वहां की साहित्य अकादमियां,अगर दो-चार जातियों में ही सिमट कर रह गयी हों तो पक्षधरता का सवाल तो उठेगा ही। रचना की गुणवत्ता के आधार पर भी इसे तोपा-ढांपा नहीं जा सकता।

साहित्य अकादमी के 63 सालों के इतिहास में 29 बार ब्राहमण, 10 बार कायस्थ, 9 बार वैश्य, 7 बार राजपूत, 5 बार खत्री, 1 बार भूमिहार ब्राहमण, 1 बार जैन और 1 बार जाट को साहित्य अकादमी पुरस्कार मिला है। अस्सी प्रतिशत जनसंख्या वालों की जाति या वर्ग यहां नहीं है। केवल बीस प्रतिशत ही अपनी मेधा का डंका पीट रहे हैं। इसके बावजूद, विश्वस्तर पर इन्हें कोई पूछता ही नहीं। दुनिया में ओमप्रकाश वाल्मीकि की ‘जूठन’ पढ़ाई जाती है।

अकादमी द्वारा सिर्फ पिछड़े, दलितों और आदिवासियों को ही नहीं, अल्पसंख्यकों को भी किनारे लगाया गया है, जबकि उनकी रचनाओं का लोहा पूरा साहित्य समाज मानता है। अब पूछा जाना चाहिए कि ‘वैशाली की नगर वधु’, ‘मैला आंचल,‘आधागांव’,‘मास्टर जगदीश’, ‘धरती धन न अपना’ और ‘फांस’ जैसी कई रचनाओं के सामने साहित्य अकादमी बौना नहीं तो क्या है ? आचार्य चतुरसेन, राही मासूमरजा, फणीश्वरनाथ रेणु की रचनाओं में जो यथार्थ व्यक्त हुआ है, क्या वह साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त लेखकों से उन्नीस है? क्या उनकी रचनाओं में इस भू-भाग के व्यापक समाज का दुख-दर्द नहीं है? और अगर है तो साहित्य अकादमी का उससे परहेज, उसकी कुलीनतावादी दृष्टिकोण का प्रमाण नहीं है? पूछा जाना चाहिए कि देश की तमाम साहित्य अकादमियों और संस्थाओं में जो लोग बैठे हैं, उन्होंने अपने अध्यापन काल में हाशिये के समाज के कितने लड़कों को पी.एच.डी. करायी? कितनों को अध्यापक बनाया? और जब वे अकादमियों में आये तो पुरस्कार बांटने के अलावा और क्या-क्या ऐसा किया जिन्हें याद किया जाना चाहिए? स्वाधीनता आंदोलन के किस कालखंड का गहन शोध किया या कराया, भाषा संस्थानों ने भाषा को समृ़द्ध करने में क्या किया? सिर्फ यही न कि विश्वविद्यालयों में अपने चहेतों को रखने, दिल खोलकर अपनों को रेवड़ियां बांटने और हाशिए के समाज के लोगों को हतोत्साहित करने का काम किया?

चलिए मान लेते हैं कि अकादमियों ने गहन छानबीन कर लेखकों का चयन किया है, करती रही हैं तो क्या अकादमियां पाठकों के ज्ञान के लिए इस तथ्य का खुलासा करेंगी कि किस वर्ष कौन-कौन चयन समिति में रहा? उनकी जाति न सही, योग्यता क्या थी और उनके सामने मूल्यांकन हेतु कौन-कौन किताबें थीं, जिनमें से उन्हें अमुक कारण से अमुक रचना पसंद आयी? मैं दावे के साथ कहता हूं कि यहीं पर उनका पोंछिटा ढीला हो जायेगा। वे बगलें झांकने लगेंगी और फिर प्रवचन सुनाई देगा कि लेखक, केवल लेखक होता है, उसकी कोई जाति नहीं होती, आदि-आदि।

राजेन्द्र यादव के हंस से भी आप भिज्ञ होंगे। यह उनकी देन कही जायेगी कि उन्होंने हिन्दी में दलित और स्त्री विमर्श को स्थान दिया। उसकी संवेदना की ताकत से साहित्य को परिचित कराया। उस पर कुछ सवर्ण मानसिकता के लेखकों का यह कहना कि वे हंस नहीं पढ़ते, तो मत पढ़िए! आप जैसे कूढ़मग्ज़ के लिए हंस था ही नहीं?भइये, हम भी तो आपके प्रवचनों को नहीं पढ़ते-सुनते? आपके तो भाई बंधु ऐसी-ऐसी भाषा की पत्रिकाओं में लेखन कर पुरस्कार बटोर ले जाते हैं जिनको बोलने या पढ़नेवाले हजारों में हैं, वह भी मात्र उन्हीं की बिरादरी के? हमारे लिए तो वैसी पत्रिकाएं किसी काम की नहीं हैं? अगर आप दलित या स्त्री विमर्श से दूर रहते हैं तो यह कोई आश्चर्य की बात नहीं? जिस जातिवादी मानसिकता ने हाशिए के समाज को, समाज के बजाय दास माना हो, उसके विमर्श को वह भला पढ़ेगा क्यों? उसे तो ओमप्रकाश वाल्मीकि का जूठन, नस्तर की तरह चुभ जायेगा। मधुकर सिंह के जातिवाद के विरुद्ध विद्रोही तेवर, अखरेंगे।

