चर्चा मेंदिल्लीदेशसमाज

भीड़ लोकतंत्र की ही हत्या कर दे उसके पहले…

sablog.in डेस्क/ शनिवार को ही दिल्ली के रोहिणी में एक व्यक्ति को चोरी के आरोप में भीड़ ने जान से मार डाला। देश की राजधानी में होने वाली यह पहली घटना नहीं है। 25 नवम्बर को 24 वर्ष के एक युवक को कार की बैट्री चुराने  के आरोप में बिजली के खम्भे से बाँध कर इतना पीटा कि उसकी मौत हो गई। 4 सितम्बर को 16 वर्ष के एक लड़के को मुकंदपुर में पड़ोसियों ने चोरी के आरोप में मार डाला। 11 जुलाई को 31 साल के व्यक्ति को बुराड़ी में भीड़ ने मार डाला। 30 जून को सरिता विहार में एक युवक भीड़ के द्वारा हत्या के  डर से छत से गिर कर मर गया। यह  तो पिछले कुछ ही महीनों की बात है,यदि हम वर्षों का हिसाब करें तो संख्या बहुत डरावनी हो जाएगी।

यह मामला केवल हिंदू मुस्लिम का नहीं है, बल्कि हमारे समाज में कुछ ऐसा चल रहा है जिसे हम समझ नहीं पा रहे  हैं। आश्चर्य है कि हमारे देश के मनोवैज्ञानिक इस पर कुछ कह नहीं रहे हैं। क्या गांधी के इस देश में हिंसा ही हमारी मानसिकता हो गई है? क्या हम सभ्यता से वापस बर्बरता  की ओर लौट रहे हैं?  लगता है कि हमारे अंदर का दैत्य बाहर आ रहा है।

बाहर हो रही हिंसा का स्रोत हमारे अंदर ही है। हमारा समाज अंदर से बैचेन और असुरक्षित होता जा रहा है। हम अविश्वास के नए युग में प्रवेश कर रहे हैं। हमारे समाज में सद्भाव और परस्पर विश्वास की भावना तो विलुप्त हो ही रही है,हमारा खुद  पर विश्वास कमता जा रहा है। बढ़ते अविश्वास का  एक कारण तो यह भी हो सकता कि हमारा देश आर्थिक संकट से गुज़र रहा है। अभावग्रस्त होने के चलते हम मानसिक तौर पर इतने परेशान हैं कि छोटी सी बात पर ग़ुस्सा करना हमारा स्वभाव होता जा रहा है। अपने इस असंतोष और असफलता के कारण हमारी मानवीय संवेदना  भीड़ की अराजक और अनियंत्रित उत्तेजना में तब्दील होती जा रही है। यह स्थिति बेहद ख़तरनाक है क्यों कि इस भीड़तंत्र का अगला पड़ाव फसीवाद  ही है।

भीड़ की हिंसा इस बात का प्रमाण है कि कानून के शासन पर हमारा भरोसा नहीं रहा। हम मानते हैं कि यदि अपराधी को हम पुलिस के हवाले करेंगे तो पुलिस पैसे लेकर उसे छोड़ देगी। आम लोगों का विश्वास यदि पुलिस, प्रशासन और न्यायिक व्यवस्था पर नहीं रहा तो भारत जैसे बड़े लोकतंत्र  में सामाजिक संकट और भी बढ़ सकता है।

हमारा समाज यदि जनतांत्रिक नहीं होगा तो हमारी राजनीति कभी जनतांत्रिक नहीं हो सकती है। इसके पहले कि हम राजनैतिक क्रांति की बात करें हमें ज़रूरत है एक सामाजिक क्रांति की जिससे हमें सभ्यता के कुछ नुस्ख़े सीखने में सहायता मिले। अन्यथा हमारी राजनीति ही हमारे समाज को लील लेगी। सामाजिक क्रांति का यह काम  करने में हमारी संसदीय राजनीति विफल हो गयी है। आज की जरूरत है कि सभी सामाजिक संगठन इस मुहीम में एकजुट हों।

सुप्रीम कोर्ट ने सरकार को  निर्देश दिया है कि उन जिलों को अंकित करें जहाँ भीड़ के द्वारा हत्याओं की संख्यां बढ़ रही है, हत्या के आरोपियों को कड़ी सज़ा का प्रावधान हो, पुलिस को सजग किया जाए आदि-आदि। लेकिन यह सब तो हत्या हो जाने के बाद की बातें हैं और क़ानून के डर से कुछ रुका नहीं है आजतक। सुप्रीम कोर्ट को भी इसके कारणों को समझने के लिए एक टास्क फ़ोर्स बनाना चाहिए।

 

कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।
Show More

सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
0 0 votes
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

0 Comments
Inline Feedbacks
View all comments
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x