वर्तमान समय में किसान आत्महत्या के दौर में संजीव ने फांस उपन्यास लिखा। शायद ही किसी अकादमी के मठाधीश ने उसे पढ़ा हो। इतने सम-सामयिक मुद्दे को उठाने वाली रचना को किनारे लगाने का कुचक्र करने वाले ही साहित्य अकादमियों के सहारे हिन्दी साहित्य की जनपक्षधरता के विरुद्ध मुहिम छेड़े हुए हैं। वे साहित्य को बौद्धिक दरिद्रता में जकड़े रखना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि यहां भी अंतर्राष्ट्रीय स्तर का साहित्य रचा जाये।

हाशिए के समाज के लेखकों की एक बड़ी और समृद्ध सूची हमारे सामने है। उनके पाठकों की संख्या ही हिन्दी साहित्य के पाठकों की संख्या है।आबिद सुरती, बदी उज्जमा, शानी, वामिक जौनपुरी,अब्दुल बिस्मिल्लाह औरअसगर वजाहत जैसे मुस्लिम लेखक की बात की जाये या पुन्नी सिंह, राजेन्द्र प्रसाद सिंह, नैमिशराय, चैथी राम, श्योराज सिंह बेचैन, शिवमूर्ति, रामधारी सिंह दिवाकर, चन्द्र किशोर जायसवाल और दिनेश कुशवाह जैसे वरिष्ठ साहित्यकारों की, इनकीरचनाएं हर उस पाठक को झकझोरती हैं, जो हाशिए के समाज के दुख-दर्द को जानता और समझता है। नाम तो और भी हैं पर उनका उल्लेख किए बिना हमारी बात स्पष्ट हो जाती है। आखिर कोई भी अभी तक हिन्दी अकादमी की नजरों पर नहीं चढ़ा तो कहा जा सकता है कि अकादमी ने ऐसे समाज के लिए अपनी आंखों पर माड़ा चढ़ा रखा है। उन्हें हाशिए के समाज का कोई लेखक दिखता नहीं ।

दरअसल साहित्य अकादमियां, अपने वर्ग-वर्णों तक सीमित होकर, सांस्कृतिक अपराध कर रही हैं और न्याय के सार्वभौमिक सिद्धांत में अविश्वास पैदा कर रही हैं। एक ओर तो यह कहा जाता है कि हिन्दी साहित्य का दायरा संकुचित है। यहां कालजयी रचनाएं नहीं रची जा रहीं या पाठकों ने आज की रचनाओं से दूरी बना ली हैं तो इस आरोप के लिए साहित्य अकादमियां भी जिम्मेदार हैं। यह उन्हीं का आचरण है कि दोयम दर्जे की कृतियां पुरस्कृत हो जाती हैं। कई बार तो लेखकों की जिन कृतियों के लिए साहित्य अकादमी पुरस्कार दिया गया, उन कृतियों से बेहतर उनकी दूसरी कृतियां थीं। इससे साफ होता है कि अकादमियों के पास मूल्यांकन का कोई वैज्ञानिक तरीका नहीं है।अकादमी में जाने या बने रहने के लिए इतने स्वांग रचाने पड़ते हैं कि पढ़ने की फुर्सत कहां? भांग खाये, अघाये सिर्फ खैरात बांटने की संस्कृति वाले ही यहां सुशोभित होते रहे हैं। इसलिए कहा जा सकता है कि सिर्फ और सिर्फ जाति, बिरादरी, चटुकारिता, दारू, बैठकी और जुगाड़ है जो अकादमियों की गरिमा को खत्म कर रहा है।

बोली-भाषा, विषय और कथ्य के आधार पर कहा जा सकता है कि हिंदी साहित्य, सवर्ण साहित्य रहा है। जबसे हाशिए के समाज ने इसमें दखल दिया है तभी से यह जनपक्षधर बना है। तभी से यह पढ़ने लायक हुआ है। तभी से यहां भूख, गरीबी और जातिवाद के वास्तविक चित्रण देखने को मिले हैं। इसलिए साहित्य अकादमियों की पक्षधरता और कृत्य, हाशिए के समाज के लेखकों के विरुद्ध है। हाशिए के समाज से इनके मठाधीश घृणा करते रहे हैं ।यह पढ़े-लिखों की अस्पृश्यता है। इसकी निंदा की जानी चाहिए। हिंदी साहित्य की दुर्दशा और गुणात्मक कार्य न होने का यह भी एक कारण है।

 

सुभाष चन्द्र कुशवाहा

लेखक प्रसिद्ध साहित्यकार और विचारक हैं।

sckushwaha@gmail.com

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लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